________________
ज०वि०
२५
॥७॥ सो इहां छे वाग के मांही। लावो सत्कारी बोलाइरेलो। तस देवो तुम | | तख्त वैठाइ । होसी सहुने सुखदाइरे लो ॥ पु०॥ ८ ॥ यों सुनकर सब आश्चर्य । पाये । अहो निर्लोभ विनीत सवायारे लो । प्रधानादि वाग में आया। पण जय ।।
| जी तस नहीं पायारे लो॥ पु० ॥६॥ तव सचीवादि कर जोड बोले । आपही * रत्न अमोलेरे लो । दैव हमने न्हाख्या अाप खोले । पालो पोषो राज भालेरे लो।
| ॥ पु० ॥ १० ॥ श्राप पुण्य श्राप संपत पाया । सो तो बीजा थी नहीं विलसायारे IN लो । बडा भ्रात कोइ स्थान न पाया । अन्य स्थान सीधायारे लो ॥ पु०॥११॥
तब बिजयजी चमक्या चित्त मांइ । दिन सप्तम जाण्याइरे लो। इणही काज भाइ दियो मुझ पठाइ । श्राप तो दूरा गयाइरे लो ॥ पु०॥ १२ ॥ होणहार सो. निश्चय थावे । अब भाइ किण विध पावेरे लो । ते तो गगन भमें मणी प्रभावे । | सुझ दृष्टिए कैसे आवेरे लो पु० ॥ १३ ॥ यो फिकर करता राज में आया । सब जन मिल गादी वैठायारे लो । पहिला नृप की दहन क्रिया करी ! जग व्यवहार