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________________ ज०वि० मणी प्रार्थी उडिये गगन में । चलिया शीघ्र गति ॥ देखो० ॥ १० ॥ विद्याधर सम विविध प्रकारे । क्रीडा करत क्षीति । संत सतीयों के दर्शन करते । सुने व्याख्यान गीति ॥ देखो०॥ ११ ॥ क्षुधित हुवे तेहि मणी पसाये । नीपाय भोजन इच्छति । शाल दाल पक्वान व्यंजन तोय । सरस सुखद बहुभांति ॥ देखो० ॥ १२ ॥ उत्तम भूषण वस्त्र सजे सदा । दान पुण्य करते विति । देवसमा यों सुख | भोगवते । जाय आनन्दे मिति ॥ ॥ देखो० ॥ १३ ॥ यों फिरता ते दिवस । सातवे । कामपुर ने अंकति । उतरे अाइ वाग मांही । हर्षे जो नगरा कृति ॥ खो० ॥ १४ ॥ साक्षात् जाने स्वर्गपुरी ये । दिव्य ज्योति झलकति । चिन्ते चित में जय जीते वारे । आज भाइ ले राजप्रति ॥ देखो० ॥ १५ ॥ पण यह तो गृहण न करसी । महारी लज्जावति । इण कारण भेजूं इणने ही पुर में ! मैं यहां ही | - लेवू विश्रंति ॥ देखो० ॥ १६ ॥ कहे भाइ में विश्राम यहां लेवें । तुम जानो नगर N] प्रति । अनोखी वस्तु मिले सो लाग्यो । ना कह जो थे मति ॥ देखो० ॥ १७ ॥
SR No.600301
Book TitleSamyktotsav Jaysenam Vijaysen
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherRupchandji Chagniramji Sancheti
Publication Year
Total Pages190
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size15 MB
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