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________________ १७० ज०वि०विसाराजी ॥ तुम ॥ १३ ॥ इत्यादि चिन्तवन करत अप्रमत स्थान पाई ॥ आगे क्षपक श्रेणि पडिवजी । कषाय लाय बुझाई ॥ क्षीण मोह को कियो विजय जी। Hशुक्ल ध्यान में रमाईयाजी ॥ तुम ॥ १४ ॥ घोर अन्धारी रात्री मांइ । अनन्त भानु IN के साइ ॥ केवलज्ञान और केवल दर्शन। विजय प्रात्मे प्रकटाइ । जो वस्तु महा - कष्ट से पावे । सो सहजे हाथ अाइजी ॥ तुम ॥ १५ ॥ पिता से पुत्र यों अधिक गिनीजे । सो संयम ले केवल पाय । इनने तो गृहस्थाश्रम मांही । ध्यान से केवल कमाया । यों पुण्य की उत्कृष्टता देखो । ध्यान बली K केसा भाया हो ॥ तुम ॥ १६ साधुलिंग सासणपति देवता तत्क्षीण लाइ दीना। गृही वेस परिहर विजयजी । ताहे धारन कीना । ढाल उन्नीसवी कही अमोलक dविजयजी चिन्तित लीनाजी ॥ तुम ॥ १७ 8 दोहा ॥ केवल महीमा करन को । सुरगण अति उमंगाय । गगने वाजे देव दुंदुभी । जय २ शब्द गर्जाय ॥ १॥ पुरजन कौतुक देखके । अति आश्चर्य मन लाय । कौन पाये केवल इहां । दर्शने ।
SR No.600301
Book TitleSamyktotsav Jaysenam Vijaysen
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherRupchandji Chagniramji Sancheti
Publication Year
Total Pages190
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size15 MB
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