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ज०वि० । इ होराज ॥ अहो ॥ १०॥ अपूर्व आश्चर्य जन देखन को । प्रागे २ धाइ । क्रोडों
। गम जम्यो वन्ही कुंडपे । कौतक कौन न चहाइ होराज ॥ अहो ॥ ११ ॥ ज्वाला
गगन तले अवलम्बि । ढिग ऊभो न रहाइ । केइ अचंभे केइ खेदाश्चर्य । देखे दृष्टी लगाइ होराज ॥ अहो ॥ १२ ॥ स्मरी मंत्र सर्व देखता । जाइ पड्यो कुंड मांइ । हाहाकार मच्यो अति तब तहां । किम जीवत यह भाइ होराज ॥ अहो ॥ १३ ॥ | क्षिणन्तर में देव जैसा बन । बाहिर भाऊ भाई । सानन्दाश्चर्य सहू पाइ। इसे ।
अग्नि से सगाइ होराज ॥ अहो ॥ १४ ॥ औषधी महिमाए । विश्वानल की। ता| पन किंचित्त लगाइ । सजा भूषण मूल रूपे तव । अधिक रह्या सो भाई होराज
॥ अहो ॥ १५ ॥ नृपादि तस अति सत्कारी । घूछकर हटी लाइ । बावनजी व नीया किण करण । साची देवो फरमाइ होराज ॥ अहो ॥ १६ ॥ मूल मंडाण से । योगी हकीगत यथा तथ्य दीनी सुनाइ । मंत्र औषधी मणी प्रभावे । चिन्तित | काज सिधाइ होराज ॥ अहो ॥ १७ ॥ सुणी वाणी अति विस्मय मानी । जय २