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ज०वि०
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निरागी पद सिर धरूं || गारु० ॥ १७ ॥ गारु० ॥ जे जाणे रत्न त्रयतत्व । तेतो काँच न कदा ग्रहे ॥ गा० ॥ गा० ॥ दाख्यो मुज मन भेद | जदा कचपच पर रहे ॥ गा० ॥ १८ ॥ सुणो रायाहो || गारुडी कहे विस्मय होय । हो यह हट नहीं काम को ॥ सुणो ॥ सुणो ॥ अवसर ओलखो आप | नाश न करो सुखधाम को ॥ सुणो रा० ॥ १८ ॥ सुणो रा० ॥ मत करो काय से नमन । मन से करोतो ते जाणसे ॥ सुणो ॥ सुणो ॥ हूं समजावंगा तास । दुःख खोसी दया यासे ॥ सुणो रा० ॥ १६ ॥ सुणो रा० ॥ मैं भी जाणू जैन धर्म | संगति करी साधु ती ॥ सुणो ॥ सुणो ॥ छे छंडी यागार । सदित सम्यक्त्व गुरु भी || सु० ॥ २० ॥ सु० ॥ अल्प दोष महा लाभ । प्रत्यक्ष तो विचारीये ॥ सुणो ॥ रहे वंश जगे सु नाम | छे मनुष्य ऊगारीये ॥ सुणो ॥ २१ ॥ सुणो ॥ संसारी दोष पूरीत । तो इरो लेखो कीस्यो || सुणो ॥ अति ताण्या टूट जाय । क्या कहूं ज्यादा शाणा दीस्यो || २२ ॥ स्याद्वाद जिनमत | एकान्ति मिथ्यामति ॥ सुखो || सुणो भाइ