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________________ ज०वि० १३२ त्यागो यह कुकर्म झट तो ॥ सुणो ॥ ४ ॥ कहो सुरेन्द्र को आवास | कहां विटा खाना को वास । यों संगम ने ए कर्म विमास । क्यों करो उत्तम करणी को नास । ॥ सुणो ॥ ५ ॥ तुम दिखते हो ज्ञानी गुणी भणीयां ॥ कैसे ज्ञानी हो गुण ने rai | कैसे प्रश्न वे कांचे कणीयां । थांके हाथ लगी संयम मणीयां ॥ सु० ॥ ६ ॥ गज तज कोण खरपर बैठे । गादी तज ऊकरडे लेटे । सिंहास तज वैठे हे । त्यो तुम सत्य कर्म से रहो बेटे || सुणो ॥ ७ ॥ अमृत ढोली विष क्यों पीवो | क्यों मुखमल तज कम्बल सींवो । इन कर्मे भोगवसो घणी रीवो । जो असंयम जी तव जीवो ॥ सुणो ॥ ८ ॥ अनन्त संसार भ्रमण करो । नरक निगोद में पचमरसो । फिर सम्यक्त्व दीपक नहीं करसो । जो ऐसा कर्म से नहीं डरसो ॥ सुणो ॥ ६ ॥ अनि मुशकिल नरकुल पावो । यति दुक्कर जैन कुले आवो । तो श्रावक पो के चावो । अति २ दुर्लभ साधु थावो ॥ सुणो ॥ १० ॥ ज्यों कंगाल ने चिन्तामणी पाइ । तिए कंकर जणी गमाइ । तैसे तुम तणी यह
SR No.600301
Book TitleSamyktotsav Jaysenam Vijaysen
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherRupchandji Chagniramji Sancheti
Publication Year
Total Pages190
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size15 MB
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