SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 59
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज०वि० ५० विद्या के प्रभाव । देखन होंस्य पूरी करी । मिटा मन उत्साव ॥ ४ ॥ स्थिर रहने इच्छा हुइ । सोही बने उपाय । इच्छित फले पुण्यात्म के । सुजो चित्त लगाय ॥ ५ ॥ ढाल १४ वी ॥ इण सरवरीयारी पाल ऊभी दो नागरी ॥ यह० ॥ ति अवसर के माय । भूमंड विभूक्षिती । हो सुजाण । भूमंड विभूक्षिती । स्वर्गपुरी अनुहार । नगरी छे भोगवति ॥ हो सुजाण ॥ नगरी छे भोगवति ॥ ऋद्धि से करी पूर्ण चूर्ण दारिद्रता ॥ हो सु० ॥ चूर्ण ॥ भवन वाग निवाण सोभे लोभे इन्द्रतां ॥ हो सु० ॥ सो ॥ १ ॥ सुभोग नामे राजिन्द्र । सकेन्द्र ने सारीखो ॥ हो सु० ॥ सक्रे ॥ न्याय नीति में निपुण । जाणे नर पारखो || होसु• ॥ जाऐ || भोगवति पटना । आकार सुरी समो || होसु० ॥ श्राका || शील रूप गुणखान । सज्जन नृप मन रमो ॥ होसु० ॥ सज्ज ॥ २ ॥ तास उदर उत्पन्न | रत्न सम बालका ॥ होसु० ॥ रत्न || भोगिनी तस नाम सूरूप सुख मालिका ॥ होसु० ॥ सुरू ॥ गुण कला विद्या भंडार | विनय शील जिममणी ॥ होसु० ॥ उपवये हुइ दिव्य रूप ।
SR No.600301
Book TitleSamyktotsav Jaysenam Vijaysen
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherRupchandji Chagniramji Sancheti
Publication Year
Total Pages190
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy