Book Title: Prakrit Jain Katha Sahitya
Author(s): Jagdishchandra Jain
Publisher: L D Indology Ahmedabad
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Lalbhai Dalpatbhai Series No 30 PRAKRITA JAINA KATHA SAHITYA Ву Dr. J. C. Jain HRCIC दलपत SHIB ઉમટ્ટાણા) LALBHAI DALPATBHAI BHARATIYA SANSKRITI VIDYAMANDIR AHMEDABAD-9. Jain Educati nal Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लालभाई दलपतभाई ग्रन्थमाला - ३० प्राकृत जैन कथा साहित्य डा० जगदीशचन्द्र जैन भारतीय दलपत भाई काल: अह संस्कृति साधा अहमदाबाद ग्रन्थमाला संपादक दलसुख मालवणिया लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्या मंदिर अहमदाबाद - ९ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक दलसुख मालवणिया अध्यक्ष, लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्या मंदिर अहमदाबाद - ९ प्रथम आवृत्ति १००० फरवरी १९७१ मुद्रक वैद्यराज स्वामी श्रीत्रिभुवनदासजी शास्त्री श्रीरामानन्द प्रिन्टिंग प्रेस कांकरिया रोड, अहमदाबाद - २२ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन श्री लालभाई दलपतभाई व्याख्यानमाला का शुभारम्भ सर्वधर्मसमन्वय के विषय में ता. ३१-३-६६ के दिन व्याख्यान देकर पूज्य श्री काका कालेलकर ने किया था । तदनन्तर व्याख्यान माला में 'प्राकृत जैन कथा साहित्य' इस विषय को लेकर डा. जगदीशचन्द्र जैन के जो तीन व्याख्यान ता. ७-९-७० से ता. ९-९-७० को हुए वे यहाँ मुद्रित किये गये हैं। डा. जगदीशचन्द्र जैन को यनिवर्सिटी ग्रान्ट कमीशन की ओर से इसी विषय में संशोधन करने के लिए निवृत्त प्राध्यापकों को दिया जानेवाला पुरस्कार मिला था और वे इसी विषय में रत थे। अतएव मैंने यही विषय को लेकर उनको व्याख्यान देने का आमन्त्रण दिया । वे इन्डोलोजी के प्राध्यापक होकर कील युनिवर्सिटी (जर्मनी) में जाने की तैयारी कर रहे थे । फिर भी उन्होंने मेरे आमन्त्रण को सहर्ष स्वीकार करके ये व्याख्यान लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर में दिये एतदर्थ मैं उनका अत्यन्त आभारी हूँ । प्राकृत जैन कथा साहित्य के विषय में डा. विन्टरनिट्स, डा. हर्टल आदि ने जो अभिप्राय दिया है वह यथार्थ है इसकी प्रतीति प्रस्तुत पुस्तक से हो जायगी । इसमें भी समग्रभाव से कथा साहित्य का परिचय संभव नहीं था, यहाँ तो उसमें से कुछ नमूने दिये हैं-ये यदि विद्वानों का इस विषय में विशेष आकर्षण कर सकेंगे तो व्याख्याताका और हमारा यह प्रयत्न हम सफल समझेंगे । व्याख्याताने विशेषरूपसे यहाँ वसुदेवहिण्डी और बृहत्कथासंग्रह इन दोनों की कथाओं का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है । विद्वानों की यह तो सम्भावना थी कि वसुदेवहिण्डी की कई कथाओं का मूल बृहत्कथासंग्रह में होना चाहिए । उस संभावना की पुष्टि विशेष रूपसे यहाँ की गई है । विद्वानों का ध्यान मैं इस ओर आकर्षित करना चाहता हूँ। ला. द. विद्यामंदिर निवेदक अहमदाबाद-९ दलसुख मालवणिया अध्यक्ष Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयसूची १. प्राकृत की लौकिक कथाएँ (१) कथाओं का महत्त्व ... ... मनोरंजन-शकुन-शकुनी संवाद-पंख तोड़ने पर कहानी सुनाने वाला शुक-कुतूहल एवं जिज्ञासा । (२) जैन कथाकारों का उद्देश्य ... ... ... ७-१२ जनपदविहार-जनभाषा-लौकिक कथा साहित्य-धर्मकथानुयोग-कथाओं के प्रकार-- विकथाओं का त्याग । (३) शृङ्गारप्रधान कामसंबंधी कथाएँ १२-३० अगड़दत्त का कामोपाख्यान-धर्मकथाओं में शृङ्गार-प्रेमक्रीडाएँ-गांधर्व विवाहकामक्रीडा-काम पुरुषार्थ की मुख्यता-प्रेमपत्र व्यवहार-साधु-साध्वी का प्रेमपूर्ण संवाद-सिंहकुमार और कुसुमावली की प्रेमकथा-कुवलयचन्द्र और कुवलय. माला की प्रणयकथा-लीलावती और उसकी सखियों की प्रेमकथा-शृङ्गाररस प्रधान अनुपलब्ध आख्यायिकाएं । (४) अर्थोपार्जन की कथाएँ .... अर्थकथा की प्रधानता-अर्थोपार्जन के लिए चारुदत्त की साहसिक यात्राइभ्यपुत्रों की प्रतिज्ञा-लोभदेव को रत्नद्वीप यात्रा-व्यापारियों की भाषा और लेन देन-पोतवणिकों के अन्य आख्यान-व्यापारियों की पत्नी की शीलरक्षा-शीलवती महिलाएँ -यात्रागीत -मार्ग की थकान दूर करने वाली कथाएँ-संस्कृतियों का आदान-प्रदान । २. प्राकृत की धर्म-कथाएँ ५१-११४ (१) धर्म-कथाएँ धर्मप्राप्ति की मुख्यता-धर्मकथा के मेद-श्रोताओं के प्रकार-धार्मिक कथा साहित्य-कथाकोषों की रचना । (२) धूर्त और पाखंडियों की कथाएँ ५५-६३ नागरिकों द्वारा ठगाया गया ग्रामीण-धूर्ती से सावधान रहने की आवश्यकताधूर्तराज मूलदेव की कथा-मूलदेव की अन्य कथाएँ-धूर्त जुलाहा-चार ढोंगी प्रवंचक मित्रों की कहानी-कपटी मित्र-दो बनिये । (३) मूखों और विटों की कथाएँ ६३-७० मूर्ख लड़का-मूर्ख शिष्य-मूर्ख पंडित की कहानी । Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) बुद्धिचमत्कार की कहानियाँ ७०-७४ शिष्यों का संवाद - चतुर मन्त्री - एक क्षुल्लक और बौद्धभिक्षु - दिगंबर साधु और बौद्ध भिक्षु - कितने कौए (५) नीति सम्बन्धी कथाएँ पंचतंत्र नीति का शास्त्र - पंचतंत्र प्राकृत आख्यानों का विकसित रूप-पशुपक्षियों की कहानियाँ (सियार और सिंह; खसद्रुम गीदड़, घण्टीवाला गीदड़ लालची गीदड़; खरगोश और सिंह; बन्दर और बया; कौए और मरा हुआ हाथी) - अन्य कहानियाँ (पर्वत और मेघ; शेखचिल्ली; एक व्यापारी; सोचा था कुछ, हुआ कुछ; पारखी इभ्यपुत्र; एक लड़की के तीन वर; पति की परीक्षा; नाइन पंडिता; नूपुरपंडिता । (६) बौद्धों की जातक कथाएँ जैन कथाओं और जातक कथाओं की तुलना । ९४-११० (७) श्रमण संस्कृति की पोषक वैराग्यवर्धक जैन कथाएँ श्रमण संस्कृति में निवृत्ति की प्रधानता-त्याग और वैराग्य प्रधान कथाएं - कबूतर और बाज़ - मधुबिन्दु दृष्टांत कुडुंग द्वीप के तीन मार्गभ्रष्ट व्यापारी । वैराग्योत्पादक लघु आख्यान - प्रतीकों द्वारा अटवी पार करने का आख्यान - दीपशिखा पर गिरने वाला पतिंगा-धान्य का दृष्टांत झुंटणक पशु का दृष्टांत - आगम साहित्य में दृष्टान्तों द्वारा धर्मोपदेश - आगमोत्तर कथा साहित्य में धर्मकथाएँ - औपदेशिक कथा साहित्य-चरित ग्रंथों में कथाएँ - पौराणिक आख्यानों में बुद्धिगम्य तत्त्व । (८) काव्य के विविध रूपों का प्रयोग-सुभाषित ३. वसुदेवहिण्डी और बृहत्कथा ४. जैन कथा साहित्य : कहानियों का अनुपम भंडार १११-११४ ११५-१६३ वसुदेवहिण्डी और बृहत्कथाश्लोकसंग्रह - बिद्याधरों के पराक्रम कथा प्रसंगों की समानता ( कोक्कास बढ़ई, पुरुषों के भेद, गणिका पुत्री की कथा, गणिकाओं की उत्पत्ति; श्रेष्ठिपुत्र की कथा; गन्धर्वदत्ता का विवाह; विष्णुगीतिका; पुष्कर मधुपान; श्रेष्ठिपुत्र की देशविदेश यात्रा । ७४-९२ ९२-९४ 1800 १६५-१८० जैन कथाओं में वैविध्य - अनुपलब्ध कथा साहित्य - आगम साहित्य और उत्तरकालीन कथा ग्रन्थों की शैली प्राकृत जैन कथाओं का विकास कथाओं का तुलनात्मक अध्ययन ( अगडदत्त कथानक कोक्कास बढ़ई; विष्णुकुमार मुनिः चारुदत्त की कथा, प्रसन्नचन्द्र और वल्कलचीरी की कथा; ललितांग की कथा; मधुबिंदु दृष्टांत) - कथानक रूढ़ियाँ और लोक जीवन - भाषा विज्ञान की दृष्टि से महत्त्व । Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत जैन कथा साहित्य Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ प्राकृत की लौकिक कथाएँ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. कथाओं का महत्त्व जीवन में कथा-कहानी का महत्त्व प्राचीन काल से ही कथा-साहित्य का जीवन में बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है । जब मानव ने लेखन कला नहीं सीखी थी, तभी से यह कथा-कहानियों द्वारा अपने साथियों का मनोरंजन एवं ज्ञानवर्धन करता आया है। दादी और नानी अपने पोते-पोतियों और नाती-नतनियों को रात्रि में सोते समय कुतूहलवर्धक कहानियाँ सुनाकर उनका मनोरंजन करतीं। इन कहानियों की रोचकता का इस बात से अनुमान लगाया जा सकता है कि बालक दिन में भी कहानी सुनने के लिए मचलते रहते । उस समय उनकी नानी यह कहकर उन्हें चुप करती कि दिन में कहानी सुनने से मामा रास्ता भूल जायेगा । भला कोई बालक चाहेगा कि उसका मामा मार्गभ्रष्ट हो जाये ? मनोरंजन की प्रधानता प्राचीन काल में ऐसे अनेक पेशेवर लोग थे जो विविध खेल-तमाशों द्वारा सर्व-साधारण का मनोरंजन किया करते थे । नट, नर्तक, रस्सी पर खेल दिखाने वाले, बाजीगर, मल्ल, मुष्ठि युद्ध करने वाले, विदूषक, भांड़, कथकै (कथावाचक), रासगायक, मागध (स्तुतिपाठक), ज्योतिषी, वीणावादक आदि ऐसे कितने ही लोग बड़े-बड़े नगरों के चैत्यों और देवायतनों के समीप अड्डा जमाये रहते थे । कथकों का काम था कि जब राजा दिनभर के काम से निबटकर रात्रि के समय अपने शयनीय पर आरूढ़ हो तो वे राजा के हाथ-पैर का संवाहन करते हुए उसे कहानियाँ सुनायें, और कहानी सुनता-सुनता वह आराम से निद्रा देवी की गोद में विश्राम करने लगे। राजाओं की रानियाँ भी राजा को कहानियाँ सुनाकर आकृष्ट किया करती थीं। किसी राजा ने चित्रकार की कन्या कनकमंजरी से विवाह कर लिया। उसके अन्तःपुर में और भी अनेक रानियाँ थीं । राजा को कहानी सुनने का शौक था।' १. निशीथसूत्र । १३.५७) में साधु के लिए काथिक की प्रशंसा करने का निषेध है। वह आहार आदि, यश तथा अपनी पूजा-प्रतिष्ठा के निमित्त धर्मकथा कहता था (१३.४३५३) । औपपातिक सूत्र में विदूषक, रासगायक और मागध आदि के साथ कथक का उल्लेख है। कथासरित्सागर (२.२.२) भी देखिए । रमणीय नगर का कथानिय राजा प्रतिदिन पुरवासियों को कथा कहने के लिये बुलाया करता था । हेमचन्द्र, परिशिष्ट पर्व (३.१८.१८६) Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतएव जो रानी कहानी कहने में कुशल होती, उसी के पास वह अपनी रात्रि व्यतीत करता । कनकमंजरी ने सोचा कि इस तरह तो बहुत दिनों बाद उसकी बारी आयेगी। एक दिन राजा कनकमंजरी के पास आया तो उसने अपनी दासी को सिखा दिया कि वह उससे कहानी सुनाने का अनुरोध करे । कनकमंजरी ने कहानी सुनाना आरंभ किया। कहानी सुनाते-सुनाते जब काफी रात बीत जाती और कहानी चरम सीमा पर पहुँचती तो रानी नींद का बहाना बना, अगली रात को कहानी पूरी करने के लिए कहती । इस प्रकार कनकमंजरी राजा को छह महीने तक कहानियाँ सुनासुनाकर उसे अपने ही पास रक्खे रही।' कौतूहल की लीलावई कहा में प्रासाद की अट्टालिका पर सुख से बैठी हुई कवि की पत्नी, रात्रि के समय, ज्योत्स्ना से पूरित अन्तःपुर की गृहदीर्घिका में गंधोत्कट कुमुदों के रसपान की लोलुपता से गुंजार करते हुए भ्रमरों का शब्द सुन, अपने प्रियतम से कोई सुन्दर कथा कहने का अनुरोध करती है। ___ कथा-कहानियों के साथ शुक-सारिका के नाम भी प्राचीन काल से जुड़े चले आते हैं। १. आवश्यकचूर्णी २, पृ. ५७-६० २. कौतूहल, लीलावई, २४ ३. शुकसप्तति में शुक द्वारा कथित ७० कहानियों का संग्रह है। हरिदत्त सेठ का मदन विनोद पुत्र कुमार्गगामी था और वह पिता की सीख नहीं मानता था। अपने मित्र को दुखी देख त्रिविक्रम नामक ब्राह्मण, नीतिशास्त्र में निपुण शुक और सारिका लेकर उसके पास पहुँचा और सपत्नीक शुक को पुत्र की भाँति पालने को कहा । शुक के उपदेश से उसका पुत्र अपने पिता का आज्ञाकारी बन गया। तत्पश्चात् वह धनार्जन के लिए देशांतर को रवाना हुआ । उसकी अनुपस्थिति में उसकी पत्नी प्रभावती परपुरुष की अभिलाषवती हुई। ज्योंही वह परपुरुष के साथ रमण करने चली, सारिका ने उसे रोक दिया । प्रभावती ने उसका गला मरोड़कर उसे मार देना चाहा, लेकिन वह न मरी । शुक सारिका से अधिक चतुर था । उसने प्रभा. बती को ७० कहानियाँ सुनाकर उसके शील की रक्षा की । कादंबरी में कहानी कहने वाला शुक है। तथा देखिये जातक (नं. १९८)। पंचाख्यानवार्तिक (जे हर्टल, लाइजिग, १९२२) में २६ वीं कथा में काश्मीर के नवहंस राजाको कथा आती है। उसने शुक को देशविदेश में भ्रमण करने भेजा । भ्रमण करता हुआ वह स्त्रीराज्य में पहुँचा। रानी ने उसे चार समस्यायें दी और साथ में एक पत्र । मंत्रियों को एकत्र किया गया । अन्त में भारुड शावक को उसके पिता ने समस्या का अर्थ बताया कि पोतमपुर में तिलकमंजरी नाम की वणिक पुत्री राजा से प्रेम करती है। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शकुन - शकुनी संवाद किसी शकुन और शकुनी ने जमदग्नि की दाढ़ी में घोंसला बना लिया । एक बार शकुन अपनी शकुनी से कहने लगा-भद्रे ! तुम यहीं रहना, मैं हिमालय पर्वत पर अपने माता-पिता से मिलकर जल्दी ही आ जाऊँगा । शकुनी — प्राणनाथ ! आप न जायें। आपको अकेले समझकर कहीं कोई तकलीफ न देने लगे ! शकुन – तू डर मत ! यदि कोई मेरा पराभव करेगा तो मैं उसका प्रतिकार करने में समर्थ हूँ ! शकुनी — क्या भरोसा ? कहीं आप मुझे भूलकर किसी दूसरी शकुनी से प्रेम न करने लगें ! इससे मुझे कितना कष्ट होगा ! शकुन — तुझे मैं अपने प्राणों से भी अधिक चाहता हूँ, तेरे बिना मैं थोड़े समय के लिए भी अन्यत्र नहीं रह सकता । शकुनी — विश्वास नहीं होता कि आप लौट कर आ जायेंगे ! शकुन --- तू जिसकी कहे, उसकी शपथ खाने को तैयार हूँ ! शकुनी — यदि ऐसी बात है तो शपथ खाइए कि यदि आप वापिस न आयें तो इस ऋषि को जो पाप लगा है, वह आपको लगे । शकुन -और किसी की भी शपथ खाने को मैं तैयार हूँ, लेकिन इस ऋषि के पाप से लिप्त होना मैं नहीं चाहता । पक्षियों का यह वार्तालाप सुनकर जमदग्नि ने सोचा कि क्या बात है जो ये पक्षी मेरे पाप को इतना बड़ा बता रहे हैं । जमदग्नि ने दोनों को पकड़कर पूछा- अरे पक्षियो ! देखते नहीं, कितने हजारों वर्षों से मैं कुमार ब्रह्मचारी रह कर तपश्चर्या कर रहा हूँ ? मैंने कौनसा पाप किया है जो तुम मेरी शपथ खाने से इन्कार करते हो ? शकुन ने उत्तर दिया - महर्षि ! निस्संतान होने के कारण आप नदी जल के वेग से उखड़े हुए निरालंब वृक्ष की भांति, कुगति को प्राप्त करेंगे । आपका नाम तक कोई न लेगा । क्या यह कुछ कम पाप है ? क्या आप अन्य ऋषियों के पुत्रों को नहीं देखते ? यह सुनकर ऋषि अरण्यवास छोड़कर दारसंग्रह के लिए चल दिया ।' शुक की एक दूसरी कहानी देखिए - वसुदेवहिंडी, पृ० २३६ १. Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ पंख तोड़ने पर कहानी सुनानेवाला शुक एक बार किसी भील ने जंगल में से एक शुक को पकड़ा । उसका एक पैर तोड़ और उसकी एक आंख फोड़ उसने शुक को बाजार में छोड़ दिया । शुक आख्यान और कथा कहानियाँ सुनाने में कुशल था । संयोगवश वह श्रावकपुत्र जिनदास की स्त्री के हाथ पड़ गया । जिनदास की स्त्री ने उसे मार डालने को धमकी दी । उसने शुक के पंख उखाड़ना शुरू किया । शुक ने सोचा कि इस तरह मरने से क्या लाभ । अतएव ज्योंही जिनदास की स्त्री उसका पंख उखाड़ती, वह उसे कहानी सुनाता । उसने उसे नाइन, वणिकूकन्या, कोलिन, कुलपुत्र की कन्या आदि की ५०० कहानियाँ सुनाईं । रात्रि व्यतीत हो जाने पर जब शुक्र के एक भी पंख बाकी न बचा तो जिनदास की स्त्री ने उसे घूरे पर फेंक दिया । वहाँ से उसे बाज उठा ले गया और फिर वह दासीपुत्र के हाथ में आ गया ।' कुतूहल एवं जिज्ञासा कहानियों में कुतूहल एवं जिज्ञासा पैदा करने की क्षमता का होना आव श्यक है । यदि कहानी सुनने से कुतूहल और जिज्ञासा का भाव जागृत न हो तो वह कहानी नीरस हो जाने के कारण मनोभावों को उलित करने में अक्षम रहती है । किसी राजा को कहानी सुनने का शौक था । उसने दूर-दूर तक डोंडी पिटवा दी कि जो कोई उसे कभी समाप्त न होने वाली कहानी सुनायेगा, उसे वह अपना आधा राज्य दे देगा । डोंडी सुनकर दूर-दूर के लोग आये । किसी की कहानी एक दिन चली, किसी की दो दिन, किसी की तीन दिन । एक कहानी सुनानेवाला तीस दिन तक कहानी कहता रहा । राजा की आज्ञा थी कि जिस किसी की कहानी समाप्त हो जायगी, उसे मृत्युदंड भोगना पड़ेगा । इस प्रकार कितने ही लोगों को मृत्युदण्ड दिये जाने के बाद एक कथक ने राज दरबार में अपना नाम भेजा । उसने कहानी शुरू कीकिसी गांव में कोई किसान रहता था । भाग्य से अच्छी वर्षा हुई और उसकी खेती खूब फूली - फली । फसल पक जाने पर उसने उसे काटा और एक बहुत बड़े खलिहान में भर दिया । खलिहान में अनाज भरकर वह चैन से रहने लगा । १. आवश्यकचूर्णि, पृ० ५२२-२६ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेकिन कुछ ही दिनों बाद एक टिड्डीदल खलिहान पर टूट पड़ा । हवा आने के लिए खलिहान की मोरी में से होकर एक टिड्डी प्रवेश करती और फुर्र से उड़ जाती। राजा को लक्ष्य करके कथक ने कहा-महाराज ! सुनिए, एक टिड्डी उड़ी फुर्र, दूसरी टिड्डी उड़ी फुर्र, तीसरी टिड्डी उड़ी फुर्र, चौथी टिड्डी उड़ी फुर्र पांचवीं टिड्डी उड़ी फुर्र । राजा ने पूछा-फिर क्या हुआ ? "महाराज, छठी टिड्डी उड़ी फुरी, सातवीं टिड्डी उड़ी फुर्र, आठवीं टिड्डी उड़ी फुर्र ।” "उसके बाद ?" "नौवीं टिड्डी उड़ी फुरी,, दसवीं टिड्डी उड़ी फुर्र ।"....सौवीं टिड्डी उड़ी फुर्र। इस प्रकार राजा ने जब देखा कि कथक टिड्डियों को उड़ाता ही चला जाता है, रुकने का नाम नहीं लेता, तो वह हार मानकर उसे आधा राज्य देने के लिए मजबूर हो गया। ___तात्पर्य यह है कि कहानी में कुतूहल और जिज्ञासा की पर्याप्त मात्रा होनी चाहिए, तभी उसमें रोचकता आ सकती है । २. जैन कथाकारों का उद्देश्य जनपद विहार, जनभाषा, लौकिक कथा साहित्य । प्राचीन जैन ग्रन्थों में उल्लेख है कि जनपद विहार करने से जैन साधुओं की दर्शन विशुद्धि होती है, तथा महान् आचार्य आदि की संगति प्राप्त कर वे अपने को धर्म में दृढ़ रख सकते हैं । जनपद विहार करते समय उन्हें मगध, मालवा, महाराष्ट्र, लाट, कर्णाटक, द्रविड़, गौड और विदर्भ आदि की देशी भाषाओं से सुपरिचित होना चाहिए जिससे कि वे सर्वसाधारण को उनकी भाषाओं में उपदेश दे सकें ।' भगवान् महावीर ने भी स्त्री, बाल, वृद्ध तथा अक्षर ज्ञान से शून्य सर्व-सामान्य जनता को अपने निर्ग्रन्थ प्रवचन का लोकभाषा अर्धमागधी में ही उपदेश दिया था । १. बृहत्कल्पभाष्य, जनपदप्रकरण ( १२२९-३०, १२३६) २. अम्ह इत्थिबालवुड्ढअक्खरअयाणमाणाणं अणुकंपणत्थं सव्वसत्तसमदरसीहिं अद्धमागहाए भासाते सुत्त उद्दिठं - आचारांगचूर्णी, पृ० २५५ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगे चलकर जैन आचार्यों ने इसी परम्परा का अनुकरण करते हुए साहित्य का सर्जन किया । जन-कल्याण के लिए उन्होंने विविध कथाओं और आख्यानों का आश्रय लिया और प्राकृत में विपुल कथा-साहित्य का निर्माण कर जैन साहित्य के भण्डार को समृद्ध बनाया । वैदिक साहित्य में बहुत करके देवीदेवताओं की अलौकिक कथा कहानियों की ही प्रधानता थी जिनसे सामान्यजन चमत्कृत तो अवश्य होता, किन्तु पात्रों के साथ वह आत्मीयता स्थापित नहीं कर पाता था । जैन विद्वानों ने इस दृष्टिकोण में परिवर्तन किया । धर्मकथानुयोग की मुख्यता दृष्टिवाद के पांच विभागों में अनुयोग (दिगम्बर मान्यता के अनुसार प्रथमानुयोग) एक मुख्य विभाग है। इसके प्रथमानुयोग, करणानुयोग, द्रव्यानुयोग और चरणानुयोग इन चार प्रकारों में प्रथमानुयोग (अथवा धर्मकथानुयोग) को सबसे प्रमुख बताया गया है। प्रथमानुयोग अथवा धर्मकथानुयोग में सदाचारी, धीर एवं वीर पुरुषों का जीवन-चरित रहता है, अतएव जैन कथा-साहित्य की दृष्टि से यह महत्त्वपूर्ण है । जैन परम्परा में जिस विषयवस्तु का समावेश धर्मकथानुयोग में होता है, बौद्ध परम्परा में उसका समावेश सुत्तन्त अथवा सुत्तपिटक (दीघनिकाय, मज्झिमनिकाय, संयुत्तनिकाय, अंगुत्तरनिकाय और खुद्दकनिकाय) में किया जाता है। बौद्धसूत्रों की एक भविष्यवाणी में बौद्ध धर्म पर आने वाले खतरों की ओर संकेत किया गया है। खतरा यह था कि बौद्ध भिक्षु तथागत के अर्थ-गम्भीर, लोकोत्तर तथा शून्यता का प्ररूपण करने वाले उपदेश की अवहेलना कर तथागत के शिष्यों और कवियों के काव्यमय और सुन्दर वाक्य-विन्यास से अलंकृत लौकिक उपदेशों की ओर आकृष्ट हो रहे थे ।' इससे भी करणानुयोग, द्रव्यानुयोग और चरणानुयोग की तुलना में धर्मकथानुयोग की लोकप्रियता लक्षित होती है। वैसे अध्यात्मविद्या, तत्त्वज्ञान, प्रमाणशास्त्र, योगविद्या, आयुर्वेद, ज्योतिष, गणित, मन्त्रविद्या आदि कितने ही महत्त्वपूर्ण उपयोगी शास्त्र हैं, लेकिन जैन विद्वानों ने कथा-साहित्य के माध्यम से ही इनका प्ररूपण करना हितकर समझा। अर्थशास्त्र, कामशास्त्र, संगीत, स्वप्नविचार, रत्नपरीक्षा, मणिशास्त्र, खन्यविद्या और पाकशास्त्र आदि लौकिक विषयों, १. संयुत्तनिकाय २०. ७, पृ. २२२; अंगुत्तरनिकाय ४. १६०, ५.७९.५ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा शासनव्यवस्था के अन्तर्गत अपराध और दण्ड, सैन्यव्यवस्था, राजकरव्यवस्था; आर्थिकव्यवस्था के अन्तर्गत खेती-बारी, वनिज-व्यापार, उद्योग-धन्धे; सामाजिकव्यवस्था के अन्तर्गत जाति-पाति, स्त्रियों का स्थान, अध्ययन-अध्यापन, कला और विज्ञान, रीति-रिवाज, तथा धार्मिकव्यवस्था के अन्तर्गत श्रमण सम्प्रदाय, लौकिक देवी-देवता आदि की उपयोगी चर्चा भी प्राकृत जैन कथाग्रन्थों में की गयी है । कथाओं के प्रकार कथा के दो प्रकार बताये हैं-चरित (जिसमें महान् पुरुषों के यथार्थ चरितों का वर्णन हो) और कल्पित (जिसमें कल्पना प्रधान कथाएँ हों)। स्त्री और पुरुष के भेद से दोनों के दो भेद हैं। धर्म, अर्थ और काम सम्बधी कार्यों से सम्बद्ध दृष्ट, श्रुत और अनुभूत वस्तु का कथन चरित-कथा है । इसके विपरीत, कुशल पुरुषों द्वारा जिसका पूर्वकाल में उपदेश किया गया हो, उसकी अपनी बुद्धि से योजना कर कथन करना कल्पित-कथा है । चरित और कल्पित आख्यान अद्भुत, शृङ्गार और हास्यरसप्रधान होते हैं।' __ अन्यत्र अर्थ, धर्म और काम की अपेक्षा पुरुषों के तीन प्रकार कहे गये है। अर्थ की अपेक्षा उत्तम पुरुष अपने पिता और पितामह द्वारा अर्जित धन का उपभोग करता हुआ उसमें वृद्धि करता है, मध्यम पुरुष उसकी हानि करता है और अधम पुरुष उसे खा-पीकर ठिकाने लगा देता है। धर्म की अपेक्षा, स्वयंबुद्ध पुरुष को उत्तम और बुद्धों द्वारा बोधित पुरुष को मध्यम कहा गया है। काम की अपेक्षा दूसरे को चाहता है और दूसरा भी उसे चाहता है, उसे उत्तम, जिसे अन्य कोई चाहता है लेकिन चाहने वाले को वह नहीं चाहता उसे मध्यम, तथा जो अन्य किसी को चाहता है लेकिन अन्य उसे नहीं चाहता, उसे अधम पुरुष कहा गया है। १. वसुदेवहिंडी, पृ० २०८-९ २. वही, पृ० १०१ । तुलनीय, शुकसप्तति (५७ वीं कथा) की कथा से। यहाँ उत्तम, मध्यम और अधम के निम्न लक्षण बताये गये हैंउत्तम-रक्तां यो भामिनी देवि ! सक्तां कामयते सदा । तयापि काम्यतेऽत्यर्थमुत्तमः सोऽभिधीयते ॥