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ज०वि०
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भिन्न २ भेद सुण कर | नृपादि हर्ष हीय गये भर || जरा ॥ ७ ॥ केइ सम्यक्त्व व्रत आदरीया । केइ खन्ध नियम त्याग करीया । यों हुवा उपकार बहु परीया । सब विधी बंदी मुनि तां । परिषद निज स्थान सिधाइ ॥ जरा ॥ ८ ॥ विजय राय मुनी पग वन्दे । कर जोरी वंद आनन्दे । आज संचित पाप निकन्दे । आप सम सन्त दर्श पाया । अपूर्व बोधज सुणाया ॥ जरा ॥ ६ ॥ पण श्रवक वन्दे नाहीं । राजा तस धीठा जाण्याइ । मुनि पास कछु न बोल्याइ || दोनों मिल चले पुर माहीं । नृप मुनिवर को सरसाइ ॥ जरा ॥ १० ॥ तब दांभिक सुर कहे राया । तुम दृष्टि रागे मोहाया ॥ यह साधु बोलण में डाया । कुपक्ष हृदय से facers | विचारो देशना फरमाइ ॥ जरा ॥ ११ ॥ महारी थांरी खुशामदी की नी । क्रिया उत्कृष्ट कह दीनी । सुणी परिषद सभही भीनी । पण पाले तो बली हारी । वचन वीर्य मात्र नहीं तारी ॥ जरा ॥ १२ ॥ यह साधु है बहू बोला | माहे नगारा सरीखा पोला । माने तुम सरीखा भोला । पण में मानुन जरा राइ |