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________________ जवि० वदनी ज्यों सुरांगना जी। पेखत उपजावे हेज ॥ श्रो० ॥ ४॥ तिणही पुर माहें २८ ! रहे जी । कामलता वैश्या अनूप । रुपे लजाइ अपत्सरा जी। तेजे दीपें जैसे धूप ॥ श्रो० ॥ ५ ॥ चन्द्राननी कुरंग लोचनी जी । शुक घ्राण अरुणोष्ट । कम्बू ग्रीवा । IN/ उर उन्नत्ती जी। सुवर्ण वरण अंगोष्ट ॥ श्रो० ॥६॥ गजगमनी दंत दामनी जी। कामनी मोहन वेल । पांचसो दिनार देवे सोही जी। भोगवे ताको छेल ॥ श्रो० ॥७॥ जयकुमर पाया पुर विषे जी । ऊभा तस घर दार । नयन वयन लटका 2 करीजी । मोहित कीया कुमार ॥ श्रो०॥८॥ बांची पट मांही गया जी । द्रव्य | अपार तस देय । विलसे सुख पांच इन्द्रिका जी । सदा तहां सुखे रेय ॥ श्रोता | ॥ ६ ॥ मणी तणे प्रशाद से जी। नित्य प्रत बहू मोलमाल । वस्त्र भूषण भोजन | दिये जी । द्रव्य इच्छित तत्काल ॥ श्री०॥१०॥ माता कामलता तणी जी। | कपट कला की भन्डार । अक्का बृद्ध वये हुइ जी। जाग्यो लोभ अपार ॥ श्रो० | ॥ ११ ॥ एकदा सा चित चिन्तवे जी । मूर्ख पुत्री मुझ । लुब्धि एक ही नर संगे ।
SR No.600301
Book TitleSamyktotsav Jaysenam Vijaysen
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherRupchandji Chagniramji Sancheti
Publication Year
Total Pages190
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size15 MB
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