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________________ ज०वि० हह हो ॥ कहे हम किमधिक करां रेही । आाप जावो त्यागी हो ॥ ला० ॥ १० ॥ तब नृपति कहे रणधीर ने । राज संभला भाइ हो ।| जय विजय तो पाया राज अन्य | ये तुझ तांइ हो ॥ ला• ॥ ११ ॥ जयधीर कहे जयवीर पिता सम । हू तो राज न स्यू हो || विजय बरोबर भ्रात भक्ति में । सदाही रहस्यूं हो || ला० ॥ १२ ॥ सब की सला से विजय कुमर ने । जबरी से गादी बैठाया हो ॥ तातमात का दीक्षा त्सव | जयजी मन्डाया हो || ला० || १३ || सब परिवारे बाग में माया | संसारी वेष तजाया हो ॥ धारी मुनि वेष लीनी दीक्षा | जग दुःख छिटकाया हो ॥ ला• ॥ १४ ॥ सब परिवार चित्त आरत धरतो । फिर कर निज गृह चाया हो | संभारे गुण रहता सुख में । जगरूढ सहाया हो ॥ ला० ॥ १५ ॥ तीनो सती रही सतीयों मांइ । मुनि श्राचार्य ढिग रहा इहो । प्रथम ज्ञान सीखे अति चूंपे । जे सिद्ध दाताइ हो || ला० ॥ १६ ॥ नन्तर दुक्कर करणी करता । वाह्य अभ्यन्तर शुद्धे हो ॥ दृष्टि लगाइ निर्वाण पन्थे । जो दाखी बुद्धे हो ॥ ला० ॥
SR No.600301
Book TitleSamyktotsav Jaysenam Vijaysen
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherRupchandji Chagniramji Sancheti
Publication Year
Total Pages190
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size15 MB
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