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ज०वि० आषे बखण्या अपार ॥ रा०॥ १८ ॥ बोलावा में सचीव प्रायो। शीघ्र चलो
रायनाथ ॥ कुब्जजी रहे मौनधारी। सब देख अति अचंभात ॥रा०॥ १६ ॥ | यह नहीं कुब्ज छे नरेन्द्र को ॥ विजय विधान प्रसिद्ध ॥ खेचर पत युग सेव चहावे ।। तो नर है को विध ॥ रा०॥ २०॥ कौन कहां का कुब्ज क्यों बने । संशयी
आनन्द विशाल ॥ ऋषि अमोल पुण्य प्रताप की ॥ कही त्रीवीस ढाल ॥ रा०॥ ॥ २१ ॥ * ॥ दोहा ॥ अवसर अोलखी विजयजी । कुज रूप कियो दूर ॥ । पूरेन्द्र सम मूल रूपे रह्या । दीपे झलहल नूर ॥ १॥ सर्व नरेन्द्र श्राइ नम्या ।
| अहो पुण्य कृपा निधान ॥ अजा जे गुनो हुवो माफ कर । बने रहो मैहरवान 1॥२॥ युग खेचर करे विनंती। शीघ्र चलो महाराय ॥ विजिया तात प्रणमी
हे । परण्या विना न जवाय ॥ ३॥ मानी विजयजी अर्ज ते । नभचर रखे सादर ॥ परण्या विजीया ठाठ से । दम्पति आदि प्रेम भर ॥ ४ ॥ परसंस्ये सब । बाइ बुद्ध । किया राजेन्द्र भरतार ॥ सुखे रहे विजयजी तहां। खेचर बात विसार ।