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________________ भ०वि० सत्व धर । अाज तुम प्रत्यक्ष देखाइ॥ प्रभाण जन्म जैन कुल धर्मने । जे जगे तुम १६६ पायाजी पायाइजी ॥ धन्य ॥ १६ ॥ में महादुष्ट कुदेव दयाहीन । जुलम अति कीधाइ ॥ IN विना गुणे महा धर्मात्म ने । संताप्या कुटुम्ब सहाइजी ॥ धन्य ॥ १७ ॥ पण तुम | मने से काल इतना में । देष जरा न लायाइ ॥ ऐसी द्रढता किंचित मुनि में । तो N संसारी क्या कहाही हो ॥ धन्य ॥ १८ ॥ अहो नरेन्द्र धर्मेन्द्र कृपालु । मुझ रंक । पर दया लाइ ॥ खमो २ यह सर्व गुन्हाने । अब फिर करूंगा नाहीं हो ॥धन्य॥ १६ ॥ करी बक्षीस क्षमा किंकर पर । दो माफी दान सहाही ॥ एह उपकार न भूलू कदापि । मेहर करो महाराइहो ॥ धन्य ॥ २० ॥ मुझ लायक चाकरी फर माइ । पवित्र करो मुझ तांइ ॥ ढाल अष्टदश माहीं अमोलक । सानन्दाश्चर्य वर । त्याइजी ॥ धन्य ॥ २१ ॥ॐ ॥ दोहा ॥ संतुष्टी नृप कहे देव को। तुम अपराध IN न लगार ॥ महारा बन्ध्या भोगव्या । न करो कोइ विचार ॥ १ ॥ सुर तरु चि न्तामणी थकी। अधिक जिनेश्वर धर्म ॥ सो फल्यों मुझ हृदय विषे। इससे न ।
SR No.600301
Book TitleSamyktotsav Jaysenam Vijaysen
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherRupchandji Chagniramji Sancheti
Publication Year
Total Pages190
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size15 MB
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