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________________ ज०वि० से कहाडीये रेलो ॥ अहो ॥ धर्म को जो जाणे सत्य जो । तो किम असत्य में १५३ । निजात्म नमाडीयेरे ॥ २॥ अहो ॥ जो कधी जावै प्राण जो। प्राण न खण्डू हूं । कधी श्री वीतरागनीरे लो॥अहो ॥ देविन्द्र देव लिया मान जो। वो किम वन्दे प्रतिमा हिवे हीन नागनी रेलो ॥३॥ अहो ॥ अतिचार अरूप ते बहुत जो। समाल करीने आत्म डूबावे आपनी रेलो ॥ अहो ॥ दया निजात्मनी होय जो। तोयज परनी दया श्रेय मत थापनीरे लो ॥ ४ ॥ अहो ॥ ज्यों कंटक खुचे अंग | माय जो । तिम अन्य मत पेठो अति दुःखदाइ हेरेलो ॥ अहं ॥ जाणी लगावे | अतिचार जो । तास प्रायश्चित शास्त्र किसा बताइये रेलो ॥५॥ अहो ॥ जो करे 17 व्रत खण्डन जो । तेहथी अण खण्डीत व्रति सदा भलारेलो॥ हो ॥ जो होवे | स्थिर रहेण समर्थ जो। तो भले राखो आपणा व्रत ने निर्मला रेलो ॥६॥ अहो ॥ जो पालन सके उत्सर्ग जो। तो ते कायर सेवे छ अपवादने रेलो ॥ अहो ॥ । पाले अडग उत्सर्ग जो। तहां ने अपेक्षा करीये कहा स्याद्वादने रेलो ॥७॥
SR No.600301
Book TitleSamyktotsav Jaysenam Vijaysen
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherRupchandji Chagniramji Sancheti
Publication Year
Total Pages190
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size15 MB
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