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________________ ज०वि ४४ जग जनरे भाइ ॥ धि ० ५ ।। रे भाइ शीघ्र आया कुमरी कने । लीनी खोला में बैठायरे भाइ ॥ कर से आश्रू पूंछने । बुचकारी कहे इमवाय रे बाइ ॥ धि ॥ ६ ॥ रे बाइ फीकर किंचित करे मति । तुंळे मुझ जीवन प्राणरे वाह || पर्यत्न करी तुझ पति भणी । देस्यूं थोडा दिने ठाम आनरे बाइ ॥ धि ॥ ७ ॥ प्रय रे भाइ सचीवने कहे भूपति । शीघ्र जावो वैश्या श्रावसरे भाइ ॥ तेडो धिक्कारी जमातने । लागे हम कुल ने कालासरे भाइ ॥ धि ॥ ८ ॥ रे भाइ पायक लेइ प्रधाजनी | गया कामताने घेर रे भाइ || बाहिर रही मोटा साद से । कहे जयजीने यों टेर रे भाइ ॥ धि ॥ ६ ॥ अहो भाइ झट निकलो घर बारणे । छोडी नीच नारी नो संग रे भाइ ॥ लज्जा घरो जरा कुल तणी । यों कैसे भइ मति भंगरे भाइ ॥ धि ॥ १० ॥ रे भाइ सुण के कुमर प्रति लाजीया । पड्या फिकर समुद्र के मांरे भाइ ॥ धिक धिक मुझ व्यश्री भणी । राय चाकर साथ बोलायरे भाइ ॥ धि ॥ ११ ॥ रे भाइ इण जाणे से मरणो भलो | कैसे जाके देखावुं मुख रे
SR No.600301
Book TitleSamyktotsav Jaysenam Vijaysen
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherRupchandji Chagniramji Sancheti
Publication Year
Total Pages190
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size15 MB
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