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________________ ज०वि० १७ में भी यहां निश्चिन्त रहू । तेभी न पाया त्रास ॥ ५ ॥ दोनों कुमर की मात सुए । दुःख ते पाइ अपार । श्रीमति हर्षि घणी । करण पुत्र सिरदार ॥ ६ ॥ चिन्तित. 'न हुवे कोइ को । होवे जो हो हार । श्रोताजन आगल सुखा । जय विजय अधिकार ॥ ७ ॥ ॥ ढाल ५ मी ॥ बालुडा तूं संग न जाजेरे । पाछो घर बेमो जेरे || यह चाल ॥ पुण्य फल भव्य जन जोजो जी । पुण्य करवा उत्सुक होजो जी || टेर || जिम २ कुमर आागल बधे । तिम २ शकुन श्रेय थाय । चिन्ते इण वन ने विषे । महा लाभ मिले किस्यो आय ॥ पु० ॥ १ प्रागल विषम रम्य वन में | शीघ्र जावे देखत विनोद | मध्याने क्षुधित भया । लियो विश्राम धरी प्रमोद ॥ पुण्य || २ || मिष्ट निरोग फल भोगव्या । पीयो शीतल झरणा को नीर | बात बनावे प्रेम की । बैठा तरु तल दोनों वीर ॥ पुण्य ॥ ३ ॥ दुपट्टो वीछाइयो । भुज उसीस्थो तल देय । थाक प्रमाद निवारने । तहां भूमी पे सूता तेय ॥ पुण्य ॥ ४ ॥ जैसे वक्त यह पडे । सुज्ञा होवे उसी प्रमाण । खेद न
SR No.600301
Book TitleSamyktotsav Jaysenam Vijaysen
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherRupchandji Chagniramji Sancheti
Publication Year
Total Pages190
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size15 MB
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