२६५।। मध्यम-कामिनीभिः स्मरार्ताभिः सततं काम्यते हि यः । न ताः कामयते नम्रो मध्यमो नायकः स्मृतः ॥२६४।। अधम-हतो मन्युसहस्रर्यः संतप्तो मदनाग्निना । रक्तश्च यो विरक्तायां सोऽधमः परिकीर्तितः ॥२६३॥ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिक नियुक्ति में अर्थ, काम, धर्म और मिश्रित कथाओं के भेद से कथा के चार भेद बताये हैं । हरिभद्रसूरि ने इस भेद को मान्य किया है । किन्तु कुवलयमाला के कर्त्ता दाक्षिण्यचिह्न उद्योतनसूरि ने अर्थ और कामकथा के पूर्व धर्मकथा का उल्लेख कर धर्मकथा को प्रमुखता दी है । इसी रचना में अन्यत्र कथा के पांच प्रकार बताये गए हैं-सकलकथा, खण्डकथा उल्लापकथा, परिहासकथा तथा वरकथा । कुवलयमाला को संकीर्ण कथा कहा गया है क्योंकि इसमें समस्त कथाओं के लक्षण विद्यमान हैं । हरिभद्रसूरि ने आचार्य परम्परागत दिव्य, दिव्य - मानुष्य कथाओं का उल्लेख किया है । " कौतूहल की लीलावई - कहा में भी कथाओं के इन प्रकारों का उल्लेख है जिनकी रचना महाकवियों ने संस्कृत, प्राकृत तथा संकीर्ण (संस्कृत - प्राकृत) भाषाओं में की है । यहाँ व्याकरण (शब्दशास्त्र) १. निर्युक्ति गाथा ३. १८८; हारिभद्रीयवृत्ति, पृ० १०६ । २. समराइच्चकहा, भूमिका, पृ० ३, पण्डित भगवानदास ३. ७:८, पृ० ४ | हेमचन्द्र ने काव्यानुशासन (८.७-८ पृ० ४६२-६५) में आख्यायिका, कथा, आख्यान, निदर्शन, प्रवह्निका, मन्थल्लिका, मणिकुल्या, परिकथा, खण्डकथा, सकलकथा, उपकथा और बृहत्कथा - ये कथा के भेद बताये हैं । साहित्यदर्पण (६.३३४-३५) में निम्नलिखित दस भेद पाये जाते हैं -आख्यायिका, कथा, कथानिका, खण्डकथा, परिकथा; सकलकथा, आख्यान, उपाख्यान, चित्रकथा और उपकथा । समराइच्च कहा को सकलकथा कहा गया है । आख्यायिका ऐतिहासिक अथवा परम्परागत होती है जबकि कथा में कल्पना का प्राधान्य पाया जाता है । शृङ्गार प्रकाश के कर्ता भोजराज ने बाण की कादम्बरी और कौतूहल की लीलावई को श्रेष्ठ कथाएँ कहा है । अन्य प्राकृत काव्यों में शूद्रककथा इन्दुमती ( खण्डकथा ), सेतुबन्ध गोरोचना, अनंगवती (मन्धुली), चेटक (प्रवह्निका), मारीचवध, रावणविजय, अब्धिमन्थन, भीमकाव्य, हरिविजय का उल्लेख किया है। डाक्टर वी. राघवन, भोजराजश्शृङ्गार प्रकाश, पृ० ८१८, मद्रास, १९६३: काव्यानुशासन, ८.८, पृ० ४६३-६५ । संस्कृत - छायानुवाद सहित, १९३८ । ४. ५. ६. १० कहीं कुतूहल से, कहीं परवचन से प्रेरित होने के कारण, कहीं संस्कृत में, कहीं अपभ्रंश में, कहीं द्राविड़ और पैशाची भाषा में रचित, कथा के सर्वगुणों से संपन्न, शृङ्गार रस से मनोहर, सुरचित अंग से युक्त, सर्व कलागम से सुगम कथा संकीर्णकथा हैकोऊहले कत्थइ पर- वयण - वसेण सक्कय- णिबद्धा । किंचि अवब्भंस- कया दाविय - पेसाय - भासिल्ला ॥ सव्व-कहा- गुण - जुत्ता सिंगार-मणोहरा सुरइयंगी । सव्व कलागम - सुहया संकिण्ण-कहति णायव्वा ॥ कुवलयमाला ७, पृ० ४ समराइच्चकहा, पृ० ३ गाथा, ३५-३६ । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को महत्त्व न देते हुए उसी कथा को श्रेष्ठ कहा है कि जिससे सरलता पूर्वक स्पष्ट अर्थ का ज्ञान हो सके।' विकथाओं का त्याग जान पड़ता है कि कालान्तर में शनैः शनैः धर्मकथा की ओर से विमुख होकर जैन श्रमण ( बौद्ध भी) अशोभन कथाओं की ओर आकर्षित होने लगे जिससे आचार्यों को विकथाओं स्त्रीकथा, भक्तकथा, देशकथा, राजकथा-से दूर रहने का आदेश देना पड़ा। बौद्धसूत्रों में कहा है कि बौद्ध भिक्षु उच्च शब्द करते हुए, महाशब्द करते हुए, खटखट शब्द करते हुए राजकथा, चोरकथा जनपदकथा, स्त्रीकथा आदि अनेक प्रकार की निरर्थक कथाओं में संलग्न रहते थे, जब कि गौतम बुद्ध ने इन कथाओं का निषेध कर, दान, शील और भोगोपभोग त्याग संबंधी कथाएँ कहने और श्रवण करने का उपदेश दिया। ___ दशवैकालिक नियुक्ति (२०७) में स्त्री, भक्त, राज, चोर, जनपद, नट, नर्तक जल्ल (रस्सी पर खेल दिखाने वाले बाजीगर), और मुष्टिक (मल्ल विकथाओं का उल्लेख है। यहाँ जैन साधुकों को आदेश है कि उन्हें शृङ्गार रस से उद्दीप्त, मोह से फूत्कृत, जाज्वल्यमान मोहोत्पादक कथा न कहनी चाहिए । तो फिर कौनसी १. भणियं च पिययमाए पिययम किं तेण सहसत्थेण । जेण सुहासिय- मग्गो भग्गो अम्हारिस जणस्स ॥ उवलब्भइ जेण फुडं अत्थो अकयत्थिएण हियएण । सो चेयं परो सहो णिच्चो कि लक्खणेणम्हं ॥ ३९-४०। विकथा का लक्षणजो संजओ पमत्तो रागद्दोसवसगओ परिकहेइ । सा उ विकहा पवयणे पण्णत्ता धीरपुरिसेहिं ।।-दशवैकालिकनियुक्ति (३.२११, पृ० ११३अ) - जो कोई संयत मुनि प्रमत्त भाव से रागद्वेष के अधीन हुआ कथा कहता है, उसे प्रवचन में धीर पुरुषों ने विकथा कहा है । स्थानांग सूत्र में चार विकथाओं का और समवायांग (२९) में विकथानुयोग का उल्लेख है । तथा देखिए, निशीथ भाष्य (पीठिका, ११८-३०) । ४. देखिए विनयपिटक, महावग्ग ५.७.१५, नालन्दा देवनागरी प्रालि ग्रन्थमाला, १९५६ ...तथा दीघनिकाय, सामअफलसुत्त (१-२), पृ० २५; पोट्ठपादसुत (१-९), पृ. ६७; महापदानसुत्त (२-१), पृ० १०७; उदुम्बरिकसीहनाद (३-२), पृ० २२६; राहुल सांकृत्या यन, हिन्दी अनुवाद, १९३५ । । ५. वट्टकेर के मूलाचार (वाक्यशुद्धि-निरूपण) में स्त्री, अर्थ, भक, खेट, कर्बट, राज, • चोर, जनपद, मगर और आकर कथाओं के नाम आते हैं । देवेंद्रसूरिकृत सुदंसणा चरिय (प्रथम उद्देश) में राज, स्त्री, भक्त और जनपद कथाओं के त्याग का उपदेश है। . Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा वे कहें ? वैराग्य से पूर्ण तप और नियम संबंधी कथाएँ, जिन्हें श्रवण कर संवेग निर्वेद भाव की वृद्धि हो । अर्थबहुल कथा का इस प्रकार कथन करना चाहिए जिससे कि कथा के बहुत लम्बी हो जाने से श्रोता को वह भारी न पड़े अति प्रपंच वाली कथा से कथा का प्रयोजन ही नष्ट हो जाता है, अतएव क्षेत्र, काल, पुरुष तथा अपनी सामर्थ्य को समझ-बूझकर निर्दोष कथा कहना ही उचित है ।' ३. शृङ्गारप्रधान कामसंबंधी कथाएँ कहा जा चुका है कि कथा को रोचक बनाने के लिए उसमें मनोरंजन, कुतूहल एवं जिज्ञासा का भाव आवश्यक है । लेकिन कथा को सरस बनाने के लिए उसमें प्रेम तत्त्व भी चाहिए । प्रेम में रूप-सौन्दर्य को आत्मसात् करने के लिए अपनी वैयक्तिकता के बाहर जाकर हमें उस व्यक्ति, विचार अथवा क्रिया-कलाप के साथ तादात्म्य स्थापित करना होता है। जब हम किसी सुन्दर नायिका को बार-बार देखते हैं तो उससे हमारे मन में उसके प्रति प्रेमभाव उत्पन्न होता है। प्रेम से रति, रति से विश्रम्भ और विश्रम्भ से प्रणय की उत्पत्ति होती है। रति सिंगाररसुत्तइया मोहकुवियफुफुगा हसहसिति । जं सुणमाणस्स कहं समणेण ण सा कहेयव्वा । समणेण कहेयव्वा तवनियमकहा विरागसंजुत्ता । जं सोऊण मणुस्सो वच्चइ संवेगनिव्वेयं ।। अस्थमहंतीवि कहा अपरिकिलेसबहुला कहेयव्वा । हंदि महया चडगरतणेण अत्थं कहा हणइ ॥ खेतं काल पुरिसं सामत्थ चप्पणो वियाणेत्ता । समणेण उ अणवज्जा पगयंमि कहा कहेयव्वा ॥ २१२-१५ यहां कथा के मूलकर्ता और आख्याता की अपेक्षा, कथाओं को अकथा, कथा और विकथा-इन तीन भागों में विभक्त किया है। कथा का लक्षण है: तवसंजमगुणधारी जं चरणत्था कहिंति सब्भावं । सव्वजगजीवहियं सा कहा देसिया समये ॥२१॥ - जिसे तप और संयम के धारक सद्भावपूर्वक कहते हैं, संसार के समस्त जीवों का हित करने वाली घह कथा सत्कथा है। २. सइ दंसणाउ पेम्म पेमाउ रई रईए विस्संभो ।। विस्संभाओ पणओ पं वह वड्ढए पेम्मं ॥ - बृहत्कल्पभाष्य (१.२२६८-६९); दशवैकालिकचूर्णी ३, पृ० १०६, गाथा सप्तशती (७.७५) में प्रेम का निम्नलिखित मार्ग बताया है अत्थकरूसणं खणपसिज्जण अलिअवअणणिब्बंधो।। उम्मच्छरसन्तावो पुत्तअ ! पअवी सिणेहस्स ॥ - अचानक रूठ जाना. क्षणभर में प्रसन्न हो जाना, झूठ बोलकर किसी बात का आग्रह ... करना और ईर्ष्या के कारण संतप्त रहना-यह प्रेम का मार्ग है । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शृङ्गार रस का स्थायी भाव है। शृङ्गार रसों का राजा है और इसी रस को पूर्ण रस माना गया है, बाकी इसकी संपूर्णता की मध्यवर्ती स्थितियाँ बतायी गयी हैं । प्राचीन ग्रन्थों में रूप सौन्दर्य, अवस्था, वेशभूषा, दाक्षिण्य, कलाओं की शिक्षा तथा दृष्ट (देखे हुए), श्रुत (सुने हुए) और अनुभूत (अनुभव किये हुए) का परिचय प्रकट करने को काम कथा कहा है।' हरिभद्रसूरि ने इसी का स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है कि जिसमें काम उपादान रूप में हो तथा बीच-बीच में दूती व्यापार, रमणभाव, अनंगलेख, ललित कला और अनुरागपुलकित आदि का वर्णन किया गया हो, उसे कामकथा कहते हैं । अगड़दत्त का कामोपाख्यान ___ अगड़दत्त उज्जैनी के अमोघरथ नाम के सारथी का पुत्र था । पिता का देहान्त हो जाने पर वह कौशाम्बी पहुँचा और अपने पिता के परम मित्र दृढ़प्रहारी नामक आचार्य के पास रहकर शस्त्रविद्या सीखने लगा । यहाँ आचार्य के पड़ोस में रहने वाली सामदत्ता नाम की सुन्दर युवती से उसका परिचय हो गया । वह प्रतिदिन विद्या सीखने में संलग्न अगड़दत्त पर फल, पत्र और पुष्पमाला फेंककर उसका ध्यान आकृष्ट किया करती । एक दिन वह युवती उसी वृक्षवाटिका में आ पहुँची जहाँ अगड़दत्त विद्याभ्यास कर रहा था। रक्त अशोक वृक्ष की शाखा को बायें हाथ से पकडे, अपने सहज उठाये हुए एक पैर को वृक्ष के स्कन्ध पर रखे हुए उस युवती पर अगड़दत्त की नजर पडी । वह कैसी थी ? नवशिरीष के सुन्दर पुष्पके समान, सुवर्ण के कूर्म जैसे चरणों वाली; अत्यन्त विलास के कारण चकित करने वाले कदलीस्तम्भ के समान उरुयुगल वाली; महानदी के तट के स्पर्श के समान सुकुमार जंघा वाली; हंसपंक्ति के समान शब्द करती हुई कटिमेखला वाली; ईषत् रोम पंक्ति वाली; कामरति में वृद्धि करनेवाले, उरुतट की शोभा बढ़ाने वाले संघर्ष के कारण वृद्धि को प्राप्त सज्जन जनों की मित्रता की भाँति बढ़ने वाले तथा परस्पर अन्तर रहित पयोधरों वाली; प्रशस्त लक्षणों से युक्त और १... रूवं वओ य वेसो दक्खत्तं सिक्खियं च विसएसुं । दिल सुयमणुभूयं च संथवो चेव कामकहा - दशवैकालिक नियुक्ति ३. १९२, पृ० १०९ २. जा उण कामोवायाण विसया वित्त-वपु-व्वय-कला-दक्खिण्णपरिगया, अणुराअ पुलइअपडिवत्तिजोअसारा, दईवावाररमियभावाणुवतणाइ पयत्थसंगया सा कामकहत्ति भण्णइ। - समराइच्चकहा, पृ. ३ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रोमयुक्त बाहुलता वाली; रक्त हथेली से युक्त, कोमल, अतिरेखा से अबहुल क्रमागत सुजात उङ्गलियों तथा रक्त-ताम्र नखों से युक्त अग्रहस्त वाली; बहुत अधिक प्रलम्बमान नहीं ऐसे रक्त ओठ वाली; सुजात, शुद्ध और सुन्दर दन्तपंक्ति वाली; रक्तकमल के पत्र की भाँति जिह्वा वाली; उत्तम और उन्नत नासिका वाली; अंजुलिप्रमाण, तिर्यक, विस्तृत, नील कमल के पत्र की भाँति नयनों वाली; संगत भृकुटियों वाली; पंचमी के चन्द्र के समान ललाटपट्ट वाली तथा काजल और भ्रमरावलि के समान मृदु, विशद, और सुगन्धि फैलाने वाले, सर्व कुसुमों से सुवासित केशपाश वाली।' अपना परिचय देने के उपरांत सामदत्ता ने निवेदन किया कि जबसे उसने अगड़दत्त को देखा है तभी से वह काम-बाण से घायल हो गयी है, और काम से पीड़ित हो उसकी शरण आई है। अगडदत्त ने उत्तर दिया-सुन्दरी ! मैं यहाँ विद्याध्ययन करने आया हूँ, विनय का उल्लंघन करना मेरे लिए उचित नहीं । सामदत्ता–भर्तृदारक ! आप जानते हैं, कामी कौन होता है ? कुलशील में कोई कलंक उपस्थित न करने वाला व्यक्ति कामी नहीं कहा जाता । धर्मकथाओंमें शृङ्गार ____ इस तरह के अन्य कितने ही प्रेमाख्यान प्राचीन जैन कथाग्रंथों में उल्लिखित हैं जिससे पता लगता है कि जैन ग्रंथकारों ने धर्म-कथाओं में शृङ्गारयुक्त प्रेमाख्यानों का समावेश कर उन्हें अपने पाठकों और श्रोताओं के लिए रुचिकर बनाने की चेष्टा की । वसुदेवहिंडीकार ने लिखा है-नहुष, नल, धुंधुमार, निहस, पुरुरव, मांधाता, राम रावण, जनमेजय, राम, कौरव, पंडुसुत, नरवाहनदत्त आदि लौकिक कामकथाएँ सुनकर लोग एकान्त में काम-कथाओं का रस लेते हैं । इससे सुगति को ले जाने १. वही, पृ. ३५-३७ । नेमिचन्द्र आचार्य की उत्तराध्ययम की वृत्ति में सामदता की जगह कनकमंजरी का नाम है, वह विवाहित थी। उल्लेखनीय है कि वसुदेवहिंडी में अन्यत्र भी नायिकाओं का वर्णन इसी प्रकार की साहित्यिक समासांत पदावली में किया गया-है।. देखिये गंधर्वदत्ता (पृ. १३२ ), बंधुमती ( २८०) केतुमती (३४९), प्रभावती ( ३५१ ) आदि के वर्णन । २. इस प्रसंग पर नेमिचन्द्रीय उत्तराध्ययन वृत्ति ( पृ० ८१-अ) में काम की दस अवस्थाओं का वर्णन है। इसके पूर्व बृहत्कल्पभाष्य ( २२५८- ६१ ) में दस कामवेगों का वर्णन है। ३. वसुदेवहिण्डी, पृ० ३८ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ काले धर्म श्रवण करने की इच्छा भी उनमें नहीं रहती - ऐसे ही जैसे कि ज्वरपित्त से जिसका मुँह कडुआ हो गया है, उसे गुड-शक्कर खाण्ड अथवा बूरा भी कडुआ लगने लगता है।....अंतएव जैसे कोई वैद्य अमृतस्वरूप औषध - पान से पराङ्मुख रोगी मनोभिलषित औषधपान के बहाने अपनी औषधि पिला देता है, उसी प्रकार कामकथा में रत हृदय वाले लोगों का मनोरंजन करने के लिए, मैं शृङ्गारकथा के बहाने अपनी धर्मकथा उन्हें सुनाता हूँ ।' कुवलयमाला के कर्त्ता उद्योतनसूरि ने भी अपनी धर्मकथा को कामशास्त्र से सम्बद्ध बताते हुए कहा है कि पाठक इसे अर्थविहीन न समझें, क्योंकि धर्म की प्राप्ति में यह कारण है । सुविज्ञ श्रोताओं एवं पाठकों से अपनी कथा को कान देकर श्रवण करने का अनुरोध करते हुए, नवागत वधू से उसकी तुलना करते हुए ग्रंथकार ने कहा है "वह अलंकार सहित है, सुभग है, ललित पदावलि से युक्त है मृदु और मंजुल संलाप वाली है, सहृदय जनों को आनन्द प्रदान करने वाली है-इस प्रकार नववधू के समान वह शोभित होती है । "३ प्रेमक्रीडाएँ कितनी ही वार वसंत क्रीड़ाओं अथवा मदन - महोत्सवों आदि के अवसरों पर नववेश धारण किये हुए युवक और युवतियों का परस्पर मिलन होता और मदनशर से घायल हो वे अपनी सुध-बुध खो बैठते हैं। युवक कामज्वर से पीड़ित रहने लगता; युवती की भी यही दशा होती । कर्पूर, चन्दन और जलसिंचित तालवृन्त आदि से उपचार किया जाता । प्रेम-पत्रों का आदान प्रदान शुरू हो जाता । कभी कोई युक्ती किसी राजा आदि के गुणों की प्रशंसा सुन, अथवा उसका चित्र देख उस पर मुग्ध हो जाती । संदेशवाहक का काम शुक से लिया जाता । शुक के पेट में से एक सुन्दर हार और कस्तूरी से लिखा हुआ प्रेमपत्र निकलता । पत्र पढ़कर १. वसुदेवहिंडी भाग २ मुनि पुण्यविजयजी की संशोधितहस्तलिखित प्रति पृ. ३ २. अम्हे वि एरिसा चउव्विहा धम्मकहा समाढत्ता । तेण किंचि कामसत्थसंबद्धं पि भण्णिeिs तं च मा णिरत्थयं ति गणेज्जा । किंतु धम्मपडिवत्तिकारणं.....। - कुवलयमाला. ९, पृ० ५ ३. सालंकारा सुहया ललियपया मउय - मंजु - संलावा । सहियाण देइ हरिसं उब्वूढा णववहू चेव ॥ - वही, ८, पृ०४ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ राजा व्याकुल हो जाता और अपनी प्रेमिका की खोज में निकल पड़ता।'पुरुषों का भी यही हाल था । किसी रूपवती युवती के रूप-सौन्दर्य की प्रशंसा से आकृष्ट हुआ राजा रत्नशेखर जोगिनी का रूप धारण कर उससे मिलने के लिए प्रस्थान करता है। कामदेव के मंदिर में प्रेमी और प्रेमिका का मिलन होता है। कभी सर्पदंश अथवा उन्मत्त हस्ती के आक्रमण से किसी युवती की रक्षा करने के उपलक्ष्य में युवती के माता-पिता युवक के बल-पौरुष से प्रभावित हो, अपनी कन्या उसे दे देते । सार्वजनिक नृत्य के अवसर पर सुन्दर नर्तकी के कटाक्षबाण से घायल हुआ कोई छैलछबीला नर्तकी को प्राप्त करने का प्रयत्न करता, अथवा वीणावादन आदि प्रतियोगिताओं में विजयी होकर युवती के पाणिग्रहण का भागी होता । गणिका की कन्याओं से विवाह करना भी नीतिविरुद्ध न समझा जाता । वसुदेवहिंडी में अनेक प्रसंग ऐसे आते हैं जबकि किसी सुन्दर स्त्री के रूपलावण्य से आकृष्ट हो कोई युवक उसे प्राप्त करने की चेष्टा करता है. अथवा किसी साधु-मुनि या नैमित्तिक की भविष्यवाणी के अनुसार दोनों का परिणय हो जाता है। कनकरथ राजा की रानी चन्द्राभा द्वारा पद प्रक्षालन के समय उसके कोमल करस्पर्श से काम पीड़ित हुआ मधु, चन्द्राभा को प्राप्त करने की चेष्टा करने लगा। कनकरथ के साथ उसने मेल जोल बढ़ाया जिससे कनकरथ अपनी रानी के साथ मधु के घर आने जाने लगा। एक दिन मौका पाकर मधु ने चन्द्राभा के आभूषण तैयार कराने के बहाने उसे घर में रोक कनकरथ को बिदा कर दिया। विद्याधरों में तो एक दूसरे की भार्या का अपहरण करने की मानो होड़ लगी रहती थी। विद्याधरों के स्वामी मानसवेग ने कृष्ण के पिता वसुदेव को इसलिए बांध लिया कि उसने उसकी बहन से स्वेच्छानुसार विवाह कर लिया था । और मानसवेग ने वसुदेव की भार्या का अपहरण कर लिया। इसी प्रकार विद्याधरराज १. देखिए पद्मचन्द्रसूरि के अज्ञातनामा शिष्यकृत प्राकृतकथासंग्रह में उल्लिखित सुन्दरीदेवी का आख्यान: जगदीशचन्द्र जैन प्राकृत साहित्य का इतिहास, पृ० ४७३ । जिनहर्षगणिकृत रयणसेहरीकहा । मिलाइए, मलिक मुहम्मद जायसी की पद्मावत की कथा के साथ। प्राकृत साहित्य का इतिहास पृ० ४८३-८५ वसुदेवहिण्डी पृ० १०३ ४. वही पृ०९० ५. वही, पृ० ३०८ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगति की भूमिगोचरी प्रिया सुकुमालिका को धमसिंह विद्याधर हरकर ले गया था।' गांधर्व विवाह की मान्यता गांधर्व विवाह में एक-दूसरे की पसन्दगी मुख्य रहती थी। कन्या के माता-पिता की अनुमति के बिना, बिना किसी धार्मिक क्रियाकाण्ड और कुलगोत्र के निश्चय के ये विवाह हो जाते और इन विवाहों में किसी को आपत्ति न होती थी। वसुदेवहिंडी के नायक वसुदेव ने १०० वर्ष तक परिभ्रमण कर अनेक विद्याधरों और राजकन्याओं से विवाह किये । इन्हीं विवाहों को लेकर संघदासगणि वाचक ने वसुदेवहिंडी के प्रथम खण्ड में २९ और धर्मदासगणि ने मध्यम खण्ड (अप्रकाशित) के ७१ लम्बकों में वसुदेव के परिभ्रमण की कथा लिखी है। __ तीसरे लम्बक में, कथानायक वसुदेव ने जब श्रेष्ठी चारुदत्त की कन्या को वीणावादन में जीत लिया तो चारुदत्त कहने लगा-"आपने अपने दिव्य पुरुषार्थ द्वारा गन्धर्वदत्ता को प्राप्त किया है, अब आप निर्विघ्न रूप से इसका पाणिग्रहण करें । लोकश्रुति है-ब्राह्मण के ब्राह्मणी, क्षत्रियाणी, वैश्या और शूद्राणी-ये चार भार्याएँ हो सकती हैं । यह आपके अनुरूप है, अतएव आप इसे ग्रहण करें । कुल-गोत्र जानकर आप क्या कीजिएगा ? अतएव या तो आप अग्नि में होम करें या मेरी पुत्री को करने दें" २७ वें लंबक में रिष्टपुर के राजा रुधिर की कन्या रोहिणी के स्वयंवर के अवसर पर उत्तम वस्त्रालंकारों से विभूषित राजा लोग स्वयंवर मंडप के मंच पर आसीन थे । कथानायक वसुदेव भी पणव (ढोलक) बजाने वालों के साथ पणव हाथ में लिये बैठे थे । कंचुकी और महत्तरों से घिरी हुई रोहिणी ने मण्डप में १. वही, पृ. १४० । द्वारका की राजकुमारी कमलामेला का विवाह राजा उग्रसेन के नाती धनदेव के साथ होना निश्चित हो गया था। विवाह की तैयारियाँ हो रही थीं। इस समय शंब ने विद्याधर का वेश धारण कर कमलामेला का अपहरण कर लिया और अपने मित्र बलदेव के पौत्र सागरचन्द्र के साथ उसका विवाह करा दिया। देखिए, बृहतूकल्पभाष्य १७२ और बृत्ति, पीठिका, पृ० ५६-५७; दो हजार वरस पुरानी कहानियाँ (प्रथम संस्करण), पृ०१७३। २. आर. सो टैम्पल के अनुसार, गांधर्व विवाह की प्रतिष्ठा इस बात की ओर लक्ष्य करती है कि भारत के क्षत्रिय राजा विदेशों में पहुँच गये थे। द ओशन ऑफ स्टोरी का आमुख ३. बुधस्वामी के बृहत्कथाश्लोकसंग्रह (१७, १७५, पृ० २१६) में इस प्रसंग पर अपने कथन के प्रमाण में मनु का निम्न श्लोक उद्धत किया है अग्रजोऽवरजां भार्यों स्वीकुर्वन् न प्रदुष्यति । ४. वसुदेवहिंडी, पृ० १३२ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ प्रवेश किया । जरासंघ, कंस, पाण्डु, दमघोष, द्रुपद, संजय आदि उत्तम कुल, शील, ज्ञान और रूप से सम्पन्न अनेक राजाओं का रोहिणी की लेखिका ने परिचय कराया । लेकिन रोहिणी को कोई भी आकृष्ट न कर सका । अन्त में वसुदेव के पणव का मधुर शब्द सुनकर वह प्रभावित हुई और वसुदेव के गले में उसने वरमाला डाल दी । यह देखकर स्वयंवरमंडप में उपस्थित राजागण क्षुब्ध हो उठे । कुछ लोग कहने लगे कि उसने तो एक बाजा बजाने वाले को वर लिया है ! दंतवक्र ने कन्या के पिता को ताना मारते हुए कहा - "यदि तेरा अपने कुल पर अधिकार नहीं, तो तू उत्तम वंशोत्पन्न राजाओं को एकत्र क्यों करताफिरता है ?" रुधिर ने उत्तर दिया- मैं क्या कर सकता हूँ । स्वयंवर का मतलब ही है। कि कन्या अपनी पसन्दगी का वर चुने । दंतवक्र - ठीक है कि तुमने अपनी कन्या स्वयंवर में दी है, किन्तु मर्यादा का उल्लंघन करना उचित नहीं है । इस वरण किये हुए पुरुष को त्याग कर, हम क्षत्रियों में से किसी को यह क्यों नहीं वर लेती ? यह सुनकर वसुदेव से विना बोले न रहा गया । उसने कहा- -क्या गायनवादन आदि कलाओं की शिक्षा क्षत्रियों के लिए निषिद्ध है जो तू मेरे हाथ में पणव देखकर मुझे अक्षत्रिय कहता है ? याद रख, अब तो बाहुबल ही मेरे कुल का निश्चय करेगा । आओ, युद्ध के लिए तैयार हो इस प्रकार स्वयंवर में कन्या के लिए युद्ध हो जाना बल्कि युद्ध होना आवश्यक माना जाता था । नहीं तो पौरुष के प्रदर्शन का और कौनसा अवसर था । जाओ ।' श्रावस्ती नगरी के राजा एणीपुत्र ने अपनी कन्या प्रियंगुसुन्दरी के स्वयम्वर की घोषणा की । किन्तु स्वयम्वर में कोई राजा उसे पसन्द नहीं आया । वह मंडप से ऐसे ही लौट गयी जैसे कि समुद्र की लहरों से प्रतिहत नदी लौट जाती है । यह देखकर राजा क्षुब्ध हो उठे । कहने लगे- इतने क्षत्रियों में से क्या उसे एक भी पसन्द नहीं पड़ा ? एणीपुत्र को लक्ष्य करके उन्होंने कहा कि उसने नाहक ही इतने राजाओं को बुलाकर उनका अपमान किया । १. वसुदेवहिंडी, पृ० ३६४ साधारण - सी बात थी; क्षत्रिय राजाओं को अपने Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ एणीपुत्र ने उत्तर दिया-कन्या को स्वयम्वर में देने के पश्चात् उस पर पिता का अधिकार नहीं रह जाता । तुम लोगों का कौनसा अपमान हो गया ? राजाओं ने रुष्ट होकर कहा ये सब झूठ हैं। हमेशा पराक्रम की जय होती है । यदि हम बल का प्रयोग करें तो देखते हैं, यह हमें कैसे वरण नहीं करती ? तत्पश्चात् दोनों दलों में युद्ध ठन गया ।' कामक्रीडा का वर्णन कहा जा चुका है कि धर्मकथाओं में शृङ्गार रस का पुट देकर जैन आचार्यों ने अपने कथा-साहित्य को अधिक-से-अधिक रोचक बनाने का प्रयत्न किया । कथानायक को देश-देशान्तरों में परिभ्रमण करा, अनेक सुन्दरियों के साथ उसका विवाह कराया गया । विवाह के पश्चात् कामक्रीड़ा के साधनों को जुटाया गया । नायक और अपनी नायिका को उन्होंने गर्भगृह में प्रवेश कराया जहाँ संभोगसुख का आस्वादन करते हुए, रतिजन्य खेद से श्रांत दोनों सुख की निद्रा का आलौकिक आनन्द लेने लगे । गर्भगृह में पहुँच, नायक वहाँ बिछे हुए सुन्दर कोमल शयनीय पर विश्राम करता और परिचारिका उसके पैरों का अपने कोमल हस्तों और वक्षस्थल का अपने सुकुमार उरोजों द्वारा संवाहन कर उसकी श्रांति दूर करती । जैसे हस्तिनी हस्ती को रतिसुख का आनन्द देती है, वैसे ही परिचारिका नायक को आनन्द प्रदान करती । जैन रामायण के अनुसार, राजा दशरथ की पत्नी कैकेयी शयनोपचार (सयणोवयार)-कामक्रीड़ा में विचक्षण थी, इसलिए राजा ने उससे वर मांगने का अनुरोध किया था । १. वही, पृ० २६५-६६ २. वही, पृ. १०२ । बुधस्वामीकृत बृहत्कथाश्लोकसंग्रह (१०.१३९-१५३, पृ० १२३-२४) में इस प्रसंग पर रतिजन्यसंक्षोभ दूर करने के लिए स्तनोत्पीड़ित नामक संवाहन श्रेष्ठ बताया गया है। परिचारिका श्रेष्ठ स्तनों वाले अपने वक्ष के द्वारा नायक के वक्ष का संवाहन करती है। वसुदेवहिंडी और बृहत्कथाश्लोकसंग्रह दोनों ही रचनाएँ गुणाढ्य की बड्डकहा (आजकल अनुपलब्ध) से प्रभावित जान पड़ती हैं। इस संबन्ध में आगे चलकर चर्चा की जायगी। ३. इसे पवियारसुख (प्रविचारसुख-संभोगसुख) भी कहा गया है। वसुदेवहिण्डी, पृ. १३३ ४. वसुदेवहिंडी, पृ० २४१ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काम पुरुषार्थ की मुख्यता हरिभद्रसूरि ने काम की मुख्यता प्रतिपादन करते हुए उसके अभाव में धर्म और अर्थ की सिद्धि का निषेध किया है। समराइच्चकहा में समरादित्य अशोक, कामांकुर और ललितांग' नामक मित्रों के साथ कामशास्त्र की चर्चा करता है, उद्यानों में रमण करता है, हिंडोलों में झूलता है, कुसुमों की शैया रचता है और विषमबाण (कामदेव) की स्तुति करता है। चारों मित्र कामशास्त्र की चर्चा करते हुए काम को संपूर्ण रूप से त्रिवर्ग का साधन मानते हैं । कामशास्त्रोक्त प्रयोग जानने वाला पुरुष ही अपनी स्त्री के चित्त का सम्यक् प्रकार से आराधन कर सकता है, और पुत्रोत्पत्ति होने से वह विशुद्ध दान आदि क्रिया के कारण महान् धर्म की उपलब्धि का भागी होता है । यदि स्त्री के चित्त का आराधन न किया जाये तो उसका संरक्षण नहीं हो सकता । तथा, स्त्री का संरक्षण न होने से शुद्ध संतति (पुत्र) के अभाव में, नरकगमन के कारण विशुद्ध दान आदि क्रिया संपन्न नहीं हो सकती । इससे महान् अधर्म का भागी होना पड़ता है । काम के अभाव में धर्म और अर्थ की प्राप्ति नहीं होती और ऐसा न होने से पुरुषार्थता ही निष्फल है । प्रेमपत्र-व्यवहार __ साधु-साध्वियों के सम्पर्क न होने के सम्बन्ध में जैन आचार-ग्रन्थों में कठोर नियमों का विधान है, फिर भी उनके बीच पत्राचार को रोकना असंभव हो जाता था। कामोद्दीपक वर्षा ऋतु का आगमन देखकर किसी साधु का मन विचलित हो जाता है और वह प्रेमपत्र द्वारा अपने मन की दशा अभिव्यक्त करता है यह समय मयूरों को आनन्द देने वाला है, मेघ आकाश में छाये हुए हैं । हे मित, मधुर मंजुभाषिणी ! जो अपनी प्रिया के साथ हैं, वे कितने बड़भागी हैं। पत्र का उत्तर देखिए१. वसुदेवहिंडी (पृ०९-१०) में गर्भवास के दुख के उदाहरण स्वरूप ललितांग का आख्यान __ आता है। कुमारपालप्रतिबोध (प्रस्ताव३) में शीलवती कथा के अंतर्गत अशोक, ललितांग और कामांकुर के नाम आते हैं। परिशिष्ट पर्व (३.१९.२१५.७५) भी देखिए । २. अध्याय ९, पृ० ८६५-६६ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ "रात्रि में चांदनी छिटकी हुई है, वामा का मार्ग निरुद्ध है, मदन दुर्धर्ष है, शरदऋतु कितनी सुहावनी लग रही है, फिर भी समागम का कोई उपाय नहीं' !" साधु-साध्वी का प्रेमपूर्ण संवाद साधु — तुम आज भिक्षा के लिए नहीं गयी ? साध्वी—आर्य ! मेरा उपवास है । "क्यों ? मोह का इलाज कर रही हू । लेकिन तुम्हारा क्या हाल है ? मैं भी उसी का इलाज कर रहा हूँ । ( तत्पश्चात् दोनों में प्रव्रज्या के संबन्ध में बातचीत होने लगती है ) साधु —तुमने क्यों प्रव्रज्या ग्रहण की ? साध्वी-पति के मर जाने से । " मैंने पत्नी के मर जाने से ।" ( साधु उसे स्नेह - भरी दृष्टि से देखता है) "क्या देख रहे हो ?" साधु - दोनों की तुलना कर रहा हूँ । हँसने, बोलने और सौन्दर्य में तुम मेरी भार्या से बिल्कुल मिलती जुलती हो । तुम्हारा दर्शन मेरे मन में मोह पैदा करता है । साध्वी — मेरा भी यही हाल है । साधु- वह मेरी गोदी में सिर रखकर मर गयी । यदि वह मेरी अनुपस्थिति में मरती तो कदाचित् देवताओं को भी उसके मरने का विश्वास न होता । तुम वह कैसे हो सकती हो ? सिंहकुमार और कुसुमावली की प्रेम कथा राजकुमार सिंह अपने मित्रों से परिवेष्टित हो वसंतक्रीड़ा के लिए क्रीड़ा सुन्दर उद्यान में पहुँचता है। राजकुमारी कुसुमावली भी अपनी सखियों के साथ वहाँ आई हुई है । दोनों की आँखें चार होती हैं । कुसुमावली की सखी कुमार का १. काले सिही - णंदिकरे, मेहनिरुद्धम्मि अंबरतलम्भि | मित- मधुर - मंजुभासिणि, ते धन्ना जे पियासहिया || कोमुतिणिसा य पवरा, वारियवामा य दुद्धरो मयणो । रेहंति य सरयगुणा, तीसे य समागमो णत्थि ॥ -- निशीथभाष्य ६, २२६३-४ २ निशीथविशेषचूर्णी, प्राकृत साहित्य का इतिहास, पृ. २४३. Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ स्वागत करती है । माधवी पुष्पों की मालाके साथ सोने की तश्तरी में उसे पान देती है। मन में कुमार का स्मरण करती हुई कुसुमावली घर लौटती है । दीर्घ निश्वास छोड़ती हुई वह शैया पर आरूढ़ होती है । कुछ भी उसे अच्छा नहीं लगता । चित्रकर्म और अंगराग उसने त्याग दिये हैं, तथा आहार और अपने भवन तक में उसकी रुचि नहीं रह गयी है। शुक-सारिका को पढ़ाना गृहकलहंस के साथ क्रीड़ा करना, गृहदीर्घिका में स्नान करना, वीणा बजाना और पत्रच्छेद्य को उसने तिलांजली दे दी है। ___ अपनी प्रिय सखी मदनलेखा के साथ उसने बाल-कदलीगृह में प्रवेश किया वहाँ सुंदर सेज तैयार की गयी । मदनलेखा सुन्दर कथालापों से उसका मनोरंजन करती हुई तालवृन्त से पवन करती खड़ी रही। राजकुमारी अपनी प्रिय सखी से मन की बात न छिपा सकी। __ कुसुमावली ने राजहंस के वियोग में उसके दर्शन के लिए उत्सुक एक राजहंसिनी चित्रित की। उसपर द्विपदीखण्ड' लिखा । मदनलेखा राजहंसनी और प्रियंगुमंजरी के कर्णावतंस ले और नागलता के पत्रयुक्त बहुमूल्य तांबूल लगाकर राजकुमार के समीप गयी। राजकुमार ने मदनलेखा का स्वागत किया। प्रियंगुमंजरी को कान में धारण किया, तांबूल को ग्रहण किया और प्रसन्नता पूर्वक राजहंसनी को हाथ में ले, उत्सुकता से द्विपदीखण्ड को पढ़ने लगा । कुसुमावली के कौशल से उसे आनन्द हुआ । पत्रच्छेद्य कर्तरी से नागलता के पत्र को काट; उसने राजहंसिनी की अवस्था के अनुरूप राजहंस चित्रित कर उसपर निम्नलिखित गाथा लिखी "मृत्यु के बाद भी अपनी प्रिया के साथ उसका मिलन नहीं होगा, यह विचार कर यह राजहंस अनुकूल अवसर की प्रतीक्षा करता हुआ, किसी तरह अपने प्राणों को धारण कर रहा है !" बहुमूल्य वस्त्राभूषणों से सज्जित हो कुसुमावली ने विवाहमंडप में प्रवेश किया और बड़ी धूमधाम के साथ दोनों का विवाह हो गया । १. इसमें चार पंक्तियाँ होती हैं। प्रत्येक में २८ मात्रायें, ६, ४+५ और गुरु होता है। प्रथम और अंतिम पांच चतुर्मात्राओं में या तो अगण होता है और या सभी वर्ण ह्रस्व होते है २. समराइचकहा २, पृ० ७८-१०१ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २३ कुवलयचन्द और कुवलयमाला की प्रेमकथा त्रैलोक्यसुन्दरी राजकुमारी कुवलयमाला के रूप-सौन्दर्य की प्रशंसा सुनकर कुवलयचन्द्र मदनशर से पीड़ित हो उसे प्राप्त करने का उपाय सोचता है । असंख्य पर्वतों, प्रभूत देशों, नदियों एवं महानदियों और अटवियों को लांघ तथा अनेक दुखों को परिवहन कर वह विजयानगरी में प्रवेश करता है । उसके मन में आता है कि क्या स्त्रीवेश धारण कर राजा के कन्या-अन्तःपुर में प्रविष्ट हो त्रैलोक्यसुन्दरी के मुखचन्द्र का अवलोकन करे । फिर सोचता है, ऐसा करना ठीक नहीं क्योंकि यह सत्पुरुष के लिए शोभास्पद नहीं, और राजविरुद्ध भी यह है । यदि किसी की भुजाओं में बल है तो स्त्रीवेश वह क्यों धारण करे ? तो फिर क्या किया जाये ? मायामय बुद्धि से, किसी सखी द्वारा संकेत प्राप्त कर, अश्व पर आरूढ़ हो, रात्रि के समय उसका अपहरण क्यों न कर लिया जाये ? लेकिन यह उचित नहीं । लोग कहेंगे कि सुन्दरी का अपहरण कर वह कहाँ चला ? चोर समझकर वे मेरी निंदा करेंगे और यह बड़ा कलङ्क कहा जायेगा । तो क्या लज्जा को त्याग, उसे आज ही प्राप्त करने के लिए राजाओं के सम्मुख जा कर गिड़गिड़ाऊं? यह भी ठीक नहीं। ऐसा करने से मदन-बाण से घायल हुआ मैं निर्लज्ज समझा जाऊंगा । तो फिर एक ही उपाय है कि अपनी विषम कृपाण द्वारा योद्धाओं को परास्त कर और दृप्त हस्ती के कुंभस्थल का विदारण कर, जयश्री की भाँति उसे मैं बलपूर्वक उठा लाऊ । ___ कुवलयमाला राजकुमार की परीक्षा के लिए कर्णाभूषण के अन्दर पत्रच्छेद्य द्वारा बनायी हुई राजहंसिनी पर द्विपदीखण्ड लिखकर अपनी दूती के हाथ उसके पास भेजती है । किसी विचित्र लिपि में सूक्ष्म अक्षरों में इस पर लिखा हुआ थाअभिनव दृष्ट प्रिय के शुभ संगम और स्पर्श की इच्छा करती हुई, दुस्सह विरह के दुःख से संतप्त, करुण आक्रंदन करती हुई, चंचल नयनों के अश्रुजल के पूर से सिक्त और नियंत्रित श्रेष्ठ राजहंसिका का अपने प्रिय हंस के साथ मिलाप कब होगा ? राजकुमार ने कोई प्रतिसन्देश न भेज केवल अपनी प्रेमिका के कलाकौशल की सराहना की। कुवलयचन्द्र अपने सखाओं के साथ किसी रमणीय उद्यान में पहुँचता है। उधर कुवलयमाला भी अपनी सखियों के साथ वहाँ आती है। कलहंसिनियों में राजहंसी की भाँति, ताराओं में शशिकला की भाँति, कुमुदनियों में कमलिनी की Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाँति, वनलताओं में कल्पलता की भाँति, अप्सराओं में तिलोत्तमा की भाँति और युवतियों में रति की भाँति कुवलयमाला के रूप-सौन्दर्य से अतिशय आकृष्ट राजकुमार उसके निर्माता प्रजापति के कला-कौशल की भूरि-भूरि प्रशंसा करने के सिवाय और कर ही क्या सकता था ? आखिर वह भी दिन आ पहुँचा जब कि मुनिवर की भविष्यवाणी के अनुसार, हस्ती को वश में करने वाले और समस्यापूर्ति द्वारा मनोरंजन करने वाले कुवलयचन्द्र के साथ शुभ मुहूर्त में पुरुषद्वेषिणी त्रैकोल्यसुन्दरी कुवलयमाला का विवाह हो गया ! वासगृह में रत्नों से विनिर्मित मुक्ताओं से शोभित धवल सेज बिछायी गयी । कुवलयमाला ने अपनी सखियों का संग छोड़ वासगृह में प्रवेश किया तो सखियाँ ठठोली करने लगीं। कुवलयमाला--हे प्रिय सखियों ! वनमृगी की भाँति मुझे अकेली छोड़ तुम कहाँ चली ? सखियाँ -हे सखि ! हमें भी अकेली रहने का यह सौभाग्य प्राप्त हो ! कुवलयमाला_हे प्रिय सखियों ! रोमांच से कम्पित, स्वेदयुक्त ज्वरपीड़ित दशा में मुझे छोड़कर मत जाओ । सखियाँ ---तुम्हारा पति स्वयं वैद्य है, वह तुम्हारे ज्वर की चिकित्सा कर देगा। तत्पश्चात् लज्जा और भय से कांपती हुई उसने कहा-तो लो, मैं भी चली। उसकी साड़ी का पल्ला पकड़ कुवलयचन्द्र ने पूछा-कहाँ ? कुवलयमाला-छोड़ दो मुझे, अपनी सखियों के साथ जा रही हूँ । कुवलयचन्द्र--- यदि तू जाना ही चाहती है तो तुझे कौन रोक सकता है । लेकिन तूने जो मेरी चोज चुरा ली है, उसे वापिस देती जा । "कौनसी चीज चुरा ली है ?" "मेरा हृदय ।” "कोई गवाह है?" "तुम्हारी सखियाँ ।" "बुलाओं उन्हें । वे तुम्हें उत्तर देंगी। उन्हें बुलाओं, नहीं तो मुझे छोड़ दो।" Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “सुन्दरी ! जरा ठहर, मैं अभी तेरी सखियों को बुलाता हूँ।" सखियाँ आ गई। कुवलयचन्द्र-देखो, जब तुम्हारी यह सखी जाने लगी तो मैंने उसे रोककर कहा कि मेरा हृदय तो वापिस देती जा । वह कहती है कि इसका निबटारा तुम लोग करोगी। सखियाँ (कुवलयमाला को लक्ष्य करके)- क्या यह ठीक है? कुवलयमाला-हाँ, बस, इतनी ही बात है। सखियाँ -अरे, यह तो बड़ा भारी विवाद है । इसका फैसला तो श्री विजयसेन राजा और नगर के अग्रगण्य ही कर सकते हैं । कुवलयमाला—नहीं, तुम ही फैसला करो कि मैंने इनका कुछ ले लिया है या इन्होंने मेरा। सखियाँ-लो, हम साफ-साफ कह देती हैं, कान लगा कर सुनो। उन्होंने तुम्हारा और तुमने इनके प्रिय हृदय का अपहरण किया है । ऐसी हालत में जुआरी और चोर की जो दशा होती है, वही तुम्हारी भी होगी। कुवलयमाला—(कुवलयचन्द्र को लक्ष्य करके) तू चोर है ।। कुवलयचन्द्र—(कुवलयमाला को लक्ष्य करके) चोर तू है, मैं नहीं।' इस प्रकार की अनेक रोचक प्रणयकथाएँ प्राकृत जैन कथा-साहित्य में उपलब्ध हैं। लीलावती और उसकी सखियों की प्रेमकथा __ कौतूहल की लीलावई का उल्लेख किया जा चुका है । जैन प्राकृत कथाग्रंथ की भाँति यह कथा-ग्रंथ धार्मिक अथवा उपदेशात्मक नहीं है । इसमें प्रतिष्ठान के राजा सातवाहन और सिंहलदेश की राजकुमारी की प्रेमकथा का वर्णन है । राजा विपुलाशय और अप्सरा रंभा की कन्या कुवलयावली गंधर्वकुमार चित्रांगद के प्रेमपाश में पड़कर उसके साथ गंधर्व विवाह कर लेती है । यह जानकर राजा विपुलाशय चित्रांगद को शाप देता है जिससे वह राक्षस बन जाता है । राजकुमारी लीलावती की दूसरी सखी विद्याधरकन्या महानुमति का सिद्धकुमार माधवानिल से प्रेम हो जाता है। घर लौटने पर वह उसके विरह से १. कुवलयमाला पृ० १५८-७३ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकुल रहती है । इस बीच माधवानिल को उसका कोई शत्रु पाताललोक में भगाकर ले जाता है। सिंहलराज की कन्या लीलावती राजा सातवाहन का चित्र देखकर उस पर मोहित हो जाती है। अपने माता-पिता की अनुमति प्राप्त कर वह अपने प्रिय की खोज में निकल पड़ती है । तीनों विरहणियाँ गोदावरीतट पर मिलती हैं। इस समय राजा सातवाहन सिंहलराज पर आक्रमण कर देता है। राजा के सेनापति विजयानन्द को पता लगता है कि लीलावती गोदावरी के तट पर अपनी सखियों के साथ समय व्यतीत कर रही है । राजकुमारी लीलावती और सातवाहन, कुवलयावली और चित्रांगद, तथा महानुमति और माधवानिल तीनों विवाहसूत्र में बंध जाते हैं। कृति के अंत में कवि ने अपनी प्रिया को संबोधित करते हुए कहा है दीहच्छि कहा एसा अणुदियहं जे पति णिसुणंति । ताणं पिय-विरह दुक्खं ण होइ कइया वि तणुअंगी ॥ हे दीर्घाक्षि ! जो प्रतिदिन इस कथा को पढ़ते और सुनते हैं, उन्हें कभी भी प्रिय के विरहजन्य दुःख को अनुभव नहीं करना पड़ता। शृङ्गाररसप्रधान अनुपलब्ध आख्यायिकाएँ निशीथभाष्य में, लौकिक कामकथाओं में नरवाहणदत्त कथा, लोकोत्तर कामकथाओं में तरंगवती, मलयवती और मगधसेना; आख्यानों में धूर्ताख्यान, शृङ्गारकाव्यों (छलित) में सेतु तथा कथाग्रन्थों में वसुदेवचरित और चेटककथा का उल्लेख है । इन कथाओं के कहने वाले को काथिक कहा गया है। अन्य आख्यायिकाओं में बंधुमती ओर सुलोचना के नाम गिनाये गये हैं। तरंगवतीकथा . तरंगवती सातवाहनवंशी विद्वान् राजा हाल की विद्वत्सभा के सुप्रतिष्ठित कवि पादलिप्तसूरि की कृति है, यह अनुपलब्ध है । पैशाची भाषा में रचित बृहत्कथा १. ८. ..२३४३; १६. ५२११; तथा बृहत्कल्पभाष्य २२. २५६४।। २. सिद्धसेनाचार्य की तत्त्वार्थसूत्र की बृहद्वृत्ति में निर्दिष्ट, वसन्त रजतमहोत्सवस्मारक ग्रंथ, मुनि जिनविजयजी का कुवलयमाला नामक लेख पृ० २८४ । ३. कुवलयमाला (६, पृ० ३) में उल्लिखित । ... Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के रचयिता महाकवि गुणाढय भी हाल के प्रिय कवियों में से थे। उद्योतनसूरि ने कुवलयमाला की प्रस्तावना में सर्वप्रथम पादलिप्तसूरि का परिचय देते हुए उन्हें राजा सातवाहन की गोष्ठी की शोभा कहा है । इस कवि ने चक्रवाकयुगल की घटना से सुभग तथा सुन्दर राजहंसकृत हर्ष से संयुक्त, कुलपर्वत से निसृत गंगा की भाँति तरंगवती की रचना की। कवि धनपाल ने भी तिलकमंजरी में तरंगवती की उपमा प्रसन्न एवं गंभीर मार्ग वाली पुनीत गंगा नदी से दी है। तरंगवती का संक्षिप्त रूप तरंगलोला (खित्त तरंगवई) के नाम से प्रसिद्ध है जिसकी रचना आचार्य वीरभद्र के शिष्य नेमिचन्द्र गणि ने की है।' कौमुदी महोत्सव के अवसर पर तरंगवती का नगर के धनदेव सेठ के पुत्र पद्मदेव से प्रेम हो गया । धनदेव के पिता ने अपने पुत्र के लिए तरंगवती की मंगनी की, लेकिन तरंगवती के पिता ने इन्कार कर दिया। इस पर तरंगवतो ने भोजपत्र पर एक प्रेमपत्र लिख अपने प्रेमी के पास भिजवाया । अपनी सखिको साथ लेकर वह उसके घर पहुँची और वहाँ से दोनों नाव में बैठ नदी पार कर गये । दोनों ने गंधर्व विधि से विवाह कर लिया । जान पड़ता है कि तरंगवती जैन कथाग्रंथों में सर्वप्रथम शृङ्गारप्रधान कथाग्रंथ रहा होगा। उद्योतनसूरि और धनपाल के अतिरिक्त अनुयोगद्वारसूत्र (१३०) १. पादलिप्त की तरंगवई कहा के संबन्ध में नेमिचन्द गणि ने लिखा है पालितएण रइया वित्थरओ तह य देसिवयणेहिं । नामेण तरंगवई कहा विचित्ता य विउला य ।। कत्थइ कुलयाई मणोरमाई अण्णत्थ गुविलजुयलाई । अण्णत्थ छक्कलाई दुप्परिअल्लाई इयराणं ॥ न य सा कोई सुणेइ नो पुण पुच्छेइ नेव य कहेइ । वि उसाण नवर जोगा इयरजणो तीए किं कुणउ ॥ तो उव्वे (य) जणं गाहाओ पालितएण रइयाओ । देसिपयाई मोत्तु संखित्तयरी कया एसा । इयराण हियठाए मा होही सब्वहा वि वोच्छेओ । एवं विचिंतिऊणं खामेऊणं तयं सूरि --रजत महोत्सव स्मारक ग्रंथ, वही । ___ कुवलयमालाकार ने इस रचना का संकीर्णकथा के रूप में उल्लेख किया है। सुप्रसिद्ध जर्मन विद्वान अर्नेस्ट लायमान ने इसका जर्मन भाषान्तर प्रकाशित किया है। नरसिंह भाई पटेल द्वारा इस भाषांतर के गुजराती अनुवाद के लिए देखिए, जैन साहित्य संशोधक द्वितीय खण्ड । पूना, १९२४ । