________________
ज०वि०
२६
जी । जाणे न कुल को गुरु ॥ श्र० || १३ || बोलाइ कहे पुत्री ने जी । अनिष्ट वयण करुर । तें एक नर धारण कियोरी । फूली योवन के गरूर ॥ श्र० ॥ १३ ॥ कुलाचार किम थें तज्योरी । भंग कियो लियो नेम | पांचसो मोर नित्य तुझ दिये । तास्युं ही कीजीये प्रेम ॥ श्र० ॥ १४ ॥ कामलता देखाडीया जी । मणी भूप बहू मोल । अक्का खुशी हुइ घणी जी । लोभित हो करे तोल ॥ श्र० ॥ १४ ॥ खाती हा प्रावीयो जी । कि हाथी लावे यह माल । विश्वासी पूछे पूत्री को जी | कहे तूं देख्या जे हाल ॥ श्र० ॥ १५ ॥ सा कहे छोटा बटवा थकीं । कोटडी मांही जाय । वस्त्र भूषण भोजन दिये जी । क्षीण मांही ते लाय ॥ श्र० ॥ १६ ॥ पुनः कहै का पूळजे तूं | तास मोह उपजाय । यह करामात हाथे लगे तो । दरिद्र आपणो विरलाय ॥ श्र० ॥ १७ ॥ तनुजा कहे कांई अड्यो जी । पूछे विन ए बात | अनिष्ट लगे जावे तजी तो । मुझ से विरह न खमात ॥ श्रो० ॥ १८ ॥ नियम से अधिक देवे जी । द्रव्य आपण नित्य तेय ।