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ज०वि० बोले । अहो हत भागी राय ॥ निज देव पर रोश करो तुम । मुझ पर किया । ८२ क्या प्राय ॥रा०॥२॥ खोटा कर्म तुमारडा। न लगी पद्मणी हाथ ॥ फोकट
रोश क्या काम आवे । भरो वायु की बाथ ॥ रा०॥ ३॥ यो दुर्गम वयण सुण । | सब । अति प्रज्वल्या अंग ॥ कुमरी को कर धर खेंची । चड्यो कुब्ज को रंगा॥
रा०॥ ४ ॥ श्रोषधी निज अनन में धर ॥ जेष्टिका दृढ कर सहाय कूटवा लगा
सबी राय को । ज्यों नेरीयों को जमराय ॥ रा०॥ ५॥ ते उलट खड्ग हणे - कुब्ज को । जरा न लागे घाव ॥ कुब्जे मार्या पड्या धरणी । आश्चर्य धरे सब | राव ॥ रा०॥६॥ मृगपति देख मृग भागे । त्यों भग्या नृपाल ॥ केइक लंगडा
लूला भइया । केइ ढिग पहोंता काल ॥ रा०॥७॥ खेदाश्चर्य धर कहे सुज्ञ तब । यह नर नहीं कोई देव ॥ महा जोधा वीरे हराया। एकडले इण हेव ॥रा० ॥८॥ सजन अतिचित्त चिन्ता धरता । थर २ अंग थरराय ॥ मान मरद्या । पाहूणा का । शरमाया शूर राय ॥रा०॥ ६॥ कन्या तात भया चिन्तातुर ।