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________________ ज०वि० १४५ ร मांय ॥ राजे ॥ ३ ॥ जाणे न पराकम माहेरी । हूं तूठो सुरतरूने समान ॥ रूठो कली काल सारखो । हरूं चीक में अभिमान ॥ राजे ॥ ४ ॥ प्रत्यक्षं परचो महेरो । तूं देख रह्यो है नेण ॥ तोही पण माने नहीं । नहीं सुणे सज्जन हित वेण ॥ राजे ॥ ५ ॥ जो हित वांछे तहारो तो । छोड जैन क्रिया रुढ || नहीं तो दुःखीयो पूरो होसी । मान वचन मति बन सुट्ठ ॥ राजे ॥ ६ ॥ चेतावूं तुझ करुणा करी । शीघ्र प्राते करी स्नान ॥ यथा विधी सहू साथ ले । जाइ पूजजे महारो स्थान ॥ राजे ॥ ७ ॥ तो सर्व सुख तुझ अपूंगा । नहीं तो करूंगा सर्व संहार ॥ निश्चय बचन यर महेरा । लीजे पक्का हृदय में धार ॥ राजे ॥ ८ ॥ यों कहकर श्रीपति गयो । महीपति तव जागृत थाय ॥ स्वप्न चिन्तवता निश्चय कियो । मिथ्यात्वी सुर मुझने डिगाय ॥ राजे ॥ ६ ॥ जे इच्छे पूजा आपणी । अन्य पास करी बलत्कार ॥ ते रुठो किस्यो करी सके । तूठो करे किस्यो उपकार ॥ राजे ॥ १० ॥ नाश करे ऋद्धि तणो । ते तो प्रभुजी कही नाशवन्त ॥ नाशन करी सके
SR No.600301
Book TitleSamyktotsav Jaysenam Vijaysen
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherRupchandji Chagniramji Sancheti
Publication Year
Total Pages190
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size15 MB
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