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जवि तब नगर में चाल्या रायारे । मन माहे अति मुरझायारे ॥राजे० ॥ १३ ॥ तब १३६ । श्रावक कहे फरमावोरे । मे कह्यो सो देख्यो उपावोरे । मुझ बचने परतीत जरा
लावो ॥रा०॥ १४ ॥ राय कहे प्राचार्य जो मोटारे । सो तो कधी न करे कर्म । । खोटारे । ये तो मिल्या कुमति घाल्या गोटा ॥ रा०॥ १५ ॥ यों बोलता मेहल ।
पास अायारे । तिहां प्राचार्य निकलता देखायारे । पैठाण्या प्रकाश के मांया ॥ राजे० ॥ १६ ॥ सो तो अन्तेवर में से पावरे । एक राणी ने साथ लेजावेरे । देखी राय अति शरमावे ॥ रा०॥ १७ ॥ पण मौन नृपति तब राखेरे । कौन |
विष्टा में फत्थर न्हाखेरे ॥ विप्त पामी कृत कर्म पाखे ॥ राजे० ॥१८॥ अब किन I को जाय पूकारूंरे । बलावू हुवा लूटारूरे । सब खोटा मिल्या कैसे वारू ॥राजे
| ॥ १६ ॥ यह तो ठग की टोती देखाइरे । नहीं जैन मुनि निश्चय थाइरे ॥ करूं । Nउपावजों कुमत बिरलाइ ॥ रा० ॥ २० ॥ ढाल दशमी अमोलक गावेरे । देवराजा
को चित्त चलावेरे । धन्य विजय वक्ते द्रढ रहावे ॥ राजे०॥ २१ ॥ * ॥ दोहा॥