SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 181
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज०वि० १७२ • तो । हो जावै खेवा पार जी ॥ चेतो ॥ ८ ॥ क्षमा मुक्ति अज्जु ने मार्दव । लाघव सत्य संयम भार जी ॥ ० ॥ ६ ॥ तप ज्ञान ब्रह्मचर्य धारे तो । निश्चय खेवा पार जी ॥ ० ॥ १० ॥ ज्ञान दर्शन चरन त्रय रत्न यह । करे आत्म निस्तार जी ॥ चे० ॥ ११ ॥ आत्मिक गुण तज प्रणति रमणता । सोही रुलावनहार जी ॥ ० ॥ १२ ॥ ममत्व बन्धे जो बन्धे जकडी | वो कैसे छुटकार जी ॥ चे० ॥ १३ || जो छेदे रोहीत मच्छ पर । तस खुल्ला शिव द्वार जी ॥ चेतो० ॥ १४ ॥ यह तन प्रत्यक्ष अशुचि का कूंडा । धर्म करे तो होवे उद्धार जी ॥ चेतो ॥ १५ ॥ असार से सार निकले सो निकालो। जो तुम हो होंशार जी ॥ ० ॥ १६ येही तन है मोक्ष को कारण । कार्य हेतु सो लेवो धार जी ॥ पूर्व और महा लाभ दाता । येह अवसर श्रेयकार जी ॥ चेतो ॥ लाभ लभ्य हुवो लूंटो । मरणो अभी ही विचार जी ॥ चेतो ॥ पुनः वे न किमपि, खोया सोच अपार जी ॥ चेतो ॥ २० ॥ ० ॥ १७ ॥ श्र १८ ॥ अलभ्य १६ ॥ गइ वक्त यों सत्य जाणी
SR No.600301
Book TitleSamyktotsav Jaysenam Vijaysen
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherRupchandji Chagniramji Sancheti
Publication Year
Total Pages190
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy