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म०वि० चतुराइ । होवो सुगणा संभालो आयो भाइ ॥ सुणो ॥ ११ ॥ धिक्कार तुमारी बुद्धि १३३ ।। ताइ । धिक्कार दांभिक भेष सजाइ । कुकृत्य करता लाजो नाहीं ॥ धिक २ तुझ ।
| जनक जनीता जाइ ॥ सुणो ॥ १२ ॥ जात पांत तुम सरमाया। वली मात तात ,
ने लजाया। पर भव दुःख से नहीं डरपाया ॥ सुणो ॥ १३ ॥ निकलङ्क धर्म जि| नेश्वर को। सो दीपावो मार्ग मुनिवर को। लजावे तस जन्म जैसो खर को।
डूबो दोनों भव दुष्टाचर को ॥ सुणो ॥ १४ ॥ अवतो जर चित्त शंकायो । यह | यह व्यभिचार को छिटकानो। देव गुरु की शरम लावो। तो पण दोनों भव । सुख पात्रो ॥ सुणो ॥ १५ ॥ महारे थारे गुरु शिष्य की सगाइ । ता लिये हित । शिक्षा सुणाइ । कटु औषधी ज्यों सुखदाइ । जो मानो तो सार निकले कांइ ।
सु०॥ १६ ॥ प्राते गुरुजी कने हूं अास्यूं । सह कर्म तुम्हारा दरसास्यूं। IY आखीर भूप यू प्रकास्युं । कहे अमोल प्रादरीया सुख पास्युं ॥ सुणो । | ॥ १७ ॥ॐ ॥ दोहा ॥ वैश्या रंगी मुनि कहे। राय म बोल कुबोल ॥ किन २ ||