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮ दशवैकालिकचूर्णी (३, पृ०१०९) तथा जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के विशेषावश्यकभाष्य (गाथा १५०८) में इस महत्त्वपूर्ण कृति का उल्लेख मिलता है। मलयवती मलयवती के सम्बन्ध में विशेष जानकारी नहीं प्राप्त होती । मलयवती का उल्लेख अनंगवती, इन्दुलेखा, चारुमती, बृहत्कथा, माधविका शकुन्तिका, आदि रचनाओं के साथ भोजराज (९९३-१०५१ ई०) के सरस्वतीकण्ठाभरण में मिलता है।' मलयसुंदरी मलयसुन्दरी में महाबल और मलयसुन्दरी की प्रणयकथा का वर्णन है । इस ग्रंथ के कर्ता का नाम अज्ञात है । इसपर आचार्य धर्मचन्द्र (१४ वीं शताब्दी) ने संस्कृत में संक्षिप्त कथा की रचना की है।' वसुदेवचरित या वसुदेवहिण्डी आचार्य हेमचन्द्र के गुरु आचार्य देवचन्द्रकृत शांतिनाथचरित्र के उपोद्घात के उल्लेख पर से पता लगता है कि भद्रबाहुसूरि ने अत्यन्त सरस कथाओं से युक्त सवा लाख श्लोकप्रमाण वसुदेवचरित कथाग्रंथ की रचना की थी, जो आजकल अनुपलब्ध हैं। किन्तु कुछ विद्वानों का कहना है कि उपलब्ध वसुदेवहिंडी में वसुदेव के भ्रमण (हिण्डी) की कथा है अतएव. वसुदेवहिंडी और वसुदेवचरित दोनों को एक ही मानना चाहिए। गुणाढ्य की बड्डकहा (बहत्कथा) का अनुकरण करने वाला यह कथा-ग्रन्थ दो खण्डों में उपलब्ध है । प्रथम खण्ड के प्रणेता संघदासाणि वाचक ने वसुदेवहिण्डी को गुरु परंपरागत मानकर उसका वसुदेवचरित के रूप में उल्लेख किया है। दूसरा खण्ड अप्रकाशित है । इसके रचयिता धर्मसेनगणि महत्तर ने इस खण्ड के आरम्भ में अपनी रचना को आचार्य परंपरागत स्वीकार कर, लताविज्ञान की उपमा देते हुए इसे धर्म-अर्थ-काम से पुष्पित, आयास के फलभार से नमित, १. प्राकृत साहित्य का इतिहास, पृ०६५९ २. वही, पृ० ४७६ ३. मुनि जिनविजय, वसंत रजत महोत्सव स्मारक ग्रन्थ, पृ० २६० ४. प्रोफेसर भोगीलाल सांडेसरा, वसुदेवहिंडी के गुजराती भाषांतर का उपोद्घात, पृ० ३-४ आत्मानन्द जैन ग्रन्थमाला, भावनगर, वि० सं० २००३ । ५. वसुदेवहिंडी, पृ० १, २, २६ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शृङ्गार वस्त्र के ललित किसलय से व्याप्त, सुतन की शोभा से अह्लादित मधुकरों रूप विविध गुणों से सेवित वसुदेवचरित के रूप में स्वीकार किया है ।' वसुदेवहिंडी के प्रथम खण्ड का रचनाकाल ईसवी सन् की लगभग ५वीं शताब्दी है, लेकिन गुणाढ्य की बृहत्कथा के नजदीक होने के कारण इसकी सामग्री ईसवी सन् की पहली शताब्दी के आसपास की जान पड़ती है । इसकी भाषा प्राकृत है । द्वितीय खण्ड या मध्यम खण्ड प्रथम खण्ड के कुछ बाद की रचना है । मुनि पुण्यविजयजी ने इसकी भाषा को शौरसेनी कहा है । इस खण्ड की रचना प्रथम खण्ड की पूर्ति के लिए नहीं की गयी, धर्मसेन गणि महत्तर ने अपनी कल्पना से इसकी रचना की है । " अन्य प्रेमाख्यान अन्य प्रेम कथाओं में भोजराज के शृङ्गार प्रकाश में उल्लिखित कुन्दनमाला, कामसेना विप्रलम्भ, शाखाविशाखोपाख्यान, शाखिनीसंवाद ईष्यालुविप्रलम्भ और सातकर्णिहरण का नाम लिया जा सकता है । २९ इस प्रकार हम देखते हैं कि प्राकृत जैन कथाओं में केवल वैराग्य रस की ही प्रधानता नहीं थी, शृङ्गार रस की प्रचुर मात्रा भी यहाँ देखने में आती है । बहुत सम्भव है कि उत्तरवर्ती काल से शृङ्गार प्रचुर तरंगवती, नरवाहनदत्तकथा, 9. (क) नमिऊण त विणणं संघमहारयणमंदरगिरिस्स (ख) २. ३. (ग) वोच्छामि सुणह णिहुया खंडं वसुदेव चरियस्स || तं सुहइमं धम्मत्थका मकुसुमियामा (यसो) फलभरियणमितसारं सिंगारवत्थललित किसलयाकुल सुतणसोभा व मुइयमधुकरविविहगुणविहतसेवियं वसुदेवचरितलताविताणं । निसुव्वति य आयरितपरंपरगतं अवितहं दिट्ठीवाद णीसंद अरहंतचक्किबलवासुदेव गणिताणुओगकमनिद्दिहं वसुदेवचरितं ति । वसुदेवहिंडी मध्यमखण्ड, मुनि पुण्यविजयजी की संशोधित हस्तलिखित प्रति पृ० २ ४ हैम्बर्ग यूनिवर्सिटी के प्राकृत के सुप्रसिद्ध विद्वान डाक्टर एल० आल्सडोर्फ ने वसुदेवहिंडी का विशेष अध्ययन कर बुलेटिन आफ द स्कूल आफ ओरिंटियल स्टडीज, जिल्द ८, १९३५-३७ में एक महत्वपूर्ण लेख लिखा है जिसमें उन्होंने इस रचना को गुणाढ्य की बृहत्कथा के नजदीक बताया है । तथा देखिए, उनका १९ वीं इन्टरनेशनल कॉंग्रेस आफ़ ओरिंटियलिस्ट, रोम में भाषण । वसुदेवहिंडी के प्रथम खण्ड का गुजराती अनुबाद डाक्टर भोगीलाल जे० सांडेसरा कृत, श्री जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर से वि०सं० २००३ में प्रकाशित हुआ है । स्वीडिश भाषा में भी इसका अनुवाद हुआ है । बी० राघवन, पृ० ८२६ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलयवती, मगधसेना बन्धुमती और सुलोचना जैसी प्रेमाख्यायिकाओं का अध्ययनअध्यापन कम हो गया और कालान्तर में इन कृतियों को नष्ट घोषित कर दिया गया । उल्लेखनीय है कि कामकथाप्रधान गुणाढ्य की बृहत्कथा पर अधारित वसुदेवहिंडी जैसी महत्त्वपूर्ण कृति की भी कोई शुद्ध प्राचीन प्रति उपलब्ध न हो सकी और जो मिली, उन्हीं के आधार पर आगमप्रभाकर मुनि पुण्यविजयजी के अथक परिश्रम से, वर्तमान में उपलब्ध, बीच-बीच में त्रुटित और अपूर्ण कृति ही प्रकाश में आ सकी ।' फ्रेंच विद्वान् प्रोफेसर एफ० लाकोते ने भारतवर्ष को कथा-कहानियों का एक प्रतिष्ठित देश बताते हुए यहाँ के प्रेमाख्यानों की लोकप्रियता पर जोर दिया है । ऐसे कितने ही प्रेमाख्यानों की रचना जैन और बौद्ध विद्वानों ने अपने उपदेशों का प्रचार एवं प्रसार करने के लिए की । इन आख्यानों ने उत्तरकालीन साहित्य में रोचक कथा - कहानियों का रूप धारण किया । ४. अर्थोपार्जन संबंधी कथाएँ ३० अर्थकथा की प्रधानता काम पुरुषार्थ की भाँति जीवन के लिए अर्थ भी आवश्यक है । हरिभद्रसूरि ने चार कथाओं में अर्थकथा को सर्वप्रथम स्थान दिया है । अर्थ के पश्चात् काम और अन्त में धर्मकथा का उल्लेख है । दशवैकालिक निर्युक्त में विद्या, शिल्प, विविध उपाय, साहस (अनिर्वेद), संचय, दाक्षिण्य, साम, दण्ड, भेद तथा उपप्रदान द्वारा अर्थ की सिद्धि बतायी गयी है । हरिभद्रसूरि ने असि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प, धातुवाद और अर्थोपार्जन के हेतु साम, दण्ड, भेद उपप्रदान आदि को अर्थ के साधन कहा है। जो अपने बाप दादाओं के धन का उपभोग करते हुए भी उसमें वृद्धि करता है, उसे अर्थ की अपेक्षा उत्तम, जो उस धन को क्षीण नहीं होने देता, उसे मध्यम और जो उसे खा-पीकर बराबर कर देता हैं, उसे अधम पुरुष कहा गया है । १. २. ३. ४. ५. मुनि चतुरविजय और मुनि पुण्यविजयजी द्वारा संपादित, भावनगर, १९३० देखिए, ऐसे ऑन गुणाढ्य एण्ड द बृहत्कथा, क्वार्टर्ली जरनल आफ द मीथिक सोसायटी, बंगलूर, १९२३ गाथा ३.१८९ । इनके उदाहरण के लिए देखिए, हारिभद्रीय टीका, पृ० १०६ । समराइच्चकहा, पृ० ३ वसुदेवहिंडी, पृ० १०१ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमप्रभसूरि के कुमारपालप्रतिबोध में श्रेष्ठीपुत्र सुन्दर की कथा आती है। परदेश जाकर धन कमाने के लिए अपनी माता की अनुमति मांगते हुए उसने निवेदन किया जो कायर पुरुष अपनी जवानी में धन नहीं कमाता, उसका जन्म बकरे के गले में लगे हुए स्तनों की भाँति निष्फल है। बुद्धिमान पुरुष को अपने बाप-दादाओं द्वारा कमाई हुई धन सम्पत्ति पर अवलम्बित नहीं रहना चाहिए । जैसे, समुद्र में यदि नदियों का जल न पहुचे तो वह सूख जाता है, इसी तरह यदि धन का उपार्जन न किया जाये तो अक्षय धन की राशि भी समाप्त हो जाती है । धनहीन पुरुष चाहे गुणी या गुणहीन, उसके सगे-संबंधी तक उसका अपमान करने लगते हैं। पंचतन्त्र का मित्रभेद नाम का प्रथम तन्त्र महिलारोप्य नगर के वर्धमानक नाम वणिक पुत्र की कथा से आरम्भ होता है जो प्रचुर-धन सम्पन्न होने पर अधिक धन अर्जन का अभिलाषी है । वह विचार करता है-- ऐसी कोई भी वस्तु नहीं जो धन द्वारा प्राप्त न हो सके । अतएव बुद्धि. मान पुरुष को चाहिए कि वह यत्नपूर्वक धन की सिद्धि करे । जिसके पास धन है, उसी के मित्र होते हैं, उसी के भाई बन्द होते हैं, वहीं पुरुष कहा जाता है और वही पंडित है । जो पूजने योग्य नहीं, उसकी पूजा होने लगती है, जिसके पास कोई नहीं आता, उसके पास लोग आने लगते हैं और जो वन्दनीय नहीं वह वन्दनीय हो जाता है यह सब धन का ही प्रताप है । धन होने से उम्र बीत जाने पर भी लोग तरुण कहे जाते हैं और जिसके पास धन नहीं ऐसे तरुणों को भी बूढ़ा समझा जाने लगता है अर्थोपार्जन के लिए चारुदत्त की साहसिक यात्रा श्रेष्टी चारुदत्त के निर्धन हो जाने के कारण जब वसन्ततिलका गणिका की माँ ने चारुदत्त को घर से निकाल दिया और १२ वर्ष बाद वह घर लौटकर १. देखिए, जगदीशचन्द्र जैन, 'रमणी के रूप' में 'नगरी के न्यायी पुरुष' कहानी पृ. २६-३२ न हि तद् विद्यते किञ्चित् यदर्थेन न सिद्धयति । यत्नेन मतिमांस्तस्मादर्थमेकं प्रसाधयेत् ॥ यस्यार्थास्तस्य मित्राणि यस्यार्थास्तस्य बान्धवाः । यस्यार्थाः स पुमाल्लोके यस्यार्थाः स च पण्डितः । पूज्यते यदपूज्योऽपि यदगम्योऽपि गम्यते । वन्द्यते यदवन्द्योऽपि स प्रभावो धनस्य च ॥ गत वयसामपि पुंसां येषामर्था भवन्ति ते तरुणाः । अर्थेन तु ये हीमा वृद्धास्ते यौवनेऽपि स्युः ।। निर्धन पुरुष को वेश्याओं के घर से निकाल दिये जाने का उल्लेख कथासरित्सागर (२.४.९०-६) में भी भाता है। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ आया तो द्वारपाल ने अन्दर जाने से उसे रोक दिया। पूछने पर पता लगा कि वह घर रामदेव का है और जब से भानु श्रेष्ठी का पुत्र चारुदत्त कुपूत हो गया और गणिका के घर रहने लगा, शोक से अभिभूत हो, गृहत्याग कर उसके पिता ने दीक्षा ग्रहण कर ली, और उसकी माँ अपना घर बेचकर अपने भाई के घर रहने चली गई । रामदेव को जब चारुदत्त के आगमन का पता लगा तो उसने कहा कि उस निर्लज्ज को उसके घर में न घुसने देना ! वह अपने मामा के घर पहुँचा जहाँ उसने दरिद्र वेश धारण किये दीन-हीन अवस्था में बैठी हुई अपने माँ के दर्शन किये। माँ अपने बेटे का आलिंगन कर रुदन करने लगी । मलिन वस्त्र धारण किये हुए श्रीविहीन चारुदत्त की पत्नी मित्रवती से भी न रहा गया । इतने दिनों बाद, बिछुडे हुए पति को प्राप्त कर उसकी आँखों से अविरल अश्रुधारा बहने लगी। बाजार से तुषकण मंगाकर भोजन तैयार किया गया। शेष रहे धन के विषय में पूछताछ करने पर माँ ने उत्तर दिया बेटा ! जमीन में गड़े हुए व्याज पर दिये हुए तथा सगे सम्बन्धियों को दिए हुए धन के विषय में मैं कुछ नहीं जानती । इतना जानती हूँ कि श्रेष्ठी के दीक्षा लेने के बाद दासी और दासों को दिया हुआ धन विनष्ट हो गया, सोलह हिरण्य कोटि तुझ पर खर्च हो गये और हम लोग जैसे-तैसे करके दिन काट रहे हैं । चारुदत्त-माँ ! लोग मुझे नालायक समझने लगे हैं, अब मैं यहाँ नहीं रहूँगा। मैं कहीं दूर चला जाऊँगा और धनार्जन करके ही वापिस लौटूंगा । बस तेरा आशीर्वाद चाहिए । माँ बेटा ! व्यापार करने में कितना कष्ट होता है, इसकी तुझे खबर नहीं । तू कहाँ रहेगा ? तू हमारे साथ रहे तो हम दोनों तेरा निर्वाह कर सकते हैं। चारुदत्त-माँ तू ऐसा मत कह । भानुश्रेष्ठी का पुत्र होकर मैं पराश्रित रहूँगा । ऐसा तू विचार छोड़ दे। मुझे जाने की आज्ञा दे । चारुदत्त अपने मामा सर्वार्थ के साथ धनोपार्जन के लिए चल पड़ा । दिशासंवाह ग्राम में पहुँचने पर मामा ने कहा कि वहाँ उसके पिता के घर काम १. बृहत्कथाश्लोकसंग्रह में इस प्रसंग पर सानुदास द्वारा प्रक्षपित द्रव्य का चार गुना धन कमाकर लौटने का उल्लेख है ततः प्रक्षपिताद् द्रव्यादुपादाय चतुर्गुणम् । गृहं मया प्रवेष्टव्यं न प्रवेष्टव्यमन्यथा ॥ १८. १७०, पृ. २३४ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३ करने वाले कुटुम्बीलोग रहते हैं; उनसे सुवर्ण लिया जा सकता है।' लेकिन चारुदत्त ने अपनी अंगूठी बेचकर खरोदे हुए माल से व्यापार किया । उसने रूई और सूत खरीदा लेकिन एक चूहा जलते हुए दीये की बत्ती ले भागा और रूई में आग लग जाने से रूई का ढेर जलकर खाक हो गया । चारुदत्त व्यापार से फिर किसी तरह पैसा इकट्ठा किया । इस पैसे से फिर रूई और सूत खरीद कर गाड़ियों में भरा और व्यापार के लिए चल दिया ! उत्कल देश में पहुँचा । वहाँ से कपास खरीद कर ताम्रलिप्ति की ओर बढा । रास्ते में एक अटवी पड़ी । सार्थ के लोग अटवी के बाहर ठहर गये । जब सब लोग विश्राम कर रहे थे तो अचानक ही कोलाहल सुनायी दिया। चोर अपने सींग और ढोल-ढपड़े बजाते हुए चले आ रहे थे । कारवां के व्यापारियों पर उन्होंने १. बृहत्कथाइलोकसंग्रह में मामा का नाम गंगदत्त है । वह ताम्रलिप्ति का निवासी था । यह नगर धूर्तों का आवास था । देशाटन करता हुआ सानुदास जब उसके घर पहुँचा तो उसने अपन भानजे का स्वागत करते हुए प्रतिज्ञा किये हुए धन से चौगुना धन लेकर अपनी माता के पास लौट जाने को कहा । सानुदास ने उत्तर दिया- धनार्जन के लिए मैंने दृढ़ प्रतिज्ञा की है, मामा ! मुझे कष्ट मत पहुँचाओ । गुरुजनों को चाहिए कि वे बालकों को कार्य करने में प्रवृत्त करें। फिर यदि कोई बालक स्वयं ही कार्य में जुट जाये तो उसे वहां से लौटने के लिए कैसे कहा जा सकता है ? मामाजी ! जो आपने कहा कि आपका धन लेकर मैं कुटुम्बियों का जीवन निर्वाह करूँ तो चार हाथ-पांव वाले मुझ जैसे व्यक्ति के लिए यह उपदेश उचित नहीं । जो अपने मामा का धन लेकर अपनी माता सहित जीता है, उसे अपने मामा और अपनी माता के साथ क्लीब ही समझना चाहिए सारेऽर्थे दृढनिर्बन्धं मा मां व्याहत मातुल || प्रवर्त्यो गुरुभिः कार्ये यत्र बालो बलादपि । स्वयमेव प्रवृत्तस्तैर्निवत्येंत कथं ततः ।। यच्चोक्तं मामकैरर्थैः कुटुम्बं जीव्यतामिति । एतत् सहस्तपादाय मादृशे नोपदिश्यते ॥ मातुलाद् धनमादाय यो जीवति समातृकः ननु मातुलमात्रैव क्लीबसत्त्वः स जीव्यते ।। १८-२३९-४२, पृ० २४०-४१ शुकसप्तति ( ७ ) में मातुल के धन को अधम कहा है उत्तमाः स्वगुणैः ख्याता मध्यमाश्च पितुर्गुणैः । अधमा मातुलैः ख्याता श्वशुरैश्चाधमाधमाः ॥ २. बृहत्कथाश्लोक संग्रह (१८. ३८७) में कहा है कि यह एक ऐसा माल है जिसे अल्प मूल्य में खरीदकर अधिक मूल्य में बेचा जा सकता है । ५ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धावा बोल दिया । व्यापारी इधर उधर भाग गये । चोरों ने गाड़ियों में भरे हुए माल को लूट लिया और बाकी बचे हुए में आग लगा दी । अपने आप को घोर संकट में पड़े हुए देख चारुदत्त का मन निराशा से व्याकुल हो उठा । लेकिन दूसरे ही क्षण उसके मन में विचार आया-यदि मुझे जल्दी ही घर पहुँचना है तो जो पुरुषार्थ मैंने आरम्भ किया है, उसे छोड़ देना होगा। लेकिन “लक्ष्मी का वास उत्साह में है । दरिद्र व्यक्ति मृतक के समान है; स्वजन सम्बन्धियों द्वारा अपमानित होता हुआ ही वह तिरस्कृत जीवन जीता है",' अतएव घर लौटकर जाना ठीक नहीं । चारुदत्त ने साहस बटोरकर फिर प्रस्थान किया । प्रियंगुपट्टन पहुँचा, जहाँ सुरेन्द्रदत्त नाविक से उसकी मुलाकात हुई । यहाँ से वह चीन देश की ओर चला । यानपात्रों को सजाया गया, उनमें विविध प्रकार का माल भरा, सांयात्रिकों के साथ बहुत से नौकर-चाकर लिये, तथा राजा से 'पासपोर्ट' (राजशासन का पट्टक) प्राप्त किया । तत्पश्चात् अनुकूल वायु के बहने पर, शकुन देख, चारुदत्त यानपात्र में सवार हो गया । धूप जलाई गई और जहाज का लंगर छोड़ दिया गया । जहाज चीन देश की ओर चल पड़ा । सर्वत्र जल के सिवाय और कुछ नज़र नहीं आ रहा था। चोन में व्यापार करने के बाद चारुदत्त ने सुवर्णभूमि के लिए प्रस्थान किया। तत्पश्चात् कमलपुर यवन ( यव ) द्वीप (जावा), सिंहल और बब्बर (बार्बरिकोन) और यवन (सिकन्दरिया) की यात्रा करते हुए जहाज सौराष्ट्र की ओर बढ रहा था कि तट पर पहुँचने से पहिले वह जल मग्न हो गया। बड़ी कठिनता से चारुदत्त के हाथ एक पट्ट लगा और लहरों की चपेटें खाता हुआ, सात रात के बाद वह उम्बरावती पहुँचा । इतने समय तक समुद्र में रहने के कारण समुद्र के खारे जल से उसका शरीर सफेद पड़ गया था । १. उच्छाहे सिरी वसति, दरिदो अ मयसमो, सयणपरिभूमो य धीजीवियं जीवइ । वसुदेवहिंडी, पृ० ११५ २. बृहत्कथाश्लोकसंग्रह (१८,२५२) में निम्न वर्णन है तरङ्गजलदालयं मकरनकचक्रग्रह पिनाकधरकन्धरप्रभमनन्तमप्रक्षयम् । महार्णवनभस्तलं लवणसिन्धुनौछद्मना वियत्पथरथेन तेन वणिजस्ततः प्रस्थिताः ।। ३. डाक्टर मोतीचन्द्र ने ख्मेर से इसकी पहचान की है। सार्थवाह, पृ० १३१ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारुदत्त फिर भटक गया । कोई त्रिदण्डी साधु उसे कीमिया बनाकर देने का लोभ देकर गाँव से श्वापदबहुल अटवी में ले गया। रात्रि के समय गमन । दिन में पुलिंदों के भय से छिपकर रहना । पर्वतों की गुफा में पहुँचे । वहाँ साधु ने तृणाच्छादित एक अंध कूप में ढकेल दिया । किसी तरह वहाँ से निकला तो जंगली मैंसे और भयंकर अजगर से अपनी रक्षा करने में समर्थ हो सका । लेकिन चारुदत्त ने हिम्मत न हारी । उसने थोड़ी-सी पूँजी जोड़कर फिर से धन कमाने का संकल्प किया । अब की बार वह परदे, आभूषण, महावर, लाल वस्त्र और कंकण आदि माल जहाज में भरकर सार्थ के साथ चल पड़ा । वह हूण, खस और चीनियों के देश में उतरा। वहाँ से वैताड्य पर्वत की तहलटी में डेरा डाला । यहाँ तुंबरू-चूर्ण की पोटलियाँ कमर में बांध और अपने माल की गठरियों को कांख में दबा, व्यापारी लोगों ने शंकुपद से पर्वत शिखर पर आरोहण किया । इस प्रकार शंकुपथ से पर्वत को पार कर वे लोग इषुवेगा ( वंक्षु-आमूदरिया ) नदी पर आये । तीक्ष्ण धार वाली इस अथाह नदी को तिरछे तैरकर भी पार नहीं किया जा सकता था । इसे पार करने के लिए वेत्रपथ का आश्रय लिया । इस पथ से नदी पार करने वाले को अनुकूल वायु चलने तक प्रतीक्षा करनी पड़ती थी । उत्तरी वायु बहने पर स्वभाव से मृदु और स्थिर वेत्रलताएँ दक्षिण की ओर झुक जाती थीं । उस समय उनकी पोरों का अवलम्बन ग्रहण कर दक्षिण तट पर पहुँचा जा सकता था। इसी तरह दक्षिण वायु के बहने पर वेत्रलताओं के सहारे नदी के उत्तरी तट पर पहुँच सकते थे । चारुदत्त और उसके साथी दक्षिण वायु के बहने की प्रतीक्षा करते रहे और दक्षिण वायु चलने पर वेत्रलताओं की सहायता से नदी के उत्तरी तट पहुँच गये । ___ यहाँ से टंकण देश के लिए प्रस्थान किया । यहाँ पहुँचकर नदीतट पर अलग स्थानों पर माल रक्खा । फिर लकड़ियाँ एकत्र कर उनमें आग लगा दी और वहाँ से हटकर एक ओर बैठ गये । धुआँ देखकर टंकण लोग वहाँ आ गये । रक्खा १. पर्वत पर आरोहण करते हुए पत्थर के शंकुओं-खूटियों को पकड़कर चढ़ते समय, पसीने के कारण हार्यो के गीले हो जाने से, खूटियों के हाथ से छुटकर, नीचे बहते हुए गंभीर द्रह में गिर जाने का अन्देशा रहता था । इसलिए गीले हाथों में रूक्षता लाने के लिए तुंबरू का चूर्ण मला जाता था । २. बृहत्कथाइलोकसंग्रह (१८. ४३२) में गर्दन में तेल के कुतुप (कुप्पे) बांधकर वेत्रमार्ग द्वारा पर्वत आरोहण किया गया है। ३. बृहत्कथाश्लोकसंग्रह (१८.. ४५२-५४) में किरात लोग अपने बकरे बेचने के लिए आते हैं। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ हुआ माल उन्होंने ले लिया उन्होंने भी आग जलायी और वहाँ बकरों को बांध और फल रखकर अपने स्थान पर आ बैठे । अपने माल के बदले चारुदत्त के साथियों ने यह माल ले लिया । तत्पश्चात् सब लोग सीमानदी के तट की ओर चले । यहाँ से आँखों पर पट्टी बांध बकरों की सवारी की । यह मार्ग अजपथ कहलाता था । इस मार्ग से एकदम खड़ी और सीधी चढ़ाई वाले वज्रकोटिसंस्थित पर्वत पर पहुँचे । शीत हवा लगने के कारण बकरे खड़े हो गये । सबने आँखों की पट्टी खोल दीं, और बकरों पर से उतर आये । यहाँ से रत्नों का संचय करने के लिए रत्नद्वीप जाना था । इस द्वीप में पहुँचना बहुत दुष्कर था । बकरों को मारकर उनकी रुधिरमय खाल से भस्त्रा तैयार की गई । अपनी कमर में छुरी बांध व्यापारियों ने भस्त्रा के अन्दर प्रवेश किया । तत्पश्चात् रत्नद्वीप से आनेवाले और वहाँ आकर व्याघ्र, रीछ और भालू आदि जानवरों का मांस भक्षण करने वाले महाकाय भारुंड पक्षी, भस्त्रा को मांसपिंड समझ, उसे अपनी चोंचों से उठा रत्नद्वीप ले गये । चारुदत्त की भस्त्रा को दो पक्षियों ने उठाया और वे गेंद की भाँति उसे हिलाते-डुलाते और उछालते हुए आकाश में उड़ गये । दोनों में लड़ाई-झगड़ा होने लगा और इस झगड़े में चारुदत्त की भस्त्रा उनके मुँह से छूटकर एक महान् द्रह में गिर पड़ी । जल में गिरते ही अपनी कमर में बंधी हुई छुरी से भस्त्रा को चीर, चारुदत्त बाहर निकला और तैर कर तालाब के किनारे आ गया । उसने आकाश की ओर देखा तो पक्षी उसके साथियों को अपनी चोंचों में उठाये उड़े जा रहे थे । चारुदत्त सोचने लगा- -क्या अब मृत्यु ही एक शरण है ? पुरुषार्थ में मैंने कोई कमी नहीं की, फिर भी सफलता क्यों नहीं ? मरण का आलिंगन करने के लिये वह एक पर्वत पर चढ़ा । वहाँ भुजा उठाकर एक पैर से तप करते हुए साधु को देखा । चारुदत्त ने फिर साहस बटोरा । फिर से वह जी-तोड़ परिश्रम पुरुषार्थ करने लगा | एक दिन चारुदत्त को अपनी माँ का खच्चरों, गधों, ऊँटों और गाड़ियों में माल भरकर, साथ उसने चंपानगरी में प्रवेश किया । राजा स्मरण हो आया । बहुत-से अपनी पुत्री गंधर्वदत्ता के ने चारुदत्त का सरकार Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया । उसे देखकर मामा की खुशी का ठिकाना न रहा। उसने कहाबेटे ! तूने कुल को उज्ज्वल कर दिया है ! तू बड़ा पुरुषार्थी है ! तत्पश्चात् नगर के अग्रगण्य व्यापारियों द्वारा सन्मानित हो, चारुदत्त ने अपने घर में प्रवेश कर माँ को प्रणाम किया और अपनी पत्नी को आलिंगन पाश में बाँध लिया ।' एक बार की बात है, कृष्ण का पुत्र प्रद्युम्न अपने दादा वसुदेव से वार्तालाप कर रहा था । प्रद्युम्न बात-बात में पूछ बैठा-दादाजी, आपने सौ वर्ष परिभ्रमण कर मेरी अनेक दादियों को प्राप्त किया है । लेकिन जरा अपने पोते शंब के अंतःपुर की ओर भी नजर डालिए । भाई सुभानु के लिए एकत्र की हुई समस्त कन्याओं का विवाह शंब से हो गया है ! वसुदेव अपने पोते की 'छोटा मुँह, बड़ी बात' सुनकर क्रोध में भर गया । प्रद्युम्न को संबोधित करते हुए वसुदेव ने कहा-'अरे प्रद्युम्न ! क्या तू नहीं समझता कि शंब कूपमंडूक है ? केवल स्वयं प्राप्त भोगों को भोगकर वह संतुष्ट हो गया है । लेकिन जानता है कि देश-विदेश में परिभ्रमण करके मैंने जिन सुख-दुःखों का अनुभव किया है, वह अन्य किसी के लिए दुष्कर है । इभ्यपुत्रों की प्रतिज्ञा किसी नगर में दो इभ्यपुत्र रहते थे। एक अपने मित्रों के साथ उद्यान से नगर में जा रहा था । दूसरा रथ में सवार हो, नगर से बाहर जा रहा था । नगर द्वार पर दोनों की भेंट हुई । गर्व के कारण दोनों में से कोई भी पीछे हटने को तैयार नहीं था। दोनों में वाद-विवाद होने लगा । एक ने कहा-पिता के द्वारा अर्जित धन पर क्या गर्व करते हो ? स्वयं अर्जित करके लाओ, तो समझें ? दूसरा---और क्या तुम्हारा धन तुम्हारे पिता का कमाया हुआ नहीं है ? स्वयं कमाकर दिखाओ ! दोनों के गर्व को चोट पहुँची। दोनों ने प्रतिज्ञा की-जो परिवार के बिना, अकेले ही, बारह वर्ष बाद बहुत-सा धन अर्जित करके वापिस आयेगा, उसकी अपने मित्रों सहित दूसरा गुलामी करेगा। यह लिखकर उन्होंने एक सेठ को दे दिया । १. वसुदेव हिंडी, पृ० १४४-५४ २. बही, पृ० ११० Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ पहला इभ्यपुत्र अपने गर्व की रक्षा के लिए वहीं से धनार्जन के लिए रवाना हो गया । विदेश में समुद्र यात्रा द्वारा व्यापार करके उसने बहुत-सा धन अर्जित किया और अपने मित्रों को भेजा । दूसरा अपने मित्रों के अनुरोध पर भी जाने के लिए तैयार न हुआ । वह सोचता रहा -- जितना धन वह बहुत समय में कमायेगा, उतना मैं अल्प समय में कमा लूँगा । किन्तु बारहवें वर्ष में, पहले इभ्यपुत्र का आगमन सुनकर दूसरा इभ्यपुत्र दुखी होकर सोचने लगा- - दुखों से भयभीत और विषयों की लोलुपता के कारण मैंने बहुत-सा समय ऐसे ही बिता दिया. अब एक वर्ष में मैं कितना कमा सकूँगा ? अतएव शरीर का त्याग करना ही श्रेयस्कर है ।' दो व्यापारी मित्र अपना माल लेकर बनिज - व्यापार के लिए देश-देशान्तर में परिभ्रमण करने वाले सार्थवाहों और पोत-वणिकों की अनेक कहानियाँ प्राकृत जैन कथा साहित्य में उपलब्ध होती हैं । कुवलयमाला में थाणु और मायादित्य नामक दो मित्रों की कथा आती है । दोनों में वार्तालाप हो रहा है । थाणु- - मित्र ! लोक में धर्म, अर्थ और काम इन तीन पुरुषार्थों में से जिसके एक भी नहीं, उसका जीवन जड़वत् है । हम लोगों के धर्म तो है नहीं, क्योंकि हम दान और शील से रहित हैं । अर्थ भी दिखायी नहीं देता और अर्थ के अभाव में काम कहाँ से हो सकता है ? ऐसी हालत में हे मित्र ! हमारा जीवन तराजू के अग्रभाग में लटका हुआ है, अतएव हम लोग क्यों न कहीं चलकर अर्थ का उपा र्जन करें जिससे शेष पुरुषार्थों की सिद्धि हो । मायादित्य — तो मित्र ! बनारस क्यों न चला जाये ? वहाँ पहुँचकर हम जुआ खेलेंगे, सेंध लगायेंगे, ताले तोड़ेंगे, राहगीरों को लूटेंगे, लोगों की गांठ कतरेंगे, कूट-कपट खेलेंगे, ठगविद्या करेंगे । और भी ऐसे-ऐसे कार्य करेंगे जिससे धन की प्राप्ति हो । १. वसुदेवहिंडी, पृ० ११६-१७ । यहाँ बताया गया है कि तप के कारण तपस्वी जन पूजाप्रतिष्ठा के पात्र होते हैं । इस कहानी की राजोवाद जातक (१५१) कहानी से तुलना कीजिए । देखिए, जगदीशचंद्र जैन, 'प्राचीन भारत की कहानियाँ' में 'दोनों में बड़ा कौन' ? कहानी । