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ज०वि०
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पूर्व लाभ ज्ञान को लही । श्रानन्दे राजान || अहोनिश तस सेवा करे । सुर नहीं दे पहचान ॥ ३ ॥ काल बहुयों वीतीयो । प्रतीत्या भूपाल ॥ विनीत शिष्य परे देवना । बचन करे अंगीकार ॥ ४ ॥ निज वस्य भयो जाणी रायने । साधन इष्ट तेवार ॥ विरूधा चरण करे देवता । ते सुणो सुज्ञ नरनार ॥ ५ ॥ * ॥ ढाल ६ ठी । आठ कूवा नव बावडी ॥ यह० ॥ श्रावक कहे सुणो चित्त दे || राजेश्वरजी ॥ जैनधर्म श्रेयकार || अहो धरणीधरजी ॥ पण नमिलती कथनी घणी ॥ राजेश्वरजी ॥ अव ते में करूं उचार ॥ ग्रहो धरणी धरंजी ॥ १ ॥ सिद्ध अनन्ता होगया || राजे• ॥ हुवे है होस अनन्त ॥ अहो घ० ॥ जीवरासी संसारी जी ॥ राजे• ॥ कदापि नहीं घटन्त ॥ अहो ध० ॥ २ ॥ राय कहे तुम सालो ॥ ये श्रावकजी || श्रीमत तहामेव सत्य ॥ अहो सुणो श्रावक जी ॥ व्यवहार व्यवहार रासजी ॥ सुणो श्रा० ॥ दोषरुपी जिन गत ॥ अहो सुणो ॥ ३ ॥ अव्यवहार रासी से नीकली ॥ सुणो ॥ व्यवहार रासी