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________________ ज०वि० ६६ | मूलगे रूपे थाय ॥ वस्त्र भूषण दीपता । साक्षात इन्द्रमाय ॥३॥ मगन से उत्तर के भावीया । विजय सभा के मझार । अचंभे सहूजन अति । देख के यह चमत्कार ॥४॥ विजय पैलानी भ्रात को। आनन्द अंग न माय ॥ उमंगी या पड्या चरण में। श्रांश्रुये ते धोवाय ॥ ५॥ 8 ॥ ढाल ॥ १६ वी ॥ पोष दशमी दिन आनन्दकारी यह॥ सज्जन सुपात्र मिल सुख होवे भारी॥ते जाने ज्ञानी के तस अात्मारी॥टेर। उढ कोटी रोम गया विक्सारी । नेत्रसे वर्षे हर्ष का वारी । धन्य दिन घडी अाज हमारी। कुशले भेट्य जेष्ट भ्रातारी॥ सज्जन ॥१॥ दोनों उत्तमास ने बैठा बरोबर । अनिमेष रहे आपस में निहारी । जय कुमर निज वीती हकीकत । यथा उचित भाइ आगे उचारी ॥ स०॥ २॥ विजय नरमी कहे राज संभालो । में तो सेवा में रहूंगा तुमारी ॥ जो जोग सो तस स्थान ही सोहे । ढील विचार न कीजे ल. गारी ॥ स०॥ ३ ॥ जय कहे तुझ उपार्जित मुझ । योग्य नहीं लेवो नीति वि1) चारी । भूल्यो मन्त्र पुनः याद करावो । येह भक्ति सादो हिवे थारी ॥ स०॥४॥
SR No.600301
Book TitleSamyktotsav Jaysenam Vijaysen
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherRupchandji Chagniramji Sancheti
Publication Year
Total Pages190
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size15 MB
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