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________________ ज०वि० ४६ दिये । ये एक गुण इसमें कठोर ॥ भ० ॥ १६ ॥ दगाबाज तस्कर भणी यह । संतापे दिन रात । तूं निश्चय महाधूर्त है । कर आयो किसकी घात ॥ भ० ॥ १७॥ यहां फल इस पाप का में, तुझे बतावु याज । फिर आगे तूं नहीं करे | ऐसो महा कोइ अकाज ॥ भ० ॥ १८ ॥ इम साची सुण विसम्यो अति । भये थरथरी छूटी अंग । औषधी छोड भागी गयो । कुमर न कियो तस संग ॥ भ० ॥ १६ ॥ पापी पापोदय करीजी पीडा सहजे पाय । धर्म के धर्म प्रसाद से जी । सहजे जाय बलाय ॥ भ० ॥२०॥ मणी औषधी गइ पुनः मिलीजी । जयजी अति हर्षाय । पुण्य फल दर्शावणी । ढाल तेरे अमोलक गाय ॥ भ० ॥ २१ ॥ * ॥ दोहा ॥| प्रदेश के प्रयास को । दुःख नहीं वेदे लगार । सार हुवो फिरबा तणो । वस्तु पाया श्रेयकार ॥ १ ॥ जो कार्य पापिष्ट को | दुःख का कर्त्ता होय । सोही कार्य पुण्यवन्त के । सुख कारक लो जोय ॥ २ ॥ निकले थे अपमान से । लज्जित हो दुःखपाय । कारण से कार्य पक्यो । महा औषधी मिली श्राय ॥ ३ ॥ हर्षित हो आगे चले |
SR No.600301
Book TitleSamyktotsav Jaysenam Vijaysen
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherRupchandji Chagniramji Sancheti
Publication Year
Total Pages190
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size15 MB
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