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९ थाणु--ऐसा करना ठीक नहीं । देखो, निर्दोष अर्थोपार्जन के निम्नलिखित उपाय हैं-देशगमन, मित्रता करना, राजसेवा, मान-अपमान में कुशलता, धातुवाद, सुवर्णसिद्धि, मंत्र, देवाराधन, समुद्रयात्रा, पहाड़ की खान खोदना, बनिज-व्यापार, विविध कर्म, और अनेक प्रकार की शिल्पविद्या ।' तत्पश्चात् अनेक पर्वत और नदियों से संकीर्ण अटवियों को लांध, दोनों प्रतिष्ठान नगर में पहुँचे । वहाँ उन्होंने विविध प्रकार का बनिज-व्यापार कर और मेहनत-मजूरी करके पाँच-पाँच हजार सुवर्णमुद्राएँ कमाई । यथेच्छ धन की उन्होंने कमाई कर ली । लेकिन इस धन को लेकर घर कैसे पहुँचा जाये ? उन्होंने अपनी पाँच-पाँच हजार की मुद्राओं को दस रत्नों में बदल, उन्हें एक मैले-कुचैले वस्त्र में बाँध लिया । वेश परिवर्तन कर उन्होंने सिर मुंडा लिया, हाथ में छाता ले लिया, दण्ड के अग्रभाग में तुंबी लटका ली, गेरुए रंग के वस्त्र धारण किये और अपनी बहंगी में भिक्षापात्र रक्खा। ऐसा लगा जैसे दोनों दूर से तीर्थयात्रा करके आ रहे हैं । चोरों की नजरों से बचने के लिए दोनों भिक्षा मांगते-खाते स्वदेश के लिए रवाना हो गये । सागरदत्त की प्रतिज्ञा एक बार की बात है, चम्पा का श्रेष्टिपुत्र सागरदत्त कौमुदी महोत्सव देखने गया था। नटों का नृत्य हो रहा था । नट का एक सुभाषित सुनकर सागरदत्त बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने भरतपुत्रों को बुलाकर अपने नाम से एक लाख के पुरस्कार की घोषणा की। यह देखकर नट का खेल देखने के लिए उपस्थित समस्त नर-नारी सागरदत्त के गुणों की प्रशंसा करने लगे । पंचतंत्र, प्रथम तंत्र के आरंभ में धनोपार्जन के छह उपाय बताये गये हैं --भिक्षा मांगकर, राजा की चाकरी करके, खेती करके, विद्या पढ़कर, लेनदेन करके और बनिजव्यापार करके । इनमें बनिज व्यापार सबसे श्रेष्ठ है । व्यापार सात प्रकार के हैंगंधी का व्यापार, लेन-देन का व्यापार, थोक व्यापार, परिचित ग्राहकों को माल बेचना, झूठे दाम बताकर माल बेचना, खोटी माप-तौल रखना और दिसावरों से माल मँगाना । कुवलयमाला, पृ० ५७ । प्राकृत गाथाओं में निबद्ध नेमिचन्द्र आचार्य (वृत्तिकार आम्रदेव) के आख्यानकमणिकोष (पृ. २२२ . २५) के कथानक से इस आख्यान की तुलना की जा सकती है। डॉक्टर ए. एन. उपाध्ये, कुवलयमाला, भाग २, नोट्स पृ० १३७ । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोई मनचला कह बैठा-हम तो तब जाने जब कोई स्वयं उपार्जित किये हुए धन का दान करे, बाप-दादाओं के धन का दान तो कोई भी कर सकता है। कहा भी है-- “जो अपने भुजबल से अनेक दुःखों से कमाये हुए धन का दान करता है, वही प्रशंसा का पात्र है, बाकी सब चोर हैं" ! सागरदत्त सोचने लगा कि बात तो ठीक है। उसने प्रतिज्ञा की कि यदि वह एक वर्ष के भीतर सात करोड़ उपार्जन नहीं कर सका तो अग्नि में कूदकर प्राणों का अंत कर देगा। सागरदत्त ने दक्षिण की ओर प्रस्थान किया। दक्षिण समुद्र तट पर अवस्थित जयश्री नामक महानगरी में उसने प्रवेश किया । वहाँ उसने एक वणिक् की दूकान पर नौकरी कर ली। तत्पश्चात् यानपात्र में श्वेत चन्दन और वस्त्र भरकर यवनद्वीप के लिए रवाना हुआ। समुद्रतट पर पहुँच अपना माल उतारा; सरकारी शुल्क दिया । वहाँ से दूसरा माल भरकर वापिस लौटा। हिसाब लगाया तो सात करोड़ से अधिक जमा हो गया था। सागरदत्त की प्रतिज्ञा पूरी हो गयी ! संयोगवश, जहाज वापिस लौट रहा था कि चारों दिशाएँ अंधकार से आच्छन्न हो गई और देखते-देखते मूसलाधार पानी बरसने लगा। माल के बोझ से भारी और वृष्टि के जल से भरा हुआ जहाज समुद्र में डूब गया ! सागरदत्त के हाथ में तेल का एक खाली कुप्पा लगा । उसके सहारेसहारे मगरमच्छों से अपनी रक्षा करता हुआ, वह पाँच रात और दिन की मुसाफिरी के बाद चंद्रद्वीप में उतरा !' लोभदेव की रत्नद्वीप यात्रा तक्षशिला के पश्चिम-दक्षिण में स्थित उच्चस्थल गांव में शूद्र जाति में उत्पन्न धनदेव नामक एक सार्थवाह का पुत्र रहता था । अत्यंत लोभी होने के कारण लोग उसे लोभदेव कहने लगे थे। एक बार लोभदेव ने घोड़े लेकर दक्षिणापथ में व्यापार के लिए जाने की अपने पिताजी से अनुमति माँगी । लोभदेव ने निवेदन किया-पिताजी ! मैं बहुत-सा धन कमाकर लाऊँगा और फिर सुख से जीवन बिताऊँगा। १. वही, पृ. १०३-६ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ पिता ने उत्तर दिया- बेटा ! तू कितना धन कमायेगा ? हमारे पास इतना है जो तेरे और मेरे दोनों के बेटे-पोतों के लिए काफी होगा । इसलिए तू यहीं रहकर दान-पुन कर, विदेश जाकर क्या करेगा ? लोभदेव – पिताजी, जो धन अपने पास है, वह तो अपना है ही, मैं अपने बाहुबल से धन का उपार्जन करना चाहता हूँ | लोभदेव ने घोड़ों को सजाया, यान वाहनों को तैयार किया, वस्त्रों को ग्रहण किया, यानवाहकों को खबर भेजी, कर्मकरों को नियुक्त किया, गुरुजनों की आज्ञा प्राप्त की, और मंगल के लिए गोरोचन को नमस्कार किया । तत्पश्चात् जब सब चलने को तैयार हुए तो पिता ने पुत्र को उपदेश दिया- बेटे ! दूर देश जाना है, मार्ग विषम हैं, लोग निष्ठुर हैं, दुर्जन बहुत हैं, सज्जन थोड़ हैं, माल की पहचान मुश्किल से होती है, यौवन दुर्धर है, बहुत लाड़-प्यार में तुम पले हो, कार्य की गति विषम है, काल की रुचि अनर्थकारक है और चोर डाकू बिना ही कारण कष्ट देते हैं । अतएव कभी पंडित बनकर, कभी मूर्ख बनकर, कभी चतुर बनकर, कभी निष्ठुर बनकर, कभी दयालु बनकर, कभी निर्दय बनकर, कभी शूरवीर बनकर, कभी कायर बनकर, कभी त्यागी बनकर, कभी कृपण बनकर, कभी मानी बनकर, कभी दोनता से, कभी विदग्धता से और कभी जड़ता से काम निकालना ।' कालान्तर में लोभदेव शूर्पारक नगर पहुँचा । यहाँ घोड़े बेचकर उसने बहुतसाधन कमाया । फिर उसने अपने देश लौट चलने का इरादा किया । इस समय उसे स्थानीय देशी व्यापारी मंडल का निमंत्रण मिला । इसमें कहा गया था कि जो कोई देशांतर से आया हुआ अथवा स्थानीय व्यापारी हो, वह जिस देश में गया हो, जो माल लेकर गया हो या माल लेकर आया हो, या जो कुछ उसने कमाई की हो, उस सबका ब्यौरा वह देशी वणिकोंको दे और मंडल की ओर से गंध, तांबूल और माला स्वीकार करे; उसके बाद वह गंतव्य स्थान को जा सकता है । किसी ने कहा- मैं घोड़े लेकर कोशल देश गया था । कोशल के राजा ने मुझे भाइल जाति के घोड़ोंके साथ हाथी के शिशु भी दिये । १ इसी प्रकार का उपदेश यशधवल श्रेष्टी धनोपार्जन के लिए परदेश की यात्रा के लिए प्रस्थान करते समय अपने पुत्र धर्मदत्त को देता है । देखिए पद्मचन्द्रसूरि के अज्ञात - नामा शिष्य द्वारा रचित प्राकृतकथासंग्रह | यह कहानी 'रमणी के रूप' में 'दो बहुमूल्य उपदेश' शीर्षक के नीचे दी गयी है । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरे ने कहा-मैं सुपारी आदि लेकर उत्तरापथ गया था, वहाँ से घोड़े लेकर लौटा। तीसरा-मैं मोती लेकर पूर्वदेश गया था, वहाँ से चामर लेकर आया । चौथा—मैं द्वारका गया था, वहाँ से शंख लाया । पाँचवां-मैं वस्त्र लेकर बर्बरकूल गया था, वहाँ से हाथी-दांत और मोती लेकर लौटा। छठा-मैं पलाश के पुष्प लेकर सुवर्णद्वीप (सुमात्रा) गया था, वहाँ से सोना लेकर आया । सातवां—मैं भैंस और गाय लेकर चीन और महाचीन गया था, वहाँ से रेशम लेकर लौटा। आठवां-मैं पुरुषों को लेकर स्त्रीराज्य गया था, वहाँ सोने से तोलतोलकर उन्हें बेचा। नौवां—मैं नींब के पत्ते लेकर रत्नद्वीप गया था, वहाँ से बहुत-से रत्न लेकर वापिस आया। यह सुनकर व्यापारियों के मन में रत्नद्वीप जाने की इच्छा बलवती हो उठी। लेकिन रत्नद्वीप बहुत दूर है, समुद्र द्वारा लम्बी यात्रा है, प्रचण्ड वायु का प्रकोप रहता है, चंचल तरंगों को पार करना पड़ता है, बड़े-बड़े मत्स्य, मगर, ग्राह, दीर्घ तन्तु, और निगल जाने वाले तिमिंगल मत्स्य, रौद्र राक्षस, ऊँचे उड़ने वाले बेताल, दुर्लध्य पर्वत, कुशल चोर, भीषण तूफानी महासमुद्र आदि को पारकर वहाँ पहुँचना होता है । लेकिन दुख के बिना सुख भी तो नहीं ? “जो पुरुष निरुद्यमी है उसे, जैसे लक्ष्मी हरि को छोड़कर चली जाती है, वैसे ही छोड़कर चली जाती है; और जो उद्यमशील रहता है, उसकी ओर लक्ष्मी की नजर जाती है। गोत्रस्खलन से निस्तेज हुई प्रिय पत्नी जैसे अपने प्रिय को छोड़ देती है, उसी तरह साहसविहीन पुरुष का आलिंगन करके भी लक्ष्मी उसे छोड़ देती है। जैसे कुलबालिका नववधू लज्जापूर्वक व्यग्र पति की ओर दृष्टिपात करती है, वैसे ही लक्ष्मी पुरुष को कार्य में संलग्न जान उसकी ओर नजर फेरती है। जो धीर पुरुष विषम परिस्थितियों में भी आरम्भ किये हुए कार्य से मुँह नहीं मोड़ता, उसके वक्षस्थल पर लक्ष्मी, किसी अभिसारिका की भाँति आकर विश्राम करती है। प्रोषितभर्तृका की भाँति न्याय-नीति और पराक्रम द्वारा वश में की Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुई लक्ष्मी को उद्यमी पुरुष प्राप्त करते हैं। जो कोई कार्य का आरम्भ करके बाद में उसमें शिथिलता दिखाते हैं, खंडित महिला की भाँति लक्ष्मी उनका मान भंग करती है।" ___ तत्पश्चात् व्यापारी रत्नद्वीप की यात्रा के लिए चल पड़े।' व्यापारियों की भाषा और लेनदेन यहाँ केवल व्यापारियों के देश-देशांतर में परिभ्रमण करने की कथाओं का ही नहीं, उनकी बोलचाल रीति-रिवाज तथा व्यापारी भाषा का भी रोचक वर्णन देखने में आता है। _ विजया नगरी में अपना-अपना माल बेचने के लिए आये हुए गोल्ल, मध्यदेश, मगध, अन्तर्वेदी, कीर, ढक्क, सिंध, मरु, गुर्जर, लाट, मालव, कर्णाटक, ताजिक, कोशल, महाराष्ट्र और आंध्र के व्यापारियों का उल्लेख आता है, जो अपनीअपनी भाषाओं में वार्तालाप करते हैं। गोल्लदेश (गोदावरी के आसपास का प्रदेश) के व्यापारी कृष्ण वर्ण, निष्ठुर वचनवाले, बहुत काम-भोगी और निर्लज्ज थे; वे 'अडूडे' का प्रयोग करते थे । मध्यदेश के व्यापारी न्याय, नीति, संघि, और विग्रह में पटु, स्वभाव से बहुभाषी थे; वे 'तेरे मेरे आउ' शब्दों का प्रयोग करते थे । ___ मगध देशवासी पेट निकले हुए, दुर्वर्ण, तथा सुरत क्रीड़ा में तल्लीन रहते थे; वे 'एगे ले' का प्रयोग करते थे। अन्तर्वेदी (गंगा और यमुना के बीच का प्रदेश) के वासी कपिल रंग के, पिंगल नेत्रवाले, भोजन-पान और गपशप में लगे रहने वाले और मिष्टभाषी थे; वे 'कित्तो कम्मो' शब्दों का प्रयोग करते थे। कीर ( कुल्लू कांगड़ा) देशवासी ऊंची और मोटी नाकवाले, गेंहुआ रंग के और भारवाही होते थे; वे 'सारि पारि' शब्दों का प्रयोग करते थे । ढक्क (पंजाब) देश के वासी दाक्षिण्य, दान, पौरुष, विज्ञान और दयारहित थे; 'एहं तेह' शब्दों का वे प्रयोग करते थे। सिंधुदेशवासी ललित, मृदुभाषी और संगीतप्रिय थे, अपने देश की ओर उनका मन लगा रहता था; वे 'चउडय' शब्द का प्रयोग करते थे। १. कुवलयमाला, पृ. ६५-६७ । यहां समुद्रयात्रा की तैयारी का वर्णन है । समुद्री तूफान के वर्णन के लिये देखिये पेरा १३३ पृ. ६८ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरुदेश( मारवाड़ )वासी वक्र, जड, उजड्ड, बहुभोजी, कठिन, पीन और फूले हुए शरीर वाले थे; वे 'अप्पां तुप्पां' शब्दों का प्रयोग करते थे। गुर्जर देशवासियों का शरीर घो और मक्खन से पुष्ट था, वे धर्मपरायण तथा संधि और विग्रह में निपुण थे; 'णउ रे भल्लउं' शब्दों का वे प्रयोग करते थे । लाट देशवासी स्नान के पश्चात् सुगंधित द्रव्यों का आलेपन करते, अपने बाल काढ़ते और अपने शरीर को सजाते; वे 'अम्हं कउं' शब्दों का प्रयोग करते थे । मालव देशवासी तनु, श्याम और छोटे कद वाले, क्रोधी, मानी और रौद्र स्वभाव के थे; वे 'भाउय भइणी' और 'तुम्हे' शब्दों का प्रयोग करते थे। कर्णाटक के व्यापारी उत्कट दर्पवाले, मैथुनप्रिय, रौद्र और पतंग वृत्तिवाले थे; वे 'अडि पांडि मरे' शब्दों का प्रयोग करते थे। ताजिक के व्यापारी कंचुक से आवृत्त शरीर वाले, मांस में रुचि रखने वाले, तथा मदिरा और मदन में तल्लीन रहते थे; वे 'इसि किसि मिसि' शब्दों का प्रयोग करते थे। कोशलदेश के वासी सर्व कला संपन्न, मानी, क्रोधप्रिय और कठिन शरीर वाले होते थे; वे 'जल तल ले' शब्दों का प्रयोग करते थे । महाराष्ट्र के व्यापारी हृष्ट-पुष्ट, छोटे कद वाले, श्यामल अंग वाले, सहनशील, अभिमानी और कलहप्रिय थे; वे 'दिण्णल्ले गहियल्ले' शब्दों का प्रयोग करते थे। ___आंध्र देशवासी महिलाप्रिय, संग्रामप्रिय, सुन्दर और रौद्र भोजन करने वाले थे; वे अटि पुटि रटि' शब्दों का प्रयोग करते थे ।-कुवलयमाला, पृ० १५२। ठेठ व्यापारी भाषाओं का वे लोग प्रयोग कर रहे थे। कोई कह रहा था'दे दो, दे दो', 'इससे अधिक सुन्दर हमें चाहिए', 'यह सुन्दर नहीं तो अपना रास्ता देख', 'आओ, पधारो', 'चलो, खरीद के भाव में ही दे देंगे', 'सात गये तीन बचे'-'हिसाब लगाने पर आधा बाकी रहा', 'बीस के आधे दस', 'हम तो पाई-पाई का हिसाब लगाते हैं', 'सौ भार, करोड़, लाख सौ करोड़, पलशत, पल, अर्धपल, कर्ष, मास, रती', 'अरे बड़ा व्यापार होगा', 'ले जाओ, बहुत अच्छा और सस्ता मिल रहा है', 'अरे, यहाँ तो आओ, इसके ऊपर तुम्हें कुछ मासा और दे देंगे', 'अरे, मालको क्यों ढंक लिया, हमें लेना है', 'देखो, अच्छी तरह देख-परख कर जाना', 'यदि माल जरा भी खराब निकला तो ग्यारह करोड़ दूंगा।' -कुवलयमाला पृ० १५३ । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोतवणिकों के अन्य आख्यान व्यापारी लोग धनोपार्जन के लिए जल और स्थल मार्ग से बड़े-बड़े पर्वत, नदी-नाले और भयानक जंगल तथा महानदी और प्रत्यवायबहुल समुद्र-'संचरण करके साहसिक यात्राएँ किया करते थे । ___ चंपा के जिनपालित और जिनरक्षित नामक वणिकपुत्र ग्यारह बार लवणसमुद्र (हिन्द महासागर ) की यात्रा कर प्रभूत धनसंचय कर चुके थे । लेकिन फिर भी उन्होंने किसी प्रकार अपने पिता की अनुमति प्राप्त कर बारहवीं बार समुद्रयात्रा की। ___ इसी प्रकार समराइच्चकहाँ, नर्मदासुंदरीकों, प्राकृतकथासंग्रह, जिनदत्ताख्यान, सिरिवालकहाँ आदि प्राकृत के अनेक आख्यान ग्रंथों में वणिकपुत्रों और सांयात्रिकों के वर्णन आते हैं जिन्होंने समुद्रमार्ग से यात्रा कर, अपनी जान जोखिम में डाल, प्रचुर धन का संचय किया। व्यापारियों की पत्नियों की शीलरक्षा पोतवणिकों के परदेश यात्रा करने पर उनकी सहधर्मिणियों को अकेले समय काटना दुष्कर हो जाता। पति की दीर्घकालीन अनुपस्थिति में उनके सतीत्व के विषय में शंका उपस्थित हो जाती । परदेश में गया हुआ पति भी किसी युवती के १. वसुदेवहिंडी, पृ० २५३ २. णायाधम्मकहाओ, कथा ९ । इस कथा की तुलना बौद्धों के वलाहस्स जातक ( १९६) और दिव्यावदान से की जा सकती है। ३. चौथे भव में धन और धनश्री, तथा छठे भव में धरण और लक्ष्मी की समुद्रयात्रा का वर्णन है। महेश्वरदत्त ने अपनी पत्नी नर्मदासुंदरी को साथ लेकर धनार्जन के लिए यवनद्वीप प्रस्थान किया और मार्ग में उसके चरित्र पर संदेह हो जाने के कारण उसे वहीं छोड़ दिया । समुदयात्रा के वर्णनप्रसंग में कालिका वायु बहने के कारण जहाज भन्न हो आता है। श्रेष्ठीपुत्र एक तख्ते के सहारे सुवर्णद्वीप पहुँच सोने की ईंटें प्राप्त करता है । जिनदत्त अपनी पत्नी श्रीमती के साथ समुद्रयात्रा करता है । कोई व्यापारी जिमदत्त की पत्नी को हथियाने के लिए उसे समुद्र में ढकेल देता है । ७. श्रीपाल की समुद्रयात्रा के प्रसंग पर बड़सफर, पवहण, बेडिय, वेगड, सिल्ल (सित=पाल), आवत (गोल नाव, और बोहित्थ नाम के जलयानों का उल्लेख है। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ मायापाश में फंस जाता, अथवा विवाह कर लेता । इस संबन्ध के अनेक आख्यान प्राकृत जैन कथा - ग्रंथों में उपलब्ध हैं । उज्जैनी निवासी वसुदत्ता का विवाह कौशांबी के धनदेव सार्थवाह के साथ हुआ था । एक बार उसका पति परदेशयात्रा के लिए गया । वसुदत्ता को पता चला कि व्यापारियों का काफला उज्जैनी जा रहा है। उज्जैनी में माता-पिता को मिलने की इच्छा से उसने अपने सास-ससुर से काफले के साथ जाने की अनुमति माँगी । उन्होंने कहा- तुम गर्भवती हो और तुम्हारा पति परदेश में है, अकेले तुम कहाँ भटकती फिरोगी ? लेकिन वह नहीं मानी और अपने शिशुओं को लेकर चल पड़ी। आगे जाकर वह काफले से भ्रष्ट हो गयी। इस बीच में उसका से लौट आया । अपने पुत्र और स्त्री के स्नेह के वशीभूत हो वह चल दिया । पति प्रवास उनकी खोज में कितने ही प्रसंग ऐसे आते जब पोतवणिकों की पत्नियों को अपने शील की रक्षा करना कठिन हो जाता । चीन की यात्रा से लौटने पर अपनी पत्नी का व्यवहार देख धरण को उसके चरित्र पर संदेह होगया । टोप्प सेठ को उसने आदि से अंत तक सारा वृतान्त कह सुनाया । उसने कहा- मेरी पत्नी जीवित तो है, लेकिन शील से नहीं । कौशांबी के धनदत्त नामक व्यापारी की रूपवती कन्या सुंदरी का विवाह यशोवर्धन से हो गया था । लेकिन यशोवर्धन बड़ा कुरूप था अतएव उसकी पत्नी के मन वह नहीं भाता था । एक बार यशोवर्धन ने बहुत-सा माल लेकर परदेश जाने का इरादा दिया । उसने अपनी पत्नी से भी साथ चलने को कहा लेकिन उसने बहाना बना दिया । पति के परदेश चले जाने पर वह अपने पीहर जाकर रहने लगी । एक दिन अपने भवन की ऊपर की संवार रही थी कि कोई राजकुमार वहाँ से १. मंजिल में बैठी हुई वह अपने केश गुजरा। दोनों की आँखें मिल गई । सुन्दर के परदेश जाते समय उसकी माँ ने उसे उपदेश दिया बेटा ! विषय भोग से और चोरों से सदा अपनी रक्षा करना। याद रख, जवानी की उम्र जंगल के समान बड़ी मुश्किल से पार की जाती है। कहीं ऐसा न हो कि स्त्रियों के पाश में फंस जाओ । देखिए, कुमारपाल प्रतिबोध; 'रमणी के रूप' में 'नगरी के न्यायी पुरुष' शीर्षक कहानी तथा शुकसप्तति (कथा ३३) कथासरित्सागर उपकोशा की कथा (१-४) वसुदेवहिंडी, पृ० ५९-६० समराइच्चकहा, छठा भव २. ३. Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजकुमार ने एक गाथा पढ़ी "जिस स्त्री के अनुरूप गुण और यौवन वाला पुरुष नहीं, उसके जीने से क्या लाभ? उसे तो मृत समझना चाहिए ।" " सुन्दरी ने उत्तर दिया “ पुण्यहीन पुरुष प्राप्त की हुई लक्ष्मी का उपभोग करना नहीं जानता । पराक्रमी पुरुष ही परायी लक्ष्मी का उपभोग कर सकता है" । " रात्रि के समय गवाक्ष में से चढकर, राजकुमार उसके भवन में पहुँचा और पीछे से चुपचाप आकर उसकी आँखें मींच लीं । ४७ सुन्दरी ने कहा "अरे, क्या तू नहीं जानता कि तू मेरे हृदय को चुराकर ले गया था ? और अब तू मेरी आँखें मींचने के बहाने सचमुच अंधेरा कर रहा है । आज मैं निर्भ्रान्त होकर अपने बाहुपाश को तेरे गले में डाल रही हूँ । या तो अपने इष्ट देव को स्मरण कर, नहीं तो पुरुषार्थ का प्रदर्शन कर" । २. शीलवती महिलाएँ अनेक ऐसी महिलाओं के भी उल्लेख मिलते हैं जो अपने पति के परदेश जाने पर बड़े साहसपूर्वक अपने शील की रक्षा करने में दत्तचित रहीं । शीलवती का पति श्रेष्ठपुत्र अजितसेन जब राजा के साथ परदेश यात्रा पर जाने लगा तो अपनी पत्नी की ओर से उसे बड़ी चिंता हुई । उस समय शीलवती १. ३. ४. इस प्रकार दोनों में प्रेमपूर्ण वार्तालाप होता रहा । प्रातःकाल उठकर राजकुमार अपने स्थान को लौट गया । * अणुरुवगुणं अणुरुवजोब्वर्णं माणुसं न जस्सत्थि । किं तेण जियतेण पि मानि नवरं मओ एसो ॥ परिभुजिउ न याणइ लच्छि पत्तं पि पुण्णपरिहीणो । -विक्कमरसा हु पुरिसा भुति परेसु लच्छीओ ॥ मम हिययं हरिऊण गओसि रे किं न जाणिओ तं सि । सच्च अच्छिनिमीलणमिसेण अंधारयं कुणसि ॥ ता बाहुलयापासं दलामि कंठम्मि अज्ज निब्भतं । सुमरसु य इदेवं पयडस पुरिसत्तणं अहवा ॥ - जिनेश्वरसूरि, कथा कोष प्रकरण; जगदीशचंद्र जैन, प्राकृत साहित्य का इतिहास पृ० ४३३ देखिए, 'रमणी के रूप' में 'पराई लक्ष्मी का उपभोग' शीर्षक कहानी । