SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 127
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज०वि० ११८ तोही सुर मुझ नाम कहात तो ॥ यों अभिमान निश्चय करी । तत् क्षीण चल कर भरत में यात तो ॥ सम ॥ ७ ॥ समण भूत प्रतिमा धारी । चुलक श्रावक का रूप बनाय हो। निर्ममत्व अल्प परिग्रही । सर्व शास्त्र को जाए कहाय तो ॥ जाणे दुक्कर क्रिया तप करी । हाड पिंजर कियो ऩन सुकायतो ॥ डम्बर अधिको करी । " जैन पण्डित” नाम प्रसिद्धी पाय तो ॥ सम ॥ ८ ॥ ग्रामादि में विचरता । बहू मण्डाणे विजयपुर प्राय तो ॥ सुणी श्रावक घणा हर्षीया । वन्दे नमें धर्म स्थानकलाय तो ॥ इर्या सोधत चालता । आया नृप पोषध शाल माय तो ॥ लेइ रजा तिहां उतरीया । दया क्षमा शील शुद्ध जाय तो ॥ सम ॥ ६ ॥ लोलपी नहीं रसना तणा । भिक्षावृति से लेवे लुख सुख आहार तो ॥ उदेशीक नित्य पिण्ड वर्जता । ऐषणा अधिक कठिण आचार तो || सद्बोध करे विविध परे । गहन शास्त्रार्थ करे विस्तार तो ॥ हेतु कथा से रुचावइ । गावे रास रागे ललकार तो ॥ सम ॥ १० ॥ परिषद घणी अकर्षावर । त्याग प्रभावना होवे उपकार तो
SR No.600301
Book TitleSamyktotsav Jaysenam Vijaysen
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherRupchandji Chagniramji Sancheti
Publication Year
Total Pages190
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy