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________________ ८० ज०वि० तेहनेजी कांइ । अहो २ रूप प्रधान । परणन् अावा पद्मणीजी । वणकर बीदराPजन ॥ सु० ॥ १२ ॥ ते हट कर कहे परणस्यूं जी काइ। निश्चय हूं विजीया तांय ॥ हंस सो सो रोसो घणाजी । देखो अबी क्षीण मांय ॥ सु ॥ १३ ॥ राते कुलदेवी । स्वप्न में जी कांइ । चेतायो विजीया तांय ॥ बरजे कूरूप कूबडा भणी जी। जो पूर्ण सुख चहाय ॥ सु ॥ १४ ॥ कुमरी रख्यो ध्यान में जी। न्हाइसजी सिणगार ॥ दासीयों वृन्दे परिवरीजी । नेपुरने झणकार ॥ सु ॥ १५ ॥ हरती मन नयन सहूतणाजी कांइ । पेठी मंडप मांय ॥ वेत्रधारणी दरसावतीजी । रूप नृप आदी सोसाय ॥ सु ॥ १६ ॥ नम ऋद्धि कीर्ती नृपों कीजी कांइ । सुणाती आगे जाय ॥ कुमरी बरे नहीं कोयनेजी । कूबडो रही चित्त ध्याय ॥ सु ॥१७॥ अावे जिस नप सन्मुखे जी कांइ । हर्षे दीये तस नूर ॥ तजीने अांगल संचरेजी। तब शोकी होवे ऊतरे ज्यों पूर॥सु०॥१८॥तेतले वीजय कुब्ज प्रावीया जी कांइ। वेत्र धारणी चिन्ते मन॥जो इणने नहीं वरणवू जी।तो युक्ति भंग लगे दोषन ॥सु०॥१६॥
SR No.600301
Book TitleSamyktotsav Jaysenam Vijaysen
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherRupchandji Chagniramji Sancheti
Publication Year
Total Pages190
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size15 MB
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