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________________ ज०वि० हो ॥ भ० ॥ १४ ॥ ये तीन लिंग ज्यों जिन बचने, द्रढ़ प्रीति धरी हो ॥ अरि- !! १०७ । हंत सिद्ध सूरी ज्ञानी । मुनि तपी संघ चारो हो ॥ भ० ॥ १५ ॥ कुल गण ने | क्रियावन्त का । नित्य विनय करीजे हो ॥ त्रियोग शुद्ध जिनमति तणा । गुण हृदय धरीजे हो ॥ भ०॥ १६ ॥ शम सम्वेग निर्वगता। अनुकम्पा प्रास्ता हो। | यह लक्षण ने धारता । मिले सुख शाश्वता हो ॥ भ०॥ १७ ॥ शंक कांक्षा वितिगिच्छा । पाखण्ड परसंसा हो ॥ परिचय तजे पाखण्डि का । दोष पंचहिंसा हो ॥ भ०॥ १८ ॥ क्षमाधैर्य गुणज्ञता । धर्मी भक्ति उन्नती हो ॥ भूषण पंच धारण करे । जो नर समकिती हो ॥ भ० ॥ १६ ॥ सूत्रज्ञ बोधक वादी जय । त्रिकालज्ञ * तपसी हो ॥ प्रसिद्धवति बुद्धवन्त कवी । प्रभावक दिपसी हो ॥ भ० ॥ २० ॥ राजा बली गुरु न्यात ने । देव मरण संकटे हो ॥ दोष लगे जो समकिते । प्रा. गार छे दंटे हो ॥ भ० ॥ २१ ॥ बोलाया विन बोलाया ही । बोले धर्मी से जाइ । हो ॥ दान मान वंदन नमन । छे यत्ना कराइ हो ॥ भ० ॥ २२ ॥ मूल कोट
SR No.600301
Book TitleSamyktotsav Jaysenam Vijaysen
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherRupchandji Chagniramji Sancheti
Publication Year
Total Pages190
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size15 MB
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