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ज०वि०
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काय ॥ कूरुपो बणुं जो मुजवरे जी । तो सत्य स्वप्न जगाय ॥ सु ॥ ४ ॥ मणी प्रभावे तब कर्यो जी भाइ | विद्रूप कुब्ज स्वरूप ॥ कूब मोटी उर पृष्टपे जी । ठेंगणों तन मस्सी ऊप ॥ सु ॥ ५ ॥ एक पगे लंगडा बण्या जी भाइ । पेट गयो पाताल || कर पग दुर्बल बाँकडा जी । चाले डगमग चाल ॥ सु ॥ ६ ॥ चीवडी आँखों बैठी नाशीका जी कांइ । श्लेषम तामे सडडाय ॥ दंत तीन मुख बाहीरे जी । लांबा होट हलाय ॥ सु ॥ ७ ॥ मस्तक मूंछ ने दाढीना जी कां । कबरा विखर्या बाल ॥ फटे मलीन वस्त्र तन सजी जी । पडे मुख मांहे से लाल ॥ सु० ॥ ८ ॥ जेष्टीका सहाही कर विषे जी कांइ । डगमग चल्या जाय || शीशु पाछे देखवा जी । हंसे आप तास हंसाय ॥ सु० ॥ ६ ॥ सवरा मंडप में पेसीया जी। हंसीया सब जन जोय ॥ सब से ऊंच आसन कियो जी। कम्बले ढांक्यो सोय ॥ सु० ॥ १० ॥ ता ऊपर विराजीया जी कांइ । मूळे देता ताव ॥ अवलो कता सब भूप को जी । जगाता पर भाव ॥ सु० ॥ ११ ॥ हंसता लोक कहे