SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 125
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज०वि० ११६ पाय || अब परिक्षा सम्यक्त्व की । जिनेन्द्र सुरेन्द्र कथाय ॥ ५ ॥ ॥ ढाल ५ मी ॥ अंजनाजी के रास की देशी में || तोजी महा विदेह क्षेत्र के विषे । चोथो आरो सदा रह्यो वरतायतो || विजय पुष्कलावति शोभती । तहां विचरे सिमन्धर जिनराय तो ॥ सर्वज्ञी सर्व दर्शनी । सुरेन्द्र नरेन्द मुनिन्द्रे पूजाय तो ॥ देशना सुन को आवया । सुधर्मा स्वर्ग पति एकदाय तो ।। समकित की महिमा सुणो ॥ १ ॥ शक्रेन्द्र दाहिण दिगपति । भरत क्षेत्र पर अति अनुराग तो ॥ प्रश्न पूछे नमन करी । मुझ को फरमावो अहो वीतराग यतो । इस काले को भरत में | है धर्मात्मा ऐसो महा भाग्य तो । पाले सम्यक्त्व निर्मली । प्राणान्त न लगावे जरा दाग तो ॥ सम ॥ २ ॥ वागरे जिन विजय पुरपति | विजयराय शुद्ध सम्यक्त्व जाणतो | देव दानव चला न सके । न लगावे दोष जावे कदा प्राणतो ॥ कुदेव गुरु इच्छे नहीं । शंका कंखा कोइ न शके आए तो । यों सुणी हर्ष्या देविन्द्रजी । वन्दी स्वर्ग गया बैठ विमाण तो ॥ सम ॥ ३ ॥ सुधर्मी सभा
SR No.600301
Book TitleSamyktotsav Jaysenam Vijaysen
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherRupchandji Chagniramji Sancheti
Publication Year
Total Pages190
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy