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________________ १६७ नवि० कोइ परम ॥ २॥ सो जाचं में तुम कने । और न को मुझ चहाय ॥ इतना पर जो देवो मुझ । तो मांगू एकवाय ॥ ३॥ देव कहे फरमाइये । आप कहो सो प्रमाण ॥ राय कहे तो छोडदो। मिथ्यामत दुःख खाण ॥ ४ ॥ स्वीकारो जैन । । धर्म को । करो चउतीर्थ सेव ॥ उन्नती करो धर्म सत्य की । पावो सुख सदेव ॥ ५॥ प्रमाण वचन यह अापका । करजोडी कहे देव ॥ में धार्यों जैनधर्म को। पालुंगा अहमेव ॥ ६॥ विजय गुरु वंदन करी । खेद हर्ष दिलधार ॥ देवगया देवलोक में ॥ पाले धर्म स्वीकार ॥७॥ ॥ ढाल १६ वी॥ तूं महारी जरणी॥ यह | ॥तुम सुनो गुनी लोको। सर्वार्थ सिद्ध शुद्ध ध्यान से ॥टेर॥पक्खीपर्व अाराधन विजय जी। पोषध शाल में प्राय। अष्टादश दोपण रहित शुद्ध । पोषधव्रत गृही रहाय ।धर्यो ध्यान तव पिछली राते । धर्म ध्यान को ध्याय हो । तुम ॥ १ ॥ चिन्ते धिक्कार मुझ ने ताई लुब्धी सुख मझार । जाण ता ही पण छोड़ी न सकुं। यो संसार असार । राज कुटुम्ब मे गृद्ध हुवो में । करणी न बने लगार हो ॥ तु.
SR No.600301
Book TitleSamyktotsav Jaysenam Vijaysen
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherRupchandji Chagniramji Sancheti
Publication Year
Total Pages190
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size15 MB
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