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जवि
अयोगी हो पाया मुक्तिपद। अजरामर हुवा अवीकारी ॥ स० ॥ १८ ॥ सीजो। संथारो जाणी सज्जन जन । जगत् व्यवहार योग्य साचव्यारी ॥ धर्मोदय कियो बहुतोइ । कीर्ती जस जगमें विस्तारी॥ स ॥ १६ ॥ अनित्य प्रायु जाणीयों भव्यजन । अात्म कार्य लेवे सुधारी॥ सफल अवतार तास जगमांइ । जैसे भोग्यवती राजारी।स०॥२०॥ ढाल उन्नीसवी धर्म पुण्य फल । दाखण ऋषि अमोल ऊचारी॥ धर्म पसाय तिरीया भूधव । जयजी पुण्य को रह्या दीपारी ॥स० ॥२१॥ ॥ ॥ दोहा ॥ महामंत्र प्रसाद से । जयजी पाये राज ॥ होणहार होवे जिसा।। प्राय मिले सब साज ॥ १॥ एकदा संभारी युगद्रिया । जयपुर नृपती धीय ॥ कामलता गणिका विषे । लाग्यो अन्तस जीय ॥ २॥ राज संभलाई सचीव को। कियो दल वल तैयार ॥ जयपुर आये सुखे चली। उतरे गाम के बार ॥३॥ | सामन्त संग पठावीया । सुसरा को समाचार ॥ सुणी नृपादि हर्षिया । जयजी । पुण्य प्रसार ॥ ४ ॥ सतपुत्रादि परिवारते । मिलाया जाइ जमात ॥ सुसजन