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________________ ११६ ज०वि०|| विजयराय सुण हर्षीया । मिलण अाया पौषध शाल मझार तो ॥ सुखशाता पूछ | विराजीया । ते भी सुख पूछे मधुर उचार तो ॥ लोक प्रसंस्या करे घणी । ते निजात्मने देवे धिक्कार तो॥ सम ॥ ११ ॥ ज्ञान क्रिया व्यवहार शुद्ध । उपकारी गुणी नृप तस जाण तो ॥ राख्या तहां अग्रह करी । वृद्धि करण सुकृत्य धर्म ज्ञान तो॥ आप भी आवे को अवसरे । धर्म चरचा करे करे पेछान तो ॥ बुगला | - भक्ति थी जनघणा । मोहाया करे सेवा सन्मान तो ॥ सम ॥ १२ ॥ माया वीछले । सर्वज्ञ को । तो अन्य की क्या कथा कहाय तो ॥ गुणानुरागी रीजै गुण लखी। छद्मस्ताते जेता जणाय तो ॥ पंचमी ढाल अमोलक कथी । श्रोता सुणो आगे चित्त लगाय तो । अद्भूत रचना रचे असुर ते । विजय निकन्दे मिथ्याकन्द तांय | तो ॥ सम ॥ १३ ॥ ॥ दोहा ॥ विजयराय निजवस्य करण । देवते रचे उपाय॥ गुप्त रूप श्रुत केवली ढिग । रही ज्ञान धार अाय ॥ १ ॥ गहन रेश शास्त्रज तणी । एकान्त नृपने बताय ॥ प्रश्नोत्तर करे रायजो। ते भी तैसी पूछ प्राय ॥२॥
SR No.600301
Book TitleSamyktotsav Jaysenam Vijaysen
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherRupchandji Chagniramji Sancheti
Publication Year
Total Pages190
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size15 MB
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