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________________ ज०वि० ॥ १६ ॥ उपकारी हुवा नाग देव मुझ । अशुभ कर्मो को खपाबा ॥ महारा ब. १६३ । ध्यां में ही भोगवू । सुखसे यह सुखीयों थावा ॥ देखो २० ॥ यो संवेगा वीर रस पुरीत । वचन सुणी सहू विस्माया ॥ बहवा बोलो विजय सम्यक्त्वी की। अमोल । ढाल सतरे मांया ॥ देखो ॥ २१॥ॐ॥दोहा॥ यों द्रढ निश्चयात्म बनी। पद्मासन लगाय ॥ मेरु ज्यो स्थिर रहे ध्यान धर । सद्बोध करत उचार ॥१॥ लोक दीग मुढ होरह्या । बोली न सके लगार । देखी प्रत्यक्ष यह चरी । असुर अचंभ्यो अपार ॥ २ ॥ देखे अवधि ज्ञान से । तीव्र वेदन नृप तन । पण मनसा निर्मल अति । समय २ वृधन ॥ ३॥ कीना उपाव डीगावने । उलट हुवे द्रढ भाव ॥ सखेदाश्चर्य मुरझा गयाँ । हार्यो जुगारी दांव॥ ४॥ पस्तावे अति मनमे । इन्द्र वयण अपमान ॥ निरर्थक सताया महा सत्वी ने । अहो २ विजय गुणखान N॥ ५॥ ॥ ढाल १८ वी ॥ गोपीचन्द लड़का ॥ यह ॥ धन्य २ सब बोलो ।। द्रढ धर्मी विजयराय को ॥ टेर ॥ ताही समय सब विप्ति विरलाइ । देव गगन में
SR No.600301
Book TitleSamyktotsav Jaysenam Vijaysen
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherRupchandji Chagniramji Sancheti
Publication Year
Total Pages190
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size15 MB
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