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________________ ज०वि० | १०८ नीम करंडीयो । हाट भाजन जैसी हो । धर्म की समकित गिणे । छे स्थानक ऐसी हो ॥ भ० ॥ २३ ॥ श्रात्मा है सदा शाश्वती । कम करती भुक्ति हो ॥ भा - वना निश्चय ये रखे । त्रिरत्ने मुक्ति हो ॥ भ० ॥ २४ ॥ यह व्यवहार सम्यक्त्व | सत सठ गुण पावे हो ॥ भावे अनन्तानुबन्धि चौकडी । त्रिमोह क्षपावे हो ॥ भ० ॥ २५ ॥ तदेव निग्रन्थ गुरु । दया धर्म व्यवहारे हो || देवात्म गुरु ज्ञान ने । धर्म शुद्ध भाव धारे हो || भ० || २६ || सम्यक्त्व धर्म द्रढाववा । देशना ये फरमाई हो || खण्ड दूजे ढाल दूसरी । ऋषी अमोलक गाइ हो ॥ भ० ॥ २७ ॥ * ॥ दोहा ॥ श्रोता ऋप्त्या सम्यक्त्व सुधा । अत्यन्त आनन्द्या मन || अपूर्व भाव श्रवणे हुवा | आज दीहाडो धन || १ || राजेश्वर जय विजय युग । पाया ही प्रकाश ॥ उत्सुक हो लुली २ नमी । प्रणम्या करे अरदास || २ || स्वामीजी कृपा करी । कहो भवन्तर विध || संजोग वियोग हम किम लीयो । कैसे मिली यह रिद्व ॥ ३ ॥ उपकार कारण जाके । श्री सर्वज्ञ भगवन्त ॥ पूर्व भव जय
SR No.600301
Book TitleSamyktotsav Jaysenam Vijaysen
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherRupchandji Chagniramji Sancheti
Publication Year
Total Pages190
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size15 MB
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