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ज०वि० ११४
॥ स० ॥ सुण शेठाणी गुमराह भराणी । बोले जेहसे ताणीजी ॥ तूं नीच जात नारी । हम संग नहीं करां थारी । बोलत यावे लज्जारी || स० ॥ १२ ॥ नित्य लेजावे तूं शुचि बुहारी | क्या करे बरोबरी म्हारीरी । इम बहू धिकारी । मन मत्सर भरारी । नीच गोत्र बन्ध्यारी ॥ स० ॥ १३ ॥ पाली समकित निर्मल सबही । श्रायु अन्त लयो जबहीजी ॥ प्रथम स्वर्ग मझारी । देव देवी ऊपनारी । ऋद्धि पुण्यानुसारी ॥ स० ॥ १४ ॥ श्रायुपल्योपम पूर्ण कराइ | यहां बाइ सहू मिल्याइजी ॥ भानु जय नृप थइया । भमर विजय लघु भैया । पूर्व प्रेमे लुब्धैया ॥ स० ॥ १५ ॥ तीनों तत्व तुम शुद्ध प्राराध्या । ता पुण्य त्रिखण्ड साध्याजी । तीनों रत्न पायाइ || मणी औषधी मंत्र तांइ । ए कुछ धर्म पल्याई ॥ स० ॥ १६ ॥ भानु जिन वचने शंक लाया । जयजी तीन वक्त दुःख पाया जी । भमर की शुद्ध श्रधा । तो नहीं पाइ बाधा । संच्या सम सुख लाधा ॥ स० ॥ १७ ॥ कुल मद कीनों स्वरूपां बाइ । तेहसे वेश्या घर जाइ जी । कामलता कहाई ॥ पूर्व प्रेम