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________________ म०वि० श्राकरी । तो पण मे थोडा ही जाणूं ॥ इससे भी कभी होय अनन्त गुणी । तो १६२ भी कुमति ने नहीं मानू ॥ देखो ॥ १३ ॥छे मास तो काल बीतसी । म्हारे मने N न घणी बातो। छसो पूर्व लग दुःख भोगवू । तो ही ने टूटे धर्म को नातो॥ देखो ॥ १४ ॥ ज्यो ज्यों यह दुःख बृद्धि पावे । त्यों ज्यादा सुखकारक जाणू॥ | धर्मार्थ कारण महा निर्जरा । किंचित खेदन आणूं ॥ देखो ॥ १५ ॥ ज्यों । अधिक समभाव से सहूंगा । त्यो ही सुख अधिको पास्यूं । योही जो सर्व कर्म ।। क्षयथावे । तो निरामय मुक्ति में जास्यूं ॥ देखो ॥ १६ ॥ इनसे अनन्त गुण ॥ | अनन्त बार । दुःख भुक्ते में नरक मांही ॥ नर्क सें दुःख अनन्त गुण अधिका। निगोद में पचीयो रहाही ॥ देखो ॥ १७ ॥ सम्यक्व भङ्गे । नरक निगोद के भव अनन्त करना पडसी ॥ सम्यक्त्व निर्मले किंचित दुःख सही । महा दुःख मेटी शिवपद वरसी ॥ देखो ॥ १८ ॥ परवश्य अनन्त दुःख सहे जहां निर्जरा हुइ । कभी लवलेशो।अपूर्व लाभ को अवसर यह मुझारोष कोई ने जरा मत देशो। देखो
SR No.600301
Book TitleSamyktotsav Jaysenam Vijaysen
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherRupchandji Chagniramji Sancheti
Publication Year
Total Pages190
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size15 MB
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