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ ने अपने पतिको विश्वास दिलाते हुए कहा-प्राणनाथ ! आप बिल्कुल भी चिंता न करें। ‘अग्नि शीतल हो सकती है, सूर्य पच्छिम में उग सकता है, मेरु का शिखर कंपायमान हो सकता है, पृथ्वी उछल सकती है, वायु स्थिर हो सकती है, समुद्र मर्यादा का उल्लंघन कर सकता है, लेकिन त्रिकाल में भी मेरा शील भंग नहीं हो सकता ।'' श्रेष्ठीपुत्र चन्द्र की पत्नी तारा अपने पुत्र के साथ मदन नामक सार्थवाह के जहाज में सवार हो सिंहलद्वीप के लिए रवाना हो गयी। मार्ग में जहाज फट जाने के कारण जहाज डूब गया । तारा किसी भील के हाथ पड़ गयी। उसने उसे अपनी पल्ली के स्वामी को भेंट में दे दी। पल्ली के स्वामी ने तारा के रूप पर मोहित हो उसे अपनी पत्नी बनाना चाहा । तारा ने उत्तर दिया-“देखिए, सिंह की जटाएँ, सतो-साध्वियों की जंघाएँ, शरण में आये हुए सुभट और सर्प के मस्तक की मणि को, बिना जान हथेली पर रक्खे प्राप्त नहीं किया जा सकता। कहा गया है कि देशाटन को गये हुए व्यापारियों की घर में रही हुई स्त्रियों की राजाओं को रक्षा करना चाहिए। यात्रागीत जान पड़ता है, वणिकपुत्रों के इन साहसिक यात्राओं संबंधी गीतों की रचना भी की गयी थी। गायिकाएँ इन गीतों को विश्वासपूर्वक गाकर श्रोताओं का मनोरंजन किया करतीं। एक गीत देखिए __ वणिकों का एक बड़ा सार्थ गणिम (गिनने योग्य), धरिम (तोलने योग्य), मेय (मापने योग्य) और परीक्ष्य (परखने योग्य) माल को लेकर अपने नगर से रवाना हुआ। बीच में एक अटवी पड़ी । यहाँ सिंह का भय था । अस्त्र-शस्त्र से सज्जित हो वणिक् वहीं ठहर गये । इतने में वहाँ सिंह आया । सब लोग भय से घबड़ा गये । फिर एक गीदड़ी आई । उसके साथ सिंह रतिकीड़ा करने लगा । वणिक् उसे मारने के लिए तैयार हो गये । लेकिन कुछ ने कहा-उसे मारने से क्या ? जो गीदड़ी के साथ सहवास कर सकता है, वह कैसा सिंह ? यह सुन सब निश्चिन्त होकर बैठ गये । कुमारपालप्रतिबोध; देखिए 'रमणी के रूप में 'शीलवती की चतुराई' कहानी, पृ० १४-२० तुलनीय वसुदेवहिंडी में ललितांग नामक सार्थवाहपुत्र की कथा, पृ. ९ । कुमारपालप्रतिबोध, देखिए 'रमणी के रूप' के अन्तर्गत 'रूपवती तारा', पृ. २१-२५। ३. वसुदेवहिण्डी, पृ० २३३ ४. वही, पृ० २८२ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निष्कर्ष यह कि अटवी पार करते समय व्यापारियों को सिंह आदि का भय नहीं रखना चाहिए । मार्ग की थकान दूर करने वाली कथाएँ " जैसे राजे-महाराजे कथा-कहानियों के शौकीन थे, वैसे ही दूर-दूर तक जल अथवा स्थलमार्ग से प्रवास करने वाले वणिक् यात्री रोचक कथाएँ सुनकर अपनी लम्बी मुसाफिरी सुखपूर्वक तय करते थे ।' अनेक व्यापारी तीर्थों तथा देश-देशांतर संबंधी कथाएँ कहने में निष्णात होते थे । इस संबंध में वसुदेव और अंशुमान का एक रोचक आख्यान आता है । चलते-चलते वसुदेव को थका हुआ जान, अंशुमान ने कहा- आर्य पुत्र ! क्या मैं आपको ले चलूँ? यदि नहीं, तो आप मुझे ले चलिए । वसुदेव ने सोचा थकान के कारण मेरे पैर लड़खड़ा रहे हैं, ऐसी हालत में अंशुमान मुझे कैसे लेकर चल सकता है ? यह राजपुत्र सुकुमार है, मैं ही इसे क्यों न ले चलूँ ? वसुदेव ने कहा- आओ मित्र ! चढ़ जाओ, मैं तुम्हें लेकर चलता हूँ । अंशुमान ने हँसकर उत्तर दिया- आर्यपुत्र ! इस तरह किसी को मार्ग में लेकर नहीं चला जाता । यदि कोई मार्गजन्य खेद के कारण थके-मांदे व्यक्ति को रोचक कथाएँ सुनाता चलता है, तो इसे ले चलना कहते हैं, इससे उसकी थकान दूर हो जाती है । ४९ वसुदेव ने कहा यदि ऐसी बात है तो कोई रोचक कहानी सुनाओ। तुम्हीं इस कला में कुशल हो । संस्कृतियों का आदान-प्रदान जैन धर्म का अनुयायी विशेषकर व्यापारी वर्ग था, अतएव इस वर्ग के उपदेशार्थ बनिज-व्यापार संबंधी कथाओं का धर्मकथाओं में समावेश किया जाना स्वाभाविक था । ये व्यापारी धनोपार्जन के लिए दूर देशों की यात्रा किया करते थे । निश्चय ही इससे उनके व्यावहारिक ज्ञान में वृद्धि होती थी । वस्तुतः बृहत्कथा लोकसंग्रह में मार्ग की क्लान्ति दूर करने के लिए रमणीय कथाएँ कहने का उल्लेख है अथ मां रमयन्तस्ते रमणीयकथाः पथि । अगच्छन् कञ्चिदध्वानमचेचितपथक्लमम् वसुदेवहिण्डी, पृ० २३२ वही, पृ० २०८ १. २. ३. ।। १८.१८४ पृ० २३६ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ये व्यापारी हो उन दिनों हमारे देश के राजदूत थे जो विभिन्न देशों के साथ हमारे वाणिज्य और सांस्कृतिक संबंधों को दृढ़ बनाने में सहायक हुए थे । इनके माध्यम से ही हमारे देश के कितने ही रीति-रिवाज, आचार-विचार एवं कथा-कहानियाँ समुद्र की सीमा लांघकर दूसरे देशों में पहुँची हैं, सथा दूसरे देशों के रीति-रिवाजों और कथा-कहानियों ने हमारी सभ्यता और संस्कृति को प्रभावित किया है।' १. एन. एम. पेंजर ने भारतवर्ष को कहानियों का भंडार बताया है। उसका कहना है कि गर्म आबहवा के कारण, यहाँ के निवासियों के स्वमाष में कुछ शिथिलता आ जाने तथा पूर्वी देशों में कुछ अधिक मात्रा में ही मेहमानदारी के कायदे-कानूनों का पालन किये जाने से, शीतल संध्या के समय स्त्रियों के बिना केवल पुरुषों की गोष्ठी में कहानी की खूब ही प्रगति हुई । यहीं से फारस के लोगों ने कहानी कहने की कला सीखी। फिर यह कला अरब में पहुँच गयी। मध्यपूर्व के कुस्तुनतुनिया और वहाँ से वेनिस होती हुई अंत में बोकाचिओ, औसर और लाफाँन्तेन (La Fantaine) की कृतियों में उद्धृत हुई । द ओशन आफ स्टोरी, इन्द्रोडक्सन, पृ. ३४-३६ । एम. विन्टरनित्स ने भारतीय कथा साहित्य का विदेशी साहित्य पर प्रभाव स्वीकार किया है । यह साहित्य यूरोप और एशिया तक ही सीमित न रहा, अफ्रीका में भी इसने प्रवेश पाया । भारत के व्यापारियों के माध्यम से यहाँ की कथा-कहानियों ने ही विदेशों की यात्रा नहीं की, अपितु भारतीय कथा साहित्य की पुस्तकों का अनुवाद भी विदेशी भाषाओं में किया गया। बहुत समय तक विद्वान भारतवर्ष को ही समस्त कथा-कहानियों का जन्मस्थान मानते रहे, किन्तु लोकवार्ता और नृकुल विज्ञान के अध्ययन के बाद यह मान्यता अब निर्मूल हो गयी है। फिर भी विदेशों की कितनी ही कहानियाँ ऐसी हैं जो भारतवर्ष से ही उन देशों में पहुँची हैं। हिस्ट्री आफ इंडियन लिटरेचर, जिल्द ३, भाग १, पृ० ३०२-३ । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत की धर्म और नीति सम्बन्धी कथाएँ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. धर्म-कथाएँ काम और अर्थ के बाद धर्म आता है । धर्म के संबंध में कहा है-"धर्म से श्रेष्ठ कुल में जन्म होता है, दिव्य रूप और सम्पत्ति प्राप्त होती है, धन-समृद्धि मिलती है, कीर्ति का विस्तार होता है, अतुल मंगल की प्राप्ति होती है, समस्त दुःखों की यह अनुपम औषधि है, धर्म ही विपुल बल है, त्राण है और शरण है।' इसी धर्मकथा के संकल्पपूर्वक अवंतिराज समरादित्य के चरित का वर्णन करने के लिए समराइच्चकहा की रचना की गयी है। वसुदेवहिंडी में, जैसे कहा जा चुका है, शृङ्गार कथा के बहाने धर्मकथा का ही प्ररूपण है। कुवलयमाला में भी बीच-बीच में कामशास्त्र की चर्चा आती है, किन्तु धर्म प्राप्ति में सहायक होने से इस कथा को धर्मकथा (आक्षेपणी) समझ कर पढ़ने और गुनने का लेखक का अनुरोध है। धर्मप्राप्ति की मुख्यता इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन विद्वानों ने अपने कथा-ग्रंथों में धर्म को मुख्य मानकर ही आख्यान लिखे हैं। इतना अवश्य है कि कामकथा में काम और अर्थकथा में अर्थ की प्रधानता रहती है, यद्यपि उद्देश्य इनका भी धर्म प्राप्ति ही है। धर्मकथा के भेद धर्मकथा के चार भेद हैं- श्रोता के मन को अनुकूल लगने वाली कथाएँ (आक्षेपणी) श्रोता के मन को प्रतिकूल लगने वाली कथाएँ (विक्षेपणी), ज्ञान की उत्पत्तिपूर्वक संवेगवर्धक कथाएँ (संवेदिनी) और वैराग्य उत्पन्न करने वाली कथाएँ (निवेदनी । जिसमें धर्म उपादान रूप हों तथा क्षमा, मार्दव, आजव अलोभ, तप, संयम, सत्य, शौच आदि जन-कल्याणकारी व्रत-नियमों का वर्णन हो उसे धर्मकथा कहा गया है। १. धम्मेण कुलपसूई धम्मेण य दिव्वरूवसंपत्ती। धम्मेण धणसमिद्धी धम्मेण सुवित्थडा कित्ती ॥ धम्मो मंगलमठलं ओसहमउलं च सव्वदुखाणं । धम्मो बलमवि विउलं धम्मो ताणं च सरणं च ॥ -समराइच्चकहा, पृ० ६ २. ८, ९, पृ० ४-५ ३. दशवकालिक नियुक्ति १९३-२०५, तथा हारिभद्रीय टीका, पृ. १०९अ-११३१ । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ श्रोताओं के प्रकार अर्थ, काम, धर्म और संकीर्ण कथाओं के श्रोता अधम, मध्यम और उत्तम के भेद से तीन प्रकार के होते हैं । जो क्रोध आदि के वशीभूत हों; इस लोक में ही आस्था रखने वाले, जीवदयारहित अनर्थबहुल अर्थकथाओं के श्रवण में आनन्द लेते हों ऐसे तामस वृत्ति वाले अधम श्रोता हैं । शब्द आदि विषयों में मोहित बुद्धियुक्त, "यह सुन्दर है और यह इससे भी सुन्दर है" - इस प्रकार की अस्थिर मतिवाले, पंडितजनों द्वारा उपहास के योग्य और विडम्बना मात्र ऐसी कामकथाओं में आनन्द लेने वाले राजसी वृत्ति के लोग मध्यम श्रोता हैं । इहलोक और परलोक में सापेक्ष, व्यवहार नय में कुशल, परामर्थ की अपेक्षा सार विज्ञान से हीन, क्षुद्र, भोगों को बहुत न मानने वाले, उदारभोगों में तृष्णा रहित, सात्विक मनोवृत्ति वाले, त्रिवर्ग का निरूपण करने वाली तथा तर्क, हेतु और उदाहरण युक्त संकीर्ण कथा में रस लेने वाले श्रोताओं को भी मध्यम कोटि में ही गिना गया है । तथा जाति, जरा, मरण से वैराग्य को प्राप्त, कामभोगों से विरक्त, सकलकथाओं में श्रेष्ठ महापुरुषों द्वारा सेवित धर्मकथा में रस लेने वाले सात्विक श्रोताओं को उत्तम कहा गया है ।' धार्मिक कथा - साहित्य कहा जा चुका है कि जनकल्याणकारी लोकप्रिय धर्म और नीति-संबंधी कथाओं द्वारा जनसमूह का मार्ग-प्रदर्शन करना ही इन कथाओं का उद्देश्य रहा है । इस संबंध में आगमकालीन कथा - साहित्य में ज्ञातृधर्मकथा, उपासकदशा, अन्तकृद्दशा, विपाकसूत्र आदि आगम ग्रंथों का नामोल्लेख किया जा सकता है । ज्ञातृधर्मकथा में ज्ञातृपुत्र महावीर द्वारा प्ररूपित धर्मकथाओं का संग्रह है । विभिन्न उदाहरणों, दृष्टांतों एवं लोकप्रचलित कथाओं के माध्यम से यहाँ संयम, तप और त्याग का उपदेश दिया गया है । उपाशकदशा में महावीर के दस उपासकों और अन्तकृदशा में अर्हतों की कथाएँ हैं । विपाकसूत्र में शुभ और अशुभ कर्मों के विपाक संबंधी कथाएँ दी हुई हैं । उत्तराध्ययन नामक मूल सूत्र में उपमा, दृष्टांत और विविध संवादों द्वारा धर्मकथामूलक त्याग और वैराग्य का वर्णन है । आगम ग्रन्थों की नियुक्तियों, भाष्यों, चूर्णियों और टीकाओं में तो अनेकानेक धर्मकथाएँ संनिविष्ट हैं । समराइच्चकहा, पृ० ४-५ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथाकोशों की रचना आगमोत्तरकालीन साहित्य में अनेक लोकप्रिय कथाग्रंथों और कथाकोषों की रचना की गयी। तरंगवईकहा, वसुदेवहिंडी, समराइच्चकहा और कुवलयमाला के अतिरिक्त अनेक महत्त्वपूर्ण कथाकोष लिखे गये । इनमें जिनेश्वरसूरि का कहाणयकोस (कथानककोष), नेमिचन्द्रसूरिकृत कथामणिकोश (आख्यानकमणिकोष), गुणचन्द्रगणि (देवभद्रसूरि के नाम से प्रख्यात) कृत कहारयणकोस (कथारत्न कोष), विनयचन्द्रकृत धम्मकहाणयकोस (धर्मकथानककोश), भद्रेश्वरकृत कहावलि, पद्मचन्द्रसूरि के अज्ञातनामा शिष्यकृत पाइयकहासंगह आदि उल्लेखनीय हैं ।' इन कथाकोषों में विविध विषयों पर धर्मकथाओं का संग्रह है जिनमें मंत्रविद्या, सर्पविष उतारने की विधि, दैवी आराधना से पुत्रोत्पत्ति, संगीत, अभिनय, सास-बहू का कलह, गृहकलह, राजसभाओं में वाद-विवाद, धातुवाद, उत्सव, चर्चरी-प्रगीत आदि के साथ पर्वत को यात्रा, खन्यविद्या (जमीन में गड़े हुए धन का पता लगाना), हाथियों की व्याधि, हाथियों को पकड़ने की विधि, परिवार की दारिद्रयपूर्ण स्थिति, मल्लयुद्ध, चोरों का उपद्रव, ठगविद्या, धूर्तविद्या, युद्ध, खेती, बनिज-व्यापार, शिल्पकला आदि लौकिक विषयों से संबंध रखने वाले अनेक रोचक आख्यानों का संग्रह है। आख्यानों को रोचक बनाने के लिए बीच-बीच में चित्रकाव्य, सुभाषित, उक्ति, कहावत, संवाद, गीत, प्रगीत, प्रहेलिका, प्रश्नोत्तर, वाक्कौशल आदि शैलियों का प्रयोग किया गया है । ___२. धूतौ और पाखंडियों की कथाएँ लौकिक कहानियों में हम सर्वप्रथम धूर्ती, पाखंडियों, ठगों और मक्कारों संबंधी कथाओं को लें। ये कहानियाँ जैन प्राकृत कथा-ग्रंथों में यत्र-तत्र बिखरी पड़ी हैं । इनका उद्देश्य था समाज-विरोधी तत्वों का भंडा-फोड़ कर धूर्तों आदि के चंगुल से स्वरक्षा करना। ___ गांव का कोई किसान गाड़ी में अनाज भरकर शहर में बेचने जा रहा था। उसकी गाड़ी में तीतरी का एक पिंजड़ा बंधा हुआ था। नागरिकों द्वारा ठगाया गया ग्रामीण शहर पहुँचनेपर गंधीपुत्रों ने उससे पूछा—यह गाड़ी-तीतरी (प्राकृत में सग१. प्राकृत एवं संस्कृत के कथाकोषों के विवरण के लिए देखिए, हरिषेण, बृहत्कथाकोश, डाक्टर ए० एन० उपाध्ये की भूमिका, पृ० ३९ आदि Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ इतित्तिरी अर्थात् (१) गाड़ी में लटके हुए पिंजड़े की तीतरी, (२) अथवा गाड़ी और तीतरी) कैसे बेचते हो ? किसान ने उत्तर दिया- एक कार्षापण में गंधीपुत्रों ने उसे कार्षापण दे दिया और उसकी अनाज से भरी गाड़ी और तीतरी लेकर चल दिये । किसान को बड़ा दुःख हुआ कि एक कार्षापण में उसकी अनाज भरी गाड़ी और तीतरी दोनों ही चल दिये । किसान न्यायालय में गया, लेकिन हार गया । मालिक ! अनाज कुछ दिनों बाद गंधीपुत्रों के घर जाकर वह कहने लगासे भरी हुई मेरी गाड़ी तो चली ही गयी, अब इन बैलों को रखकर मैं क्या करूँगा । इन्हें भी आप ही रख लें । इनके बदले मुझे सिर्फ दो पायली सत्तू दे दें । लेकिन यह सत्तू मैं सर्वालंकार भूषित आपकी प्राणेश्वरी के हाथ से ही ग्रहण करूँगा । गंधीपुत्र ने किसान की बात स्वीकार कर ली । गंधीपुत्र की प्राणेश्वरी ज्यों ही सत्तू देने आयी, किसान उसका हाथ पकड़ कर चल दिया । पूछने पर उसने उत्तर दिया- - मैं तो दो पायली सत्तू ले जा रहा हूँ ।' कमलसेना ने चंपा नगरी में प्रवेश करते समय धम्मिल्ल को यह दृष्टांत देते हुए कहा था- आर्यपुत्र ! पुर, नगर और जनपदों में प्रायः वंचक लोग बसते हैं, आप सावधान होकर जायें । कहीं ऐसा न हो कि जैसे क्रय-विक्रय के समय धूर्त नागरिकों ने गांव के सीधे-साधे किसान को ठग लिया था, वैसे ही आपको भी लोग ठग लें । " धूर्तों से सावधान रहने की आवश्यकता क्षेमेंद्र (११ वीं शताब्दी) ने लिखा है- - धनवान कुल में पैदा हुए, दुनियादारी के ज्ञान से वंचित भोले-भाले लोग, धूर्तों के हाथ में ऐसे ही नाचते हैं जैसे कि हाथ की गेंद । ये लोग वारवनिताओं के चरणों के नुपूर में लगी हुई १. २. वसुदेवहिंडी, पृ० ५७-५८ वसुदेव ने जब भद्रिलपुर के जीर्णोद्यान में प्रवेश किया, उस समय भी अंशुमान ने अपने मित्र को सावधान रहने को कहा, क्योंकि अज्ञात नगरों में अतिदुष्ट लोग रहते लेते हैं । वसुदेवहिंडी, पृ० २०९ हैं, जो भले आदमियों को ठग Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७ मणि के समान जीवन यापन करते हैं । पक्षियों के नवजात शावकों की भाँति इनका देश एवं काल अज्ञात रहता है, इनके मुख चंचल होते हैं, और पंगु होते हुए भी ये फुदकते फिरते हैं । जैसे मार्जार पक्षिशावकों को हजम कर जाते हैं, वैसे ही धूर्त भोले-भाले लोगों को चट कर जाते हैं ' धूर्तों को चतुर्मुख कहा गया है - मिथ्या आडम्बर से वे धनी बन जाते हैं, पुस्तकों के पंडित होते हैं, कथाओं के ज्ञानी होते हैं, वर्णन में शूर होते हैं और बड़े चपल होते हैं। यदि किसी स्त्री का पति परदेश गया हुआ हो तो दृष्ट अथवा अदृष्ट, क्रूर और कृत्रिम वचनपूर्ण मुद्राओं द्वारा धूर्त पुरुष उस मुग्ध वधू का अपहरण कर लेते हैं। स्तेयशास्त्रप्रवर्तक धूर्तशिरोमणि मूलदेव' अपने शिष्यों को दंभ और धूर्तविद्या १. धूर्तकरकन्दुकानां वारवधूचरणनूपुरमणीनाम् । धनिकगृहोत्पन्नानां मुक्तिर्नास्त्येव मुग्धानाम् ॥ अज्ञातदेशकालाश्चपलमुखाः पङ्गवोऽपि सप्लुतयः । नवगा इव मुग्धा भक्ष्यन्ते धूर्तमार्जारेः ॥ तुलना कीजिए सोमदेव के यशस्तिलकचम्पू (भाग २, पृ० १४५ ) के वर्णन से - धूर्तेषु मायाविषु दुर्जनेषु स्वार्थैकनिष्ठेषु विमानितेषु । - कलाविलास १.१८, १९ वर्तेत यः साधुतया स लोके प्रतार्यते मुग्धमतिर्न केन ॥ मिथ्याडम्बरधनिकः 'पुस्तकविद्वान्' कथाज्ञानी । वर्णनशूर इचपलश्चतुर्मुखो जृम्भते धूर्तः ॥ २. ३. ४. ५. दृष्टाभिरदृष्टाभिः क्रूराभिः कृतकवचनमुद्राभिः । धूर्तो मुष्णाति वधूं मुग्धां विप्रोषिते पत्यौ ॥ देखिए, जगदीशचन्द्र जैन का " आजकल," अगस्त, मूलदेव और धूर्तविद्या' नामक लेख । ८ क्षेमेन्द्र ने मूलदेव के मुँह से दंभ का प्ररूपण कराते हुए उसके तीन मुख्य मेद बताये हैं- बकदंभ, कूर्मजदंभ और मार्जारदंभ । व्रत-नियम धारण करके बगुले के समान आचरण रख कछुए के समान आचरण करने गुप्त रखकर मार्जार के समान नियमों करने वाला बकदंभी, व्रतनियमों को आच्छादित वाला कूर्मजदंभी तथा अपनी गति और नेत्रों को को गोपनीय रखनेवाला घोर मार्जारदंभी है— - कलाविलास, ९. 199 — वही, ९.५९ १९७० में प्रकाशित 'धूर्त शिरोमणि व्रतनियमे कदम्भः संवृत्तनियमैश्च कूर्मजो दम्भः । निभृतगति नयन नियमैर्घोरो मार्जारजो दम्भः ॥ कलाविलास, १ ४८ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की शिक्षा दिया करता था ।' काश्मीरो विद्वान् दामोदर गुप्त (आठवीं शताब्दी) ने विट, वेश्या, धूर्त, एवं कुट्टिनियों के जाल से लोगों की रक्षा करने के लिए ही 'कुट्टिनीमत' की रचना की है । धूर्तराज मूलदेव की कथा ५८ बुद्धिबल से कामीजनों को अपने पास न दूसरा भोजन, तीसरा मण्डन- आभूषण, प्रकार कामीजनों से अपने शील की रक्षा रखती हुई, वह अपना समय गुजारती । मूलदेव की नजर भी उस पर लगी थी । लेकिन वह अपने वास्तविक रूप में उसके पास नहीं जाना चाहता था । वह छद्मवेषी कामुक बन उसके पास गया। दोनों का संगम हुआ । उसे गर्भ रह गया । कोई ब्राह्मणकन्या गुप्त रूप से गणिका के वेष में रहा करती थी । अपने फटकने देती । उसका पहला पहर स्नान, और चौथा कथा वार्ता में बीतता । इस करती, किन्तु मूलदेव के संगम की इच्छा एक बार, कन्या मूलदेव के साथ द्यूत खेलने लगी । मूलदेव हार गया, वह जीत गयी । मूलदेव को बांधकर वह अपनी माँ के पास ले गयी । उसने मूलदेव से कहा – देखिए, मेरी प्रतिज्ञापूर्ण हो गयी है, तुम साक्षी हो । मूलदेव ने राजा से निवेदन किया — देखिए, महाराज, पतित्रताएँ कितनी सत्यवती होती हैं !* १. मूलदेव की दूसरी कथा मूलदेव और कंडरीक दोनों कहीं जा रहे थे । रास्ते में उन्हें एक बैलगाड़ी मिली । गाड़ी में एक तरुण अपनी स्त्री के साथ बैठा था । युवती स्त्री को देख कंडरोक ने मूलदेव को इशारा किया । कंडरीक को मूलदेव ने वृक्षों के झुरमुट में छिपा दिया और स्वयं बैलगाड़ी के पास आकर खड़ा हो गया । मूलदेव ने युवक से अनुनय-विनय की २. - महाकवि दण्डी ने दशकुमारचरित में द्यूतविद्या तथा कपटकला की भाँति राजकुमारों के लिए चोरविद्या में कुशल होना आवश्यक कहा है । वसुदेवहिण्डी ( पृ० २१०, २४७-४८ ) में द्यूतसभा और घतशाला का उल्लेख है । जहाँ महाधनी अमात्य, श्रेष्ठी, सार्थवाह, पुरोहित, तलवर, दण्डनायक आदि प्रभूत मणि, रत्न और सुवर्ण राशि लेकर जुगार खेलते थे । इसमें हस्तलाघव की मुख्यता रहती थी । क्षेमेन्द्र, बृहत्कथामंजरी के अन्तर्गत विषमशील प्रकरण । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देखिए, मेरी पत्नी वृक्षों के झुरमुट में लेटी है। प्रसव-वेदना से वह पीड़ित है यदि थोड़ी देर के लिए अपनी पत्नी को उसके पास भेज दें तो कृपा हो। युवक ने अनुमति दे दी। युवक की पत्नी वृक्षों में झुरमुट में कंडरीक के पास पहुँची। वहाँ से लौटकर मूलदेव को उसने बधाई दी कि उसके बेटा हुआ है । तत्पश्चात् मूलदेव को पगड़ी उछाल अपने पति को लक्ष्य करके उसने निम्नलिखित दोहा पढ़ा खडी गड्डीबइल तुहुँ, बेटा जायां ताह । रण्णि वि हुंति मिलावडा, मित्तसहाया जांह ॥' तुम्हारी गाड़ी और बैल खड़े हैं। उसका बेटा हुआ है। जिसके मित्र सहायक होते हैं, उसका अरण्य में भी मिलाप हो जाता है। धूर्त जुलाहा किसी नगर में कोई जुलाहा रहता था। उसकी दुकान पर कुछ धूर्त जुलाहे कपड़े बुना करते थे। १. तुलनीय शुकसप्तति (५९) की ‘राहडभूलडं' इत्यादि गाथा से ।। उपदेशपद , और वादिदेवसूरिकृत टीका, गाथा ९२, पृ ६४; आवश्यकचूर्णी, पृ० ५४९ में भी यह कहानी मिलती है । शुकसप्तति (१) में इस प्रकार की कथा है । यहाँ विष्णु नामक ब्राह्मण, मार्ग में चलते हुए पति के वृक्षोंकी आड़ में जाने पर, उसकी पत्नी के साथ संभोग करता है और उसके साथ गाड़ी में बैठकर चल देता है । उपदेशपद (गाथा ९३, पृ. ६४) में कोई व्यंतरी गाड़ी में जाते हुए किसी पुरुष की स्त्री का रूप बना उसके साथ गाड़ी में बैठकर जाती है । भोजदेव की शृङ्गारमंजरी में मूल देव को धूर्त, अतिविदग्ध, सर्व पाखण्डों का ज्ञाता, सकल कलाकुशल, वंचक और प्रतारक के रूप में उल्लिखित किया है। स्त्रियों के सम्बन्ध में शंकाशील होने के कारण वह अपना विवाह नहीं कराता था। सोमदेव के कथासरित्सागर में भी मूलदेव का आख्यान आता है। वेतालपंचविंशतिका (कथा १३, कथा २२) भी देखिए । उत्तराध्ययन की टीकाओं में पाटलिपुत्र के राजकुमार और उज्जैनी की प्रसिद्ध गणिका देवदत्ता का विस्तृत आख्यान उपलब्ध है। बृहत्कल्पभाष्य ७६० और निशीथभाष्य २०. ६५१७ भी देखिये । हितोपदेश में तीन धूर्तों और ब्राह्मण की कहानी आती है। कोई ब्राह्मण बकरे को अपने कन्धे पर उठाये ले जा रहा था । इन धूर्तो ने उसे ऐसा चकमा दिया कि बिचारा अपने बकरे को कुत्ता समझ उसे छोड़ कर चल दिया। जगदीशचन्द्र जैन , हितोपदेश, संधि, पृ० ११७ । पंचतंत्र के तीसरे तन्त्र में भी यह कहानी आती है। तथा देखिये प्रबंधचिंतामणि, पृ. १३६ । शिव और माधव नामक । कथा के लिए देखिए, कथासरित्सागर, पाँचवां लंबक प्रथम तरंग । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इनमें से : एक जुलाहे का स्वर बहुत मधुर था । अपने मधुर स्वर से वह गाया करता था । जुलाहे की लड़की उसका गाना सुनकर मोहित हो गयी। धूर्त ने कहा-चलो, कहीं भाग चलें। जुलाहे की लड़की ने उत्तर दियामेरी सखी एक राजकुमारी है। हम दोनों ने निश्चय कर रखा है कि हम एक ही पुरुष से विवाह करेंगी। धूर्त -तो उसे भी बुला लो । __ जुलाहे की लड़की ने अपनी सखी के पास समाचार भिजवाया । वह आ गयी ! तीनों चल दिए । _इतने में किसी ने एक गाथा पढ़ी-'हे आम्र ! यदि कणेर के वृक्ष फूल गये हैं तो वसंत के आने पर तुझे फूलना योग्य नहीं । यदि नीच लोग कोई अशोभन कार्य करने के लिए उतारू हो जायें, तो क्या तू भी वही करने लगेगा ?'' यह सुनकर राजकुमारी सोचने लगी--अरे ! ठीक तो है । यदि यह जुलाहे की लड़की इसके साथ जा रही तो क्या मुझे भी उसका अनुकरण करना चाहिए ? ___ यह सोचकर अपनी रत्नों की पिटारी लेने के बहाने वह राजमहल में लौट गयी। चार ढोंगी चन्दन की पत्नी अपने नवजात शिशु को इसलिए स्तनपान नहीं कराती थी कि ऐसा करने से परपुरुष के स्पर्शदोष से उसके शीलभंग हो जाने को आशंका थी। कोई धर्मात्मा ब्राह्मण दर्भ हाथ में लिए जल द्वारा मार्ग का सिंचन कर रहा था । जब वह चंदन की दुकान पर आया तो कहीं से उड़कर एक तिनका उसके सिर पर आ गिरा। चंदन ने उसे हटाना चाहा, लेकिन धर्मात्मा ने यह कहकर मना कर दिया कि वह तिनके की चोरी के अपराध में अपना सिर ही घड से अलग कर देगा ! १. जह फुल्ला कणियारया चूयय । अहिमासयमि पुदठमि । तुह न खमं फुल्लेउं जइ पच्चंता करिति डमराई ॥ २. आवश्यकचूर्णी २. पृ० ५६ । आवश्यक हारिभद्रीय टीका, पृ० ५५६ । आवश्यक नियुक्ति १२३९ में दो कलाओ के उदाहरण में उल्लिखित । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१ एक दिन नगर के बाहर एक वृक्ष पर काठ की भाँति निश्चेष्ट बैठे हुए पक्षी की ओर चन्दन की नजर गई । उसने देखा कि जब वृक्ष के सब पक्षी अपने दाने-पानी के लिए बाहर चले जाते तो वह चुपके से उनके घोंसलों में घुस उनके अण्डे-बच्चों को चट कर जाता ! एक दिन उसे भुजा लटकाये ध्यानमग्न एक साधु दिखायी दिया ! वहाँ एक राजकुमारी आई। साधु ने पहले तो उसे उपदेश दिया और बाद में उसका हार निकाल उसे गड्ढे में मार कर फेंक दिया ! __ चन्दन विचार करने लगा जैसा ढोंगी यह पक्षी है और दंभी यह साधु है; वैसी ही कहीं मेरी पत्नी और यह ब्राह्मण भी तो नहीं ?' प्रवंचक मित्रों की कहानी _ विश्वासपात्र बनकर ठगने वाले वंचक मित्रों की कहानियाँ समराइच्चकहा, कुवलयमाला आदि जैन कथा ग्रंथों में मिलती हैं । मायादित्य और थाणु की कथा का उल्लेख किया जा चुका है । कपटी मायादित्य ने अपने मित्र थाणुको ठगने का प्रयत्न किया लेकिन सफलता न मिली। कपटी मित्र एक बार की बात है, दो मित्रों को कहीं से एक खजाना मिला । दोनों ने सोचा कि शुभ मुहूर्त में इसे निकालकर घर ले जायेंगे। लेकिन एक दिन कपटी मित्र ने चुपचाप खजाना निकाल कर उसके स्थान पर कोयले रख दिए । ___ जब दोनों खजाना निकालने आये तो कपटी मित्र कहने लगा-क्या करें भाई साहब ! अपना भाग्य ही ऐसा है, देखो खजाने के कोयले बन गये ! सच्चा मित्र कुछ नहीं बोला । १. बालेन चुम्बिता नारी, ब्राह्मणो शीर्ष हिंसकः । काष्ठीभूतो वने पक्षी, जीवानां रक्षको व्रतो ।। आश्चर्याणीह चत्वारि मयापि निजलोचनैः । दृष्टान्यहो ततः कस्मिन् विश्रब्धं क्रियतां मनः ॥ मलधारि हेमचन्द्र (१२ वीं शताब्दी), भवभावना। 'रमणी के रूप', में 'विश्वासपात्र कौन' ? कहानी । २. कुवलयमाला. पृ० ५८-५९ । मिलाइए पंचतंत्र, मित्रभेद की धूर्त और चार ब्राह्मणों की कहानी के साथ । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ उसने अपने मित्र की एक मूर्ति बनवाई और दो बंदर पाले । प्रतिदिन वह उस मूर्ति पर बंदरों के खाने की चीजें रख देता और बन्दर मूर्ति पर चढ़ सब खा जाते। एक दिन उसने अपने मित्र के लड़कों को निमंत्रित किया । लड़कों को खाना खिलाकर कहीं छिपा दिया । __जब लड़के समय से घर न पहुँचे तो उनके पिता को बड़ी चिन्ता हुई । लड़कों का पता लगाने वह अपने मित्र के घर आया । सच्चे मित्र ने उस मूर्ति की जगह अपने मित्र को बैठाकर उस पर बन्दर छोड दिये । बन्दर किलकिलाहट करते हुए उसके साथ खेलने-कूदने लगे। अपने मित्र से उसने कहा-लो ये रहे तुम्हारे लाडले! कपटी मित्र- अरे, कहीं लड़के भी बन्दर बनते हुए सुने गये हैं ? सच्चा मित्र-और खजाना ! क्या कभी खजाना कोयला हुआ है ?' दो बनिये एक बार किसी वणिक ने शर्त लगायी कि जो माघ महिने की शीत में रात्रि के समय पानी के अन्दर बैठा रहेगा, उसे एक हजार दिनारें मिलेंगी। एक बूढ़ा बनिया तैयार हो गया । रातभर पानी में बैठे रहकर अगले दिन जब वह अपना इनाम मांगने गया तो वणिक ने पूछा - "अरे भाई, तुम रातभर इतनी सर्दी में बैठे रहकर कैसे जिन्दा निकल आये?" “सेठजी ! एक घर में दीपक जल रहा था। उसे देखते हुए मैं सारी रात पानी में बैठा रहा" --बूढे बनिये ने उत्तर दिया । वणिक्—तो तुम इनाम के हकदार नहीं हो। जलते हुए दीपक को देखकर तुम पानी में रहे न ? ___ बनिया निराश होकर घर लौट आया । एक दिन उसने बहुत से लोगों को दावत के लिए निमंत्रित किया। उस वणिक् को भी निमंत्रित किया गया । १. आवश्यकचूर्णी, पृ० ५५१ । 'दो हजार बरस पुरानी कहानी' (द्वितीय संस्करण में) 'दो मित्रों की कहानी' । मिलाइये, पंचतंत्र, मित्रमेद की 'धर्मबुद्धि और पापबुद्धि' तथा 'जीर्णधन बनिया' कहानियों के साथ । तथा देखिये शुकसप्तति (३९, ५०) कथासरित्सागर (प्र० ३१५). कटवाणिज जातक । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३ लेकिन भोजन के समय बनिये को पीने के लिए पानी नहीं दिया । वणिक ने पानी माँगा। बनिये ने दूर से पानी का लोटा दिखाकर कहा - यह रहा पानी। "क्या पानी को दूर से देखकर प्यास बुझाई जा सकती है." वणिक् ने पूछा। “और जलते हुए दीपक को दूर से देखकर सर्दी दूर हो सकती है ?" बनिये ने उत्तर दिया। इसके अलावा, धूर्त और ककड़ी बेचने वाला कुंजडा', धरोहर वापिस न देने वाला पुरोहित, किसान और गंधीपुत्र आदि अनेक रोचक आख्यान प्राकृत जैन कथा-साहित्य में वर्णित हैं। ये केवल मनोरंजनात्मक ही नहीं हैं, इनके पीछे आचार-व्यवहार और नीति-न्याय की भावना सन्निहित है। ३. मुखौं और विटों की कहानियाँ कथा-कहानियों में मूखों और विटों का महत्त्व भी कम नहीं है । जैसे धूर्तो और ठगों की धूर्तता और ठगी से, वैसे ही मूरों की मूर्खता से भी रक्षा करना आवश्यक है । भरटद्वात्रिंशिका में ३२ कथाओं का संग्रह है। इसे मुग्धकथा का सुंदर उदाहरण कहा जा सकता है, जिसमें मुग्धकथाओं के बहाने, जीवन में सफलता के १. आवश्यकचूर्णी, पृ०) ५२३-२४ । 'दो हजार बरस पुरानी कहानियाँ' (द्वितीय संस्करण ) में 'पंडित कौन' कहानी। २. आवश्यकचूर्णी, पृ० ५४६ । 'दो हजार बरस पुरानी कहानियाँ' में 'कुंजडा और धूर्त' कहानी। तुलनीय शुकसप्तति (५५) की श्रीधर ब्राह्मण और चन्दन चमार की कहानी से तथा देखिये विनोदात्मक कथासंग्रह. कथा ३९ ३. आवश्यकचूर्णी, पृ० ५५० । 'दो हजार बरस पुरानी कहानियाँ' में 'पुरोहित की नियत' कहानी। ४. देखिए; पीछे, पृ. ६० ५. चतुर्माणी के अन्तर्गत ईश्वरदत्तकृत धूर्तविट संवाद से पता लगता है कि पाटलिपुत्र के राज मार्गों में विटों की बहुत भीड़ रहती थी । भरत मुनि ने विट को वेश्योपचार में कुशल, मधुरभाषी, सभ्य, कवि, ऊहापोह करने में सक्षम, वाक्पटु एवं चतुर कहा है । क्षेमेंद्र ने देशोपदेश में उसे क्षीण, गुणविहीन, सदोष, कलासंपन्न तथा कृष्णपक्ष के चन्द्र की भाँति कुटिल कहकर नमस्कार किया है। ६. जे० हर्टल द्वारा संपादित, लाइज़िग, १९२१ । हर्टल का मत है कि इस द्वात्रिं शिका का लेखक गुजरात निवासी कोई जैन बिद्वान् होना चाहिए । यह रचना १९२ ई० पूर्व मौजूद थी। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आकांक्षी पुरुष को अप्रत्यक्ष रूप से शिक्षा दी गयी है । पहली कथा की भूमिका का निम्नलिखित वक्तव्य उल्लेखनीय है-“संसार में निश्रेयस की प्राप्ति के इच्छुक लोगों को सदैव अपने सदाचरण के ज्ञान में वृद्धि करते रहना चाहिए । यह सदाचरण का परिज्ञान मूर्खजनों के चरित पढ़कर हो सकता है। इन चरितों को, लेखक अपनी बुद्धि से कल्पित वस्तु प्रवर्तन के अनर्थ दर्शन द्वारा अभिव्यक्त करता है । इस प्रकार की अभिव्यक्ति तथा मूर्खजनों द्वारा किये जाते हुए आचरण के परिहार के लिए लेखक ने भरटद्वात्रिंशिका की रचना की है।" इन कहानियों में लंपट, वंचक, धूर्त, मूर्ख और मिथ्याभाषी पुरुषों का सरस चित्रण देखने में आता है। ग्रामकवियों का उपहास किया गया है। किसी ग्रामकवि को बहुत याचना करने पर भी कुछ न मिला। लेकिन भरटक (शैव-उपासक साधु) के शिष्य खा-पीकर मौज से रहते थे, यद्यपि वे न कभी पढ़ते-लिखते थे और न कभी काव्य की रचना ही करते थे । इसके विपरीत, वह रोज नये-नये काव्य की रचना करता, फिर भी कर्म की परवशता के कारण भूखा ही मरता।' सातवीं कथा में एक मूर्ख शिष्य की कथा आती है। किसी शिष्य को भिक्षा में ३२ बाटियाँ मिलीं । उसे भूख लगी थी। उसने सोचा कि इनमें से गुरु जी को आधी देनी पड़ेगी, इसलिए वह आधी बाटियों को खा गया । अब सोलह रह गयीं । फिर उसके मन में वही विचार आया । वह फिर आधी खा गया । आठ बच गई । उनमें से फिर आधी खा लीं । चार रह गई, दो रह गई, एक रह गई, अंत में आधी बची। उसे लेकर गुरुजी के पास पहुँचा । उन्होंने पूछा-क्या बस भिक्षा में यही मिला था ? शिष्य-नहीं महाराज ! मुझे भूख लगी थी, बाकी मैं खा गया। गुरुजी-कैसे ? शिष्य ने शेष बची हुई आधी बाटी को भी खाकर बता दिया । भरटक तव चट्टा लंबपुट्ठा समुद्धा । न पठति न गुणंते नेव कव्वं कुणते॥ वयमपि न पठामो किंतु कव्वं कुणामो । तदपि भुख मरामो कर्मणा कोत्र दोषः ॥ -५ वी कथा Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किसी ने ठीक ही कहा है सुख की इच्छा रखने वाले गुरु को मूर्ख शिष्य नहीं बनाना चाहिए । बाटी के भक्षक शिष्य की भाँति वह अत्यंत विडम्बना पहुँचाता है।' तेरहवीं कहानी में स्वर्ग की गाय की कहानी आती है । यह गाय रात्रि के समय स्वर्ग से उतरकर भूलोक पर आ जाया करती और प्रातः काल होने पर अपने स्थान को लौट जाती । लोगों को स्वर्ग में जाने की इच्छा हुई । उसकी पूंछ पकड़ कर वे जाने लगे । लेकिन मार्ग में हाथ के इशारे से स्वर्ग के लहू का परिमाण बताने की लालसा से, पूंछ छूट जाने से, सब लोग नीचे गिरकर मर गये । सोलहवीं कहानी एक जटाधारी शैव-उपासक की है। एक बार उसने अपने शिष्य को बाजार से घी और तेल लाने के लिए कहा । धूपदानी में उसने एक तरफ घी और दूसरी तरफ तेल ले लिया। वापिस लौटकर वह गुरु के पास आया । गुरु ने पूछा-घी और तेल ले आये ? शिष्य ने गुरु के सामने ही पात्र को एक बार सीधा और एक बार औंधा करके दिखा दिया । घी और तेल दोनों जमीन पर गिर गये । कथासरित्सागर में नरवाहनदत्त का विनोद करने के लिए उसका विज्ञ मंत्री गोमुख अनेक मुग्ध कथाएँ सुनाता है । इनमें अगर जलाने वाले वैश्य की कथा, तिल बोने वाले मूर्ख कृषक की कथा, मूर्ख गडरिए की कथा, मूर्ख रुईवाले की कथा, केशमूर्ख की कथा, नमक खाने वाले मूर्ख की कथा, मूर्ख गोदोहक की कथा, तैलमूर्ख की कथा, मूर्ख वण्डाल कन्या की कथा, मूर्ख राजा की कथा, मूर्ख सेवक की कथा, 'कुछ' न माँगने वाली की कथा; ब्राह्मण और धूर्ती की कथा, मूर्ख सेवकों की कथा, अपूपमुग्ध की कथा, महिषीमुग्ध की कथा आदि अनेक सुग्धकथाएँ उल्लेखनीय हैं। प्राकृत कथा साहित्य की एक कहानी देखिये--- मूर्ख लड़का किसी स्त्री का पति मर गया था। उसके एक लड़का था। लड़के ने माँ से पूछा–माँ ! पिताजी क्या करते थे ? मूर्खशिष्यो न कर्तव्यो गुरुणा सुखमिच्छता । विडम्बयति सोत्यन्तं यथा वटकभक्षकः ॥ यह कहानी विश्व कथा-साहित्य में अन्यत्र भी पायी जाती है। ३. देखिए, दशमलंबक, पंचम तरंग १. देखिए, दशम लंबक, षष्ठ तरंग Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ — नौकरी | बालक- मैं भी नौकरी करूँगा । माँ – तू अभी छोटा है, नौकरी करना तेरे बस की बात नहीं । लड़का- -माँ ! मुझे बता, नौकरी कैसे की जाती है । माँ – देख, नौकरी करने वाले को नम्रतापूर्वक व्यवहार करना चाहिए, मालिक का जय-जयकार करना चाहिए, मालिक की आज्ञांनुसार चलना चाहिए । और क्या ? लड़का अपनी माँ के चरणों का स्पर्श कर नौकरी के लिए चल दिया । किसी जंगल में कुछ शिकारी हरिणों की घात लगाये बैठे थे । उन्हें देखकर लड़के ने दूर से जय-जयकार किया । शिकारियों का खेल बखेल हो गया । उन्होंने समझाया - मूर्ख ! ऐसे समय शोरगुल न मचाकर, चुपचाप दबे पांव आना चाहिए । आगे चलने पर उसे कपड़े धोते हुए धोबी दिखायी दिये । धोबियों के कपड़े चोरी चले जाते थे और चोर का पता लगता नहीं था । ६६ लड़का धोबियों की ओर चुपचाप दबे पांवों जाने लगा । उन्होंने उसे चोर समझकर पीटा । धोबियों ने कहा डालने से सफाई आती है । - खार कुछ दूरी पर किसान खेत में बीज बो रहे थे । उसने वही कहाडालने से सफाई आती है । न आयें । - ऐसे समय दबे पांव न आकर कहना चाहिए कि खार उसकी फिर कुटाई हुई । - किसानों ने कहा- ऐसे समय कहना चाहिए कि ऐसे ही और भी हों । आगे चलने पर उसे शव को ले जाते हुए कुछ लोग दिखाई दिये । चिल्लाकर वह कहने लगा – अरे, ऐसे और भी हों । उन लोगों ने कहा - मूर्ख ! ऐसे समय कहना चाहिए ऐसे प्रसंग कभी - कुछ दूरी पर एक बारात मिली । उसने दुहराया — ऐसे प्रसंग कभी न आयें । बारातियों ने समझाया -- ऐसे समय कहना चाहिए कि ऐसे प्रसंग बहुत-से आयें और हमेशा मैं यही देखूं । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ आगे चलने पर उसे एक कैदी दिखाई दिया। उसके पैरों में बेड़ी पड़ी थी और जेल के सिपाही उसे पकड़कर ले जा रहे थे। उसने कहा—ऐसे प्रसंग बहुत-से आये मैं हमेशा यही देखू । __ कैदी ने कहा- ऐसे समय कहना चाहिए कि तुम शीघ्र ही बंधन से मुक्त हो जाओ। कुछ दूर चलने पर बहुत-से मित्र आते हुए दिखायी दिये । उसने कहा-आप शीघ्र ही बंधन से मुक्त हो जायें। उसे फिर अपमानित होना पड़ा । अब की बार उसने एक ठाकुर के घर नौकरी कर ली । एक दिन ठकुराइन ने उसे ठाकुर साहब को भोजन के लिए बुलाने भेजा। ठाकुर साहब कुछ मित्रों के साथ बैठे गपशप कर रहे थे । लड़के ने दूर से सन्देशा दिया-चलिए ठाकुर साहब ! ठकुराइन भोजन के लिए बुला रही हैं। ठाकुर ने घर आकर उसे समझाया -देखो, जब दो आदमी बैठे हों तो ऐसी बात धीरे से आकर कान में कहनी चाहिए । एक दिन ठाकुर के घर में आग लग गयी । ठाकुराइन ने लड़के को जल्दी से ठाकुर को खबर देने को कहा। लड़का ठाकुर के पास पहुँचा और धीरे से कान में कहा-ठाकुर साहब ! चलिए, ठकुराइन बुला रही हैं। घर में आग लग गयी है । ठाकुर ने कहा--मूर्ख ! ऐसे समय घर छोड़कर नहीं जाना चाहिए, वहीं रहकर पानी, गोबर, मढे और दही से जिस तरह भी हो, आग बुझानी चाहिए। एक दिन सर्दी के मौसम में ठाकुर साहब स्नान करके आ रहे थे । उनके शरीर में से भाप निकल रही थी। लड़के ने समझा कि ठाकुर के शरीर में आग लग गयी है। वह पानी, गोबर, मटे, दही और गोमूत्र, जो भी उसके हाथ लगा, उसे ठाकुर के शरीर पर फेंकने लगा।' १. आवश्यक नियुक्ति १३३; मलयगिरिकृत बृहत्कल्पभाष्यवृत्ति, पीठिका, पृ० ५३-५४ । आवश्यकचूर्णी, (पृ० ११०-११) और आवश्यक हारिभद्रीय वृत्ति (पृ. ९.) भी देखिये । 'दो हजार बरस पुरानी कहानियाँ' (प्रथम संस्करण) में 'अक्ल बड़ी या भैंस' कहानी। इस प्रकार की अन्य कहानियों के लिए देखिए बृहत्कल्पभाध्य ३७२ और वृत्ति, पृ. ११० में पंडित और वैयाकरणी की कहानी; 'दो हजार बरस पुरानी कहानियाँ' (प्रथम संस्करण), में 'मूर्ख बड़ा या विद्वान' कहानी, मूर्ख वैद्यराज की कथा के लिए देखिए, वृहत्कल्पभाष्य ३७६ और वृत्ति, पृ० १११-१२; 'दो हजार बरस पुरानी कहानियाँ (द्वितीय संस्करण) में 'वैद्यराज या यमराज' कहानी । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ मूर्ख शिष्य किसी नगर में कोई जटाधारी रहता था । वृद्ध होने के कारण वह ऊँचा सुनने लगा था। एक दिन उसने अपने शिष्य को बुलाकर कहा कि उसे ठीक सुनाई नहीं पड़ता, इसलिए किसी वैद्य के पास जाकर वह बहिरापन दूर करने की औषधि ले आये। शिष्य वैद्य के घर पहुँचा तो वह बाहर से लौटकर आया था । बाहर जाते समय वह अपने जेठे लड़के से उसके छोटे भाई को पढ़ाने के लिए कह गया था । बैद्यजी के पूछने पर जेठे लड़के ने जवाब दिया---पिताजी ! मैंने उससे पढ़ने के लिए बहुत कहा, पर वह सुनता ही नहीं। वैद्यजी को बहुत गुस्सा आया। उन्होंने अपने छोटे लड़के को बुलाकर बहुत मारा । वैद्यजी उसे मारते जाते और बीच-बीच में कहते जाते—तू सुनता है कि नहीं ? शिष्य खड़ा हुआ यह सब देख रहा था । उसने सोचा कि बहिरापन दूर करने की उत्तम औषधि उसके हाथ लग गई है। वह भागा-भागा गुरुजी के पास पहुँचा । गुरुजी को हाथ से पकड़कर उसने जमीन पर गिरा दिया और उन्हें थप्पड़ों और घूसों से मारने लगा। बीचबीच में वह कहता जाता-अभी भी आप सुनते हैं या नहीं ? शिष्य द्वारा गुरु को पिटता हुआ देखकर बहुत-से लोग इकट्ठे हो गये। उन्होंने शिष्य से गुरु को मारने का कारण पूछा । उसने उत्तर दिया-बहिरापन दूर करने की यह सर्वोत्तम औषधि है और यह औषधि वैद्यराज ने उसे बतायी है।' मूर्ख पंडित की कहानी यह कहानी पंचतंत्र की है किसी नगर में चार ब्राह्मण रहते थे। चारों कन्नौज में विद्याध्ययन कर स्वदेश लौट रहे थे । कुछ दूर चलने पर दो रास्ते दिखायी दिये । चारों बैठकर सोचने लगे-- कौनसे रास्ते से गमन करना ठीक होगा ? मलधारी राजशेखर सूरि, विनोदकथासंग्रह कथा २६ । ३० वॉ कथा में व्यवहार में अकुशल चार विद्वानों की कहानी है। भरटद्वात्रिंशिका में भी इस तरह की कथा आती है। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९ उस समय नगर के बनिये का लड़का मर गया था । उसका क्रिया-कर्म करने के लिए लोग उसे श्मशान ले जा रहे थे । पहले पंडित ने पोथी - पुस्तक देखकर कहा - जिस रास्ते से बहुत लोग जायें, उसी रास्ते से जाना चाहिए । ( महाजनो येन गतः स पन्थाः) । ' चारों पंडित महाजनों के साथ चल पड़े । श्मशान में पहुँचकर उन्हें एक गधा दिखायी दिया । दूसरे पंडित ने पुस्तक देखकर कहा -- उत्सव होने पर, कोई दुख आ पड़ने पर, अकाल पड़ने पर, शत्रुजन्य संकट उपस्थित होने पर, राजद्वार पर और श्मशान में जो साथ रहता है, वह बन्धु है ( यस्तिष्ठति स बान्धवः) * तीसरे पंडित ने पुस्तक देखकर कहा धर्म की गति त्वरित होती है (धर्मस्य त्वरिता गतिः), अतः निश्चय ही यह धर्म होना चाहिये । चौथे पंडित ने कहा — बिल्कुल ठीक कहा आपने । लेकिन 'इष्ट वस्तु को धर्म के साथ जोड़ देना चाहिये' ( इष्टं धर्मेण योजयेत् ) । * यह सुनकर सबने उस गधे को ऊँट के गले से बांध दिया । धोबी को जब पता लगा तो वह उन्हें मारने दौड़ा। चारों ने भागकर जान बचायी । आगे चलने पर रास्ते में एक नदी पड़ी । नदी में पलास के पत्ते को तैरते देख एक पंडित ने कहा- - यह आने वाला पत्ता हमें पार उता देगा । १. २. श्मशान में रहने के कारण यह गधा हमारा बन्धु होना चाहिए । इसपर कोई गधे को गले से लगाने लगा और कोई उसके पांव धोने लगा । इस समय उन्हें एक ऊँट दिखायी दिया । ३. ४. श्रुतिर्विभिन्ना स्मृतयश्च भिन्ना, नैको मुनिर्यस्य वचः प्रमाणम् । धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां महाजनो येन गतः स पन्थाः ॥ उत्सवे व्यसने चैव दुर्भिक्षे शत्रुविग्रहे । राजद्वारे श्मशाने च यस्तिष्ठति स बान्धवः ॥ क्षणं चित्तं क्षणं वित्तं क्षणं जीवति मानवः । यमस्य करुणा नास्ति धर्मस्य त्वरिता गतिः ॥ सत्कुले योजयेत् कन्यां पुत्रं विद्यासु योजयेत् । ब्यसने योजयेच्छत्रु इष्टं धर्मेण योजयेत् ॥ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० यह कहकर उसने पत्ते का आश्रय लेने की कोशिश की तो वह नदी में गिर पड़ा। दूसरे पण्डित ने उसके बाल खींचकर उसे बचाने की कोशिश करते हुए कहा'सर्वनाश उपस्थित होने पर पंडित लोग आधी वस्तु को छोड़ देते हैं' .. ( सर्वनाशे समुत्पन्ने अर्धं त्यजति पण्डितः )' अतएव इसे छोड़ देना ही ठीक होगा । यह सुनकर दूसरे पंडित ने उसका सिर धड़ से अलग कर दिया । आगे चलकर किसी गांव में उन्हें भोजन का न्यौता मिला । पहले पंडित को भोजन में घी और खांड की सेवइयाँ मिलीं । उसने सोचा'लम्बे सूतवाला नष्ट हो जाता है' (दीर्घसूत्री विनश्यति)। वह भोजन छोड़कर चल दिया । दूसरे पंडित को मांड़े मिले । उसने सोचा-'जो लंबा-चौड़ा और विस्तार वाला होता है, वह बहुत दिन नहीं जीता' (यदतिविस्तार विस्तीर्णं तद् भवेन्न चिरायुषं)। वह भी भोजन छोड़कर चला गया । तीसरे पंडित को बाटियाँ मिलीं । उसने सोचा---'छिद्रों में अनर्थ बहुत होते हैं ' (छिद्रेष्वना बहुली भवन्ति)। वह भी बिना भोजन किये चला गया । २ तीनों पंडित भूखे-प्यासे लौट आये ! ४. बुद्धिचमत्कार की कहानियाँ निम्नलिखित कहानियों में बुद्धि का चमत्कार लक्षित होता है । इस प्रकार की अनेक लोकजीवन की कथाएँ प्राचीन काल में प्रचलित थीं । शिष्यों का संवाद किसी सिद्धपुत्र के निमित्तशास्त्रवेत्ता दो शिष्य थे। एक बार वे घास-लकड़ी लेने जंगल में गये । वहाँ उन्हें हाथी के पाँव दिखाई दिये। पहला शिष्य-ये पाँव हथिनी के होने चाहिए । दूसरा शिष्य- तुमने कैसे जाना ? १. श्लोक का उत्तरार्ध । अर्धेण कुरूते कार्य सर्वनाशो हि दुःसहः ।। २. पांचवां तंत्र, कथा ४ । