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________________ म०वि० अर्षे शिव सुख पर्म । तप जप किरिया की न जरूरत घरे द्रढ एकात्मा हो ॥ १६६ ।। तुम ॥ अष्टादश दोषण रहित सो । अरिहंत देव कहाय। शुद्धाचारी निर्ममत्व धरी । निग्रन्थ गुरू गिनाय । सर्व जीवों को एकान्त सुखदाई । धर्म जिनाज्ञा मांय हो ।। |॥ सुणो ॥ ६॥ यह व्यवहारी धर्म तिहुं । तत्व को भव्य जीवो अाराधे त्रिशल्य त्रिकरण से त्यागे । जाम जैन मत लाधे । यथा शक्ति वास किरिया निपाइ। आत्मार्थ को साधे हो ॥ तुम ॥ १०॥ निजात्म निज गुण में तल्नी न हो । सो | ही निश्चय देव जानो । आत्मा ज्ञानानन्दे रमण करे । गुरु तेही पहछानो । पर परिणति तज निज परिति ये । रमे सोही धर्म मानो जी ॥ तुम ॥११॥ यह निश्चयिक तीनो तत्व श्रद्धि । यथा शक्ति में पाल्या। परन्तु ममत्व शरीर की न घटी तासे संयम न धार्या । धिक्कार होवो मेरे प्रमाद को । भव भमण नहीं टाल्या हो IN ॥ तुम ॥ १२ अनित्य पदार्थ तन अशुचि । कुटम्ब स्वार्थी सारा । शरणदाता | कोइ होवे नाहीं । दुःख निवारण हारा ॥ पुद्गलानन्दी होकर आत्मा अपना भान
SR No.600301
Book TitleSamyktotsav Jaysenam Vijaysen
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherRupchandji Chagniramji Sancheti
Publication Year
Total Pages190
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size15 MB
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