SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 17
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज०नि० अाइ हो एक जोगणी तिहां । जाणेते विद्या अनेक ॥ श्रीमति पेखी हो लखी # चित तत्क्षिणे । बोले सा धरती विवेक ॥ इर्ष ॥ १६ ॥ विद्या बल से हो जाणी 2 में आपके । चित में चिन्ता है पूर ॥ सो प्रकाशो हो महारे सन्मुखे । करुं क्षिण- | IN में दुःख दूर ॥ इर्ष ॥ १७ ॥ इन्द्रवश आणू हो दीपक रवी करुं । हरू क्षिणे शत्रु M का प्राण ॥ सत्य सबी मानो हो कहनी माहरी । करुं तुम कह्या प्रमाण ॥ इर्ष ॥ ॥ १८ ॥ निशंक होइ हो कहो मुझ मन तणी । तुम हम बीच भगवान ॥ तुम । - दुःख देखी हो मुझ मन दुःख धरे । दी है तिणी जबान ॥ इर्ष ॥ १६ ॥ गुणी जन तुमसा हो मिलीया हम भणी । तबही कही मन बात ॥ प्रभा न रखा हो हम जगमें कोइ की । इम राणी ने प्रचात ॥ इर्ष ॥ २० ।। इच्छित मिलीयो हो राणी ने प्रायने । ढाल दूसरी मांय ॥ ऋषि अमोल कहो पुण्य प्रतापसे । वि। घन सबी विरलाय ॥ इर्ष ॥ २१ ॥ दोहा ॥ श्रीमति हर्षी अति । सुणी जोगण ना वेण । क्षुधित भोजन लइ हुवे । त्यों फल्या राणी नेण ॥ १॥ करामातण
SR No.600301
Book TitleSamyktotsav Jaysenam Vijaysen
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherRupchandji Chagniramji Sancheti
Publication Year
Total Pages190
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy