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________________ म०वि०पुत्री देवू किस तांय कुब्ज ने देतां राय कोपे । निंद्या जग फैलाय ॥रा ॥ १०॥ राय को देतां कुब्ज कोपे । करे सब संहार ॥ दिग मुढ सम होकर बैठो। सुचने कोइ विचार ॥ रा०॥ ११ ॥ विघ्न में सन्तोष करने । नभथी उतयों विमाण ॥ तेहथी उतर एक खेचर नरमी । करजोड़ी वदेवाण ॥रा॥१२॥ अहो विजय नरेन्द्र जयवन्त । वर्तो सदाही आप ॥ राय भूषण मौली मणी सम । बढो तेज प्रताप | ॥रा० ॥ १३॥ कुब्ज चिन्ते दान इच्छक । बोले बिरूदावली कोय ॥ दान आपण कर लंबायो। फिर नरमी कहे सोय॥रा॥१४॥ गिरी वैताब्ये दक्षिण श्रेणि में। राय कN न्या महारूप ॥ प्रज्ञाप्ति विद्या प्राराधी। पूछे वर घर चूप ॥रा॥१५॥ सुरी स्वरूप रू महिमा आपकी । वरणी सुण हाराय ॥ तेडवा मुझ वहां पठायो । पधारो शीघ्र महाराय ॥ रा०॥ १६ ॥ यों विनंती बहु बिध करतो। तबही तास सखाय। | दूसरा खेचर आकर उतर्या । बोल्या विजय को बधाय ॥ रा०॥ १७॥ उत्तर श्रेणी विद्याधरनाथ की। कंन्य गुण रूपे अपार ॥ रोहणी सुरी ने पूछा वर निज।
SR No.600301
Book TitleSamyktotsav Jaysenam Vijaysen
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherRupchandji Chagniramji Sancheti
Publication Year
Total Pages190
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size15 MB
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