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "उसकी लघुशंका देखकर । और वह एक आँख से कानी है।" "कैसे पता लगा ?" "उसने एक ही तरफ की घास खायी है । और उसपर एक स्त्री और एक पुरुष बैठे हुए थे।" "कैसे जाना ?" "उनकी लघुशंका देखकर । और वह स्त्री गर्भवती थी।" "कैसे ?" "वह अपने हाथों का सहारा लेकर उठी थी। और उसके पुत्र पैदा होगा।" "कैसे पता लगा ?" "उसका दाहिना पांव भारी था । और वह लाल रंग के वस्त्र पहिने हुए थी। "कैसे जाना ?" "लाल धागे आसपास के वृक्षों पर लटके हुए थे ।' मंत्रीपद पर नियुक्त करने के पूर्व राजा पुरुषों की परीक्षा लेता और जो परीक्षा में सफल होता, उसे मंत्रीपद दिया जाता । अकबर और बीरबल को कहानियों के ढंग की निम्न कहानियों में बुद्धि का चमत्कार मुख्यतया देखने में आता है। चतुर मंत्री उज्जयिनी के राजा के चार सौ निन्यानवे मंत्री थे ; एक की कमी थी। राजा ने सोचा, जो परीक्षा में सफल होगा, उसे वह प्रधान मंत्री के पद पर नियुक्त करेगा। उज्जयिनी के पास नटों का एक गांव था । राजा ने गांववालों के पास एक मेंढा भिजवाया और कहा कि देखना, यह मेंढ़ा पंद्रह दिन बाद भी वजन में उतना ही रहे; न घटे, न बढ़े। उस गांव में भरत नामक नट का पुत्र रोहक रहता था अपनी प्रत्युत्पन्न मति के लिए वह दूर-दूर तक प्रसिद्ध था । रोहक से पूछा गया। उसने कहा-इसमें कान बड़ी बात है ? उसने मेंढ़े को एक भेड़िए के सामने बांध दिया और उसे घास खिलाता रहा । घास खाते रहने से मेंढ़े का वजन घटा नहीं और भेड़िए के डर से बढ़ा नहीं। १. आवश्यक चूर्णि, पृ० ५५३, आवश्यक, हारिभद्रीय वृत्ति, पृ० ४२३ । वैनेयिकी बुद्धि का यह उदाहरण है। इस प्रकार की कहानियाँ गुणाव्य की बृहत्कथा में रही होंगी। नंदिसूत्र (२६) में चार प्रकार की बुद्धियाँ बताई गई हैं-औत्पातिकी, वैनयिकी, कर्मजा और पारिणामिकी । अभयकुमार की बुद्धि के ये उदाहरण हैं । वैनयिकी में निमित्त, अर्थशास्त्र, लेखन, गणित, कूप, अश्व, गर्देभ, लक्षण, ग्रंथि. अगद, गणिका, रथिक, शीता शाटिका, तीब्रोदक, और गोछोटक के उदाहरणों के लिये देखिये आवश्यक नियुक्ति ९३८-३९, उपदेशपद गाथा १००-१२०, पृ. ७२-९१ । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक दिन राजा ने एक मुर्गा भेजा और आदेश दिया कि दूसरे मुर्गों की सहायता के बिना लड़ाकू बनाकर भेजो । रोहक ने मुर्गे के सामने एक बड़ा दर्पण रख दिया। मुर्गा दर्पण के मुर्गे को देखकर उसके साथ युद्ध करना सीख गया । एक दिन राजा ने एक बूढ़ा हाथी भेजा और कहा कि इसके समाचार भिजवाते रहना. लेकिन कभी यह न कहना कि हाथी मर गया है । अगले दिन रोहक से पूछकर गांव वाले राजा के पास पहुँचे । उन्होंने निवेदन किया-महाराज ! हाथी न कुछ खाता है, न पीता है, न उसकी सांस ही चलती है। राजा ने पूछा-तो क्या वह मर गया है ? गांव के लोगों ने उत्तर दिया-यह तो हम नहीं कह सकते । राजा ने और भी अनेक प्रकार से रोहक की परीक्षा ली । उसकी बुद्धिमत्ता से राजा बहुत प्रसन्न हुआ। उसने रोहक को बुलवाया । लेकिन शर्त थी कि वह न शुक्ल पक्ष में आये, न कृष्ण में, न रात में, न दिन में, न छाया में, न धूप में, न आकाश में होकर, न पैदल चलकर, न गाड़ीघोड़े पर सवार होकर, न सीधे रास्ते, न उल्टे रास्ते, न नहाकर, न बिना नहाये, परन्तु आना उसे अवश्य चाहिये । राजा का आदेश पाकर, रोहक ने सुबह उठकर आकण्ठ स्नान किया और गाड़ी के पहियों के बीच एक मेंढ़ा जोत, उसपर सवार हो, चलनी का छाता लगा, एक हाथ में मिट्टी का पिण्ड ले, अमावस्या के दिन, संध्या के समय राजा के दर्शन के लिए चल पड़ा। राजा ने प्रसन्न हो रोहक को प्रधानमंत्री बना लिया ।' १. आवश्यक चूर्णी, पृ० ५४५-४६ । औत्पातिकी बुद्धि का यह उदाहरण है। औत्पा तिकी में भरतशिला, पणित, वृक्ष, क्षुल्लक, बाल, पट, तरट, काक, उच्चार, गज, भाण्ड, गोल, स्तंभ, क्षुल्लक शिष्य, मार्गस्त्री, पति, पुत्र, मधुसिक्थ, मुद्रिका, अंक, नाणक, भिक्षु, चेटक, शिक्षा, अर्थशास्त्र, इच्छा और शतसहस्र इन २६ उदाहरणों के लिये देखिये आवश्यक नियुक्ति ९३४-३६, उपदेशपद गाथा ५२-१०६, पृ० ४८-७१ । तुल. नीय बौद्धों के महाउम्मम्ग जातक से, जहाँ रोहक का काम महोसध नामक मंत्री करता है। विदेह के राजा को असाधारण मंत्रियों की आवश्यकता थी। यहाँ १९ प्रश्नोत्तरों द्वारा महोसध की परीक्षा की गई है । ऋग्वेद में नमुचि और इन्द्र की कथा आती है । नमुचि इन्द्र को निम्नलिखित शर्तों पर मुक्त करने को राजी हुआ था-वह उसकी (नमुचि की) न दिन में हत्या करेगा, न रात में, न दण्ड से और न आघात से, न तमाचे से और न घूसे से, न किसी गीली वस्तु से और न सुखी से । इन्द्र ने जल के झागों से, प्रातःकाल में नमुचि की हत्या करना उचित समझा । देखिए, 'असंभव प्रतीत होने वाली परिस्थितियों से कैसे बचा जाये-' नामक 'मोटिफ' संबन्धी एम. ब्लूमफील्ड का जरनल आफ अमेरिकन ओरिएंटल सोसायटी, जिल्द ३६ में लेख । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३ समराइच्चकहा के अलावा, सुविख्यात कथाकार हरिभद्रसूरि ने आवश्यकवृत्ति, दशवैकालिकवृत्ति तथा उपदेशपद में अपनी लाक्षणिक और प्रतीतात्मक शैली में लिखी हुई सरस कथाओं का समावेश कर प्राकृत जैन कथासाहित्य को समृद्ध बनाया है । इन कथाओं में हास-उपहास और व्यंग्य की पर्याप्त मात्रा पायी जाती है । देखिये-- एक क्षुल्लक और बौद्ध भिक्षु किसी बौद्ध भिक्षु ने एक बार गिरगिट को अपना सिर धुनते हुए देखा । उस समय वहाँ एक क्षुल्लक उपस्थित हुआ। बौद्ध भिक्षु-क्षुल्लक ! तुम तो सर्वज्ञ के पुत्र हो ! कह सकते हो यह गिरगिट अपना सिर क्यों धुन रहा है ? क्षुल्लक हे शाक्यवति ! तुम्हें देख यह चिन्ता से व्याकुल हुआ, ऊपरनीचे देख रहा है। तुम्हारी दाढ़ी-मूंछ देखकर इसे लगता है कि तुम भिक्षु हो, लेकिन जब यह तुम्हारे चीवर पर दृष्टिपात करता है तो मालूम होता है तुम भिक्षुणी हो। इसके सिर धुनने का यही कारण है।' कितने कौए! बौद्ध भिक्षु ने किसी क्षुल्लक से प्रश्न किया--बता सकते हो, इस बेन्यातट पर कितने कौए हैं ? क्षुल्लक साठ हजार । बौद्ध भिक्षु तुमने कैसे जाना ? यदि कम-ज्यादा हुए तो ? क्षुल्लक -यदि कम हैं तो समझ लीजिए कुछ विदेश चले गये हैं । यदि अधिक हैं तो समझ लीजिए कि बाहर से आ गये हैं। दिगम्बर साधु और बौद्ध भिक्षु । कोई बौद्ध भिक्षु संध्या के समय थक जाने के कारण दिगम्बर साधुओं की वसति में ठहर गया। दिगम्बर साधुओं के उपासकों को यह अच्छा न लगा । उसे दरवाजे वाली एक कोठरी में ठहरने को कहा गया । १. उपदेशपद, गाथा ८४ टीका, पृ. ६० अ । औत्पातिकी बुद्धि का उदाहरण । २. वही, गाथा ८५, पृ० ६१ । औत्पातिकी बुद्धि का उदाहरण । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ जब भिक्षु सोने को गया, तो लोगों ने कोठरी में एक दासी को बन्द कर बाहर से दरवाजा लगा दिया । भिक्षु समझ गया कि ये लोग उसे बदनाम करना चाहते हैं । उसने कोठरी में जलते हुए दीपक में अपना चीवर जला डाला । संयोगवश वहाँ एक रक्खी हुई पीछी भी उसे मिल गयी । प्रातःकाल होने पर बौद्ध भिक्षु अपने दाहिने हाथ से दासी को पकड़, कोठरी से बाहर निकला । १. वह ऊँचे स्वर में दिगम्बर साधुओं की ओर लक्ष्य करके कहने लगा- अरे ! जैसा मैं हूँ, वैसे ही ये सब हैं ।' ५. नीति सम्बन्धी कथाएँ नीति अर्थात् व्यवहार, बर्ताव, आचरण, मार्गदर्शन अथवा व्यवस्था । नीतिशास्त्र जानकर हम व्यवहारज्ञान यानी दुनियादारी सीखते हैं और सावधानीपूर्वक आत्मरक्षा में प्रवृत्त होते हैं। इससे जीवन का विकास होता है, समाज में व्यवस्था फैलती है और सुख और शान्ति का लाभ होता है । कथाश्रवण से पापों का नाश होना बताया गया है । सामान्य मनुष्य की प्रवृत्ति शास्त्रों में कम होती है, जबकि कथाश्रवण से उसे आनन्द मिलता है और साथ ही उद्बोध और ज्ञान भी पैदा होता है । महान् पुरुषों के उद्बोधन के लिए कहानी सबसे श्रेष्ठ माध्यम है । उदाहरण के लिए, जिन विषयों को मंत्रीगण राजा तक स्वयं पहुँचाने में संकोच का अनुभव करते हैं, उन्हें पशु-पक्षी, लौकिक अथवा अलौकिक कहानियों के बहाने प्रभावशाली ढंग से उन तक पहुँचाया जा सकता है । कुटिलजनों के प्रति ब हमारी ऋजुता सफल नहीं होती तब नीति से ही काम लेना पड़ता है । शास्त्रों में उपदेशपद, गाथा १००, पृ० ६८अ - ६९ । औत्पातिकी बुद्धि का उदाहरण । शुकसप्तति (२६) में भी इसी तरह की कहानी है । यहाँ बौद्ध भिक्षु की जगह श्वेतांबर साधु ले लेता है । चंद्रपुरी नगरी में सिद्धसेन नामक क्षपणक रहता था जिसका लोग बहुत आदर करते थे । वहाँ एक श्वेतपट ( श्वेतांबर साधु ) का आगमन हुआ और उसने सब श्रावकों को अपने आधीन कर लिया । क्षपणक को जब यह सहन नहीं हुआ तो उसने श्वेतपट के उपाश्रय में किसी वेश्या को भेजकर अफवाह उड़ा दी कि वह साधु वेश्यालोलुपी है । प्रातः काल होने पर श्वेतपट, दीपक में अपने वस्त्रों को जला, वेश्या का हाथ पकड़कर बाहर निकला। उसे देख लोग कहने लगे-अरे ! यह तो क्षपणक है! उपदेशपद और शुकसप्तति की कहानी का तुलनात्मक अध्ययन उपयोगी सिद्ध होगा । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'अप्रिय सत्य' कहने का निषेध है लेकिन कहानी का सत्य ‘प्रिय सत्य' होने से जल्दी गले उतर सकता है। संस्कृत में तंत्राख्यान, पंचतंत्र, हितोपदेश आदि नीतिशास्त्र संबन्धी ऐसा भरपूर, कथा-साहित्य है जिसमें कथा के बहाने मनोरञ्जक एवं शिक्षाप्रद जीवनोपयोगी बातें कही गयी हैं।' पंचतंत्र-नीति का शास्त्र कहते हैं कि महिलारोप्य नगर में अमरशक्ति नामक राजा था। उसके तीन पुत्र थे, लकिन थे तीनों वज्रमूर्ख । अपनी सभा के पंडितों से राजा ने सलाह-मश्वरा किया। एक पंडित बोला----महाराज ! १२ वर्ष में व्याकरण पढ़ा जाता है, फिर मनु महाराज का धर्मशास्त्र, फिर चाणक्य का अर्थशास्त्र और उसके बाद वात्स्यायन का कामशास्त्र समझ में आता है। उसके बाद ही ज्ञान की प्राप्ति हुई समझनी चाहिए। ___ यह सुनकर एक मंत्री ने निवेदन किया-महाराज ! पंडितजी ने ठीक कहा है। यह जीवन बहुत समय तक टिकने वाला नहीं, और शास्त्रों का ज्ञान विशाल है । अतएव राजपुत्रों को विद्वान् बनाने के लिए कोई ऐसा शास्त्र पढ़ाना चाहिए जिससे अल्प काल में ही बोध हो सके ।। सकलशास्त्रों का पंडित विष्णुशर्मा राजपुत्रों को पढ़ाने के लिए तैयार हो गया । उसने सिंह गर्जना की कि यदि छह महिने के अंदर वह राजपुत्रों को नीतिशास्त्र का पंडित न बना दे तो वह अपना नाम बदल देगा । इससे पता लगता है कि पंचतंत्र की रचना वस्तुतः राजकुमारों के लिए की गयी थी, यद्यपि आगे चलकर बालकों के अवबोध के लिए इसका उपयोग किया जाने लगा। पंचतंत्र को नीतिशास्त्र अथवा अर्थशास्त्र भी कहा गया है । समस्तशास्त्रों का यह नीचोड़ है और नीतिशास्त्र संबंधी उसमें अनेक सुंदर आख्यान हैं। विविध कथा-कहानी तथा सुभाषित और सूक्तियों द्वारा यहाँ राजनीति एवं लोकव्यवहार की शिक्षा दी गयी है। ___ इसकी नीति और व्यवहार ज्ञान संबंधी लोकप्रचलित कहाँनियों में विद्या की अपेक्षा बुद्धि तथा बल-पराक्रम की अपेक्षा युक्ति और उपाय को मुख्य बताया है। कहानियों के पात्र प्रायः पशु-पक्षी हैं जो हमारी और आपकी तरह बोलते, बातचीत करते और सोचते-विचारते हैं। कहानियों को पढ़ते हुए जल्दी ही उनसे हम १. कथाच्छलेन बालानां नीतिस्तदिह कथ्यते। हितोपदेश २. पंचतंत्र, कथामुख ३. ततः प्रभृत्येत्पञ्चतन्त्रकं नाम नीतिशास्त्रं बालावबोधनार्थं भूतले प्रवृत्तम्-कथामुख । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ आत्मीयता स्थापित कर लेते हैं । सियार को कपटी, कौए को धूर्त, बगुले को भी, बिलाव को पाखंडी, उल्लू को भयानक, ऊंट को सरल, टिटहरे को घमण्डी और गर्दभ को मूर्ख के रूप में चित्रित किया गया है । रामायण, महाभारत आदि संस्कृत महाकाव्यों अथवा अधिकांश संस्कृत नाटकों की भाँति नीति के इन ग्रंथों में शक्तिशाली राजाओं, विजेता सेनापतियों, प्रतिष्ठित पुरोहितों, राजमहिषियों, राजकुमारियों और श्रेष्ठियों का नहीं, बल्कि मध्यमवर्ग व्यापारियों, कृषकों, कर्मकरों, स्वार्थी ब्राह्मणों, धूर्तों, कपटी साधुओं, वेश्याओं और कुट्टिनियों आदि सामान्य जनों के वास्तविक जीवन के विविध रूपों का चित्रण देखने में आता है । दुर्भाग्य से मूल पंचतंत्र अप्राप्य है, इसके केवल उत्तरकालीन संस्करण ही मिलते हैं । ' पंचतंत्र के विशिष्ट अध्येता डाक्टर हर्टल के अनुसार, पंचतंत्र के सर्वाधिक लोकप्रिय संस्करण जैन विद्वानों द्वारा तैयार किये गये हैं । इसका Textus simplicior नामक संस्करण किसी अज्ञातनामा जैन विद्वान् द्वारा ९ वीं और ११ वीं शताब्दी के बीच तैयार किया गया। पंचाख्यान या पंचाख्यानक ( Textus ornator) नामक दूसरा संस्करण पूर्णभद्रसूरि ने सन् १९९९ में तंत्राख्यायिक (रचनाकाल ई०पू० २००) और textus simplicior के आधार पर तैयार किया । अपनी रचना के अंत में लेखक ने विष्णुशर्मा का नामोल्लेख करते हुए लिखा है कि सोममंत्री के आदेश से, समस्त शास्त्र पंचतन्त्र का आलोकन कर, राजनीति के विवेचनार्थ, प्रत्येक अक्षर, पद, वाक्य, कथा और श्लोक का संशोधन कर इस शास्त्र की रचना १. विण्टरनित्स के हिस्ट्री आफ इंडियन लिटरेचर, जिल्द 3, भाग १, पृ० ३०९-१० में निम्नलिखित संस्करणों का उल्लेख है (क) तन्त्राख्यायिका ( रचनाकाल ई०पू० २००) । (ख) पहलवी का अनुवाद ( रचनाकाल ५७० ई० ) । इस पंचतन्त्र का मूल और अनुपहलवी से सीरियायी और अरबी और अनुवाद हुए, उनसे मूल संस्कृत और पहलवी वाद दोनों ही अप्राप्य हैं । लेकिन अरबी से जो यूरोपीय भाषाओं में अनुवाद का पता लगता है । (ग) पंचतन्त्र का अंश जो गुणाढ्य को बड्ढकहा में अन्तर्भूत था, और अब क्षेमेन्द्र की बृहत्कथामंजरी और सोमदेव की कथासरित्सागर में उपलब्ध 1 (घ) दक्षिण भारतीय पंचतंत्र ( रचनाकाल ७ वीं शताब्दी ई० के बाद) । तंत्राख्या यिक के यह निकट है । (ङ) श्लोकों का नैपाली संग्रह । दक्षिण भारतीय संस्करण के यह निकट है । इसकी हस्तलिखित प्रति उपलब्ध है । Page #86 --------------------------------------------------------------------------  Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कितनी ही नयी कहानियों एवं सूक्तियों का समावेश किया। इस ग्रन्थ की भाषावैज्ञानिक विशेषताओं पर से हर्टल को मान्यता है कि अन्य बातों के साथ-साथ ग्रन्थ कर्ता ने अपनी रचना में प्राकृत रचनाओं अथवा कथाओं का लौकिक भाषा में उपयोग किया है।' यहाँ प्राकृत जैन कथा ग्रंथों में पाये जाने वाले पशु-पक्षियों, पुरुषों और स्त्रियों संबंधी कतिपय मनोरंजक लौकिक आख्यान दिये जाते हैं जिनकी तुलना पंचतंत्र, जातक, शुकसप्तति, बेतालपंचविंशतिका, कथासरित्सागर आदि की कथाओं से की जा सकती है ।। सर्वप्रथम हम पशु-पक्षियों की कहानी लेते हैं । पशु-पक्षियोंकी कहानियाँ सियार और सिंह किसी सियार ने मरा हुआ हाथी देखा । वह सोचने लगा--बड़े भाग्य से मिला है, निश्चिन्त होकर खाऊँगा । इतने में वहाँ एक सिंह आ पहुँचा । कुशल-क्षेम के पश्चात् सिंह ने पूछायह किसने मारा है ? सियार-व्याघ्र ने महाराज ! सिंह ने सोचा, अपने से छोटों द्वारा मारे हुए शिकार को नहीं खाना चाहिए। वह चला गया । इतने में व्याघ्र आ गया । व्याघ्र के पूछने पर गीदड़ ने कह दिया कि सिंह ने मारा है। व्याघ्र पानी पीकर चल दिया। थोड़ी देर बाद एक कौआ आया । गीदड ने सोचा-यदि इसे न दूंगा तो इसकी काँव-काँव सुनकर बहुत-से कौए इकट्ठे हो जायेंगे। फिर बहुत से सियार आ जायेंगे । किस-किसको रोकूँगा मैं ? सियार ने कौए की तरफ मांस का एक टुकड़ा फेंक दिया । कौआ लेकर उड़ गया। १. विण्टरनित्स, वही, पृ० ३२४ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९ उसके बाद एक सियार आ धमका । उसने सोचा-यह बराबरी का है, इसे मार भगाना ही ठीक है । . उसने भृकुटी चढ़ाकर उस सियार के ऐसी जोर की लात जमायी कि वह भागता ही नजर आया। किसी ने ठीक ही कहा है"उत्तमं प्रणिपातेन शूरं भेदेन योजयेत् । नीचमल्पप्रदानेन, समतुल्यं पराक्रमैः ॥" उत्तम को नम्रता से, शूरों को भेद से, नीच को थोड़ा-सा देकर और बराबरवालों को पराक्रम से जीते । खसद्रुम गीदड़ एक बार कोई गीदड़ रात के समय जंगल में से भागकर किसी गांव में आ गया और जब कहीं उसे बाहर जाने का रास्ता न मिला तो एक घर में घुस गया। गीदड़ को घर में घुसा हुआ देख लोग उसे मारने दौड़े । गीदड़, भागता भागता घर के बाहर आया। लेकिन वहाँ कुत्ते उसके पिछे लग गये । वह एक नीलकुण्ड में गिर पड़ा । बड़ी मुश्किल से उस कुण्ड में से बाहर निकला । बाहर निकलते ही वह जंगल की ओर भागा । १. यह श्लोक महाभारत, (आदिपर्व, संभवपर्व, अध्याय १४०. ५०-५१) में जंबुक कथा में निम्न रूप में मिलता है--- भयेन भेदयेद् भीरू शूरमजलिकर्मणा । लुब्धमर्थप्रदानेन समं न्यून तथौजसा ॥ डॉ. प्रभाकर नारायण कवठेकर, संस्कृत साहित्य में नीतिकथा का उद्गम एवं विकास, पृ० ३७४ । २. दशवैकालिकचूर्णी, पृ० १०४-५ । पंचतंत्र (लब्धप्रणाश) में भी यह कथा आती है। सियार सिंह को विनम्र भाव से उत्तर देता है कि उसके लिए वह हाथी की रक्षा में नियुक्त है । व्याघ्र से कहता है--सिंह हाथी को मारकर नदी में स्नान करने गया है, तुम जल्दी ही भाग जाओ । उसके बाद चीता आता है। उससे कहता है कि जब तक सिंह लौटकर आये, तू हाथी का मांस खाकर तृप्त हो ले । जब चीते के मुँह मारने से हाथी की खाल फट जाती है तो गीदड उसे जल्दी से सिंह के आने की सूचना देता है। चीता भाग जाता है । कौए का नाम यहाँ नहीं है । 'उत्तमं प्रणिपातेन' श्लोक यहाँ उद्धृत है। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुण्ड में गिरने से गीदड़ का शरीर नीले रंग में रंग गया था । जंगल के जानवर उससे पूछते-तेरा यह रूप-रंग कैसे बदल गया ? "जंगल के सब प्राणियों ने मिलकर मुझे खसद्रुम नामक राजा नियुक्त किया है। अब तुम सबको मेरी आज्ञा का पालन करना होगा".--गीदड़ जवाब देता है । जंगल के जानवर उसे राजा समझ, उसका आदर करने लगे । वे एक हाथी पकड़कर लाये । खसद्रुम उसपर सवारी कर शान के साथ जंगल में घूमने लगा। ___ एक दिन रात के समय सब गीदड़ हाउ-हाउ कर रहे थे। खसद्रुम भी उनकी आवाज में आवाज मिलाकर 'हाउ-हाउ' करने लगा। हाथी को जब यह मालूम हुआ तो उसने अपनी सूंढ में लपेट उसे मार डाला !' । घण्टीवाला गीदड एक बार किसी किसान के खेत में ईख की अच्छी फसल हुई। खेत में गीदड आने लगे। किसान ने सोचा कि इस तरह तो ये गीदड़ सारा ईख खा डालेंगे, अतएव खेत के चारों ओर एक खाई खुदवा देनी चाहिए। एक दिन एक गीदड़ खाई में गिर पड़ा। किसान ने उसे खाई में से निकलवा, उसके कान-पूंछ काट, व्याघ्र की खाल उढ़ा, गले में एक घंटी बाँध, उसे छोड़ दिया । गीदड़ जंगल में भाग गया। उसके साथी उसे देख भय के मारे भागने लगे । रास्ते में उन्हें भेड़िये मिले । भेड़ियों के पूछने पर उन्होंने कहाविचित्र शब्द करता हुआ कोई अद्भुत प्राणी दौड़ा आ रहा है, भागो । भेड़िये भी भागने लगे। आगे चलकर व्याघ्र मिले । वे भी डर के मारे उनके साथ भागने लगे । कुछ दूरी पर चीते मिले । वे भी इनके साथ हो गये। मार्ग में एक सिंह बैठा हुआ था । जानवरों को भागते देख उसने उनके भांगने का कारण पूछा । उन्होंने कहा--कोई अद्भुत प्राणी पीछा कर रहा है । बचने का कोई उपाय नहीं । १ बदन्कल्पभाष्य और वृत्ति. उद्देश १.३२५१; व्यवहारभाष्य ३.२७। पंचतंत्र (मित्रभेद) में गीदड का नाम चंडरव है । जंगल के जानवरों से वह कहता है कि ब्रह्मा ने उसे जंगल का ककुद्रुम राजा बनाया है। हाथी का यहाँ नाम नहीं है। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस समय घण्टी की अवाज करता हुआ गीदड़ वहाँ से गुजरा । सिंह ने उसके पास जाकर देखा तो पता लगा कि गीदड़ है । सिंह ने दबोच कर उसे मार डाला।' लालची गीदड़ किसी भील ने जंगल में एक हाथी देखा । उसे देखकर वह एक विषम प्रदेश में खड़ा हो गया। जब उसने देखा कि उसके बाण के प्रहार से हाथी गिर पड़ा है, तो वह डोरी चढे हुए धनुष को नीचे रख, हाथ में फरसा ले, हाथीदांत और उसके गंडस्थल के मोती लेने के लिए हाथी पर प्रहार करने लगा। लेकिन हाथी के गिरने से दबे हुए महाकाय सर्प से डसे जाने के कारण वह गिर पड़ा। उधर घूमते-फिरते हुए एक गीदड़ की नजर मरे हुए हाथी, मनुष्य, सर्प और धनुष पर पहुँची । वह डरकर पीछे हट गया । लेकिन लोलुपता के कारण वहाँ बार-बार आकर झांकने लगा। थोड़ी देर बाद उन सबको निर्जीव समझ, निश्शंक, और सन्तुष्ट हो वह सोचने लगा हाथी को तो मैं जीवन-भर खा सकता हूँ, मनुष्य और सर्प से कुछ समय के लिए मेरा काम चल जायेगा, इसलिए पहले मैं क्यों न धनुष की डोरी खाकर पेट भरूँ? यह निश्चय कर जब उसने धनुष की डोरी चबाना शुरू किया तो धनुष की कोटि छिटक कर उसके तालू में लगी और वह वहीं ढेर हो गया । १. बृहत्कल्पभाष्य ७२१-२३ और वृत्ति, पीठिका, पृ० २२१ । देखिए सीहचम्मजातक (१८९), दद्दभजातक (३२२); और पंचतंत्र की वाचाल रासभ कथा (४. ७)। २. वसुदेवहिंडी, पृ० १६८-६९ । उपदेश के रूप में यहाँ कहा गया है कि जो इंद्रियजन्य सुख में प्रतिबद्ध होकर परलोकसाधन में निरपेक्ष रहता है, वह गीदड़ की भाँति मरण को प्राप्त होता है । आवश्यकचूर्णी, पृ० १६८-६९। पंचतंत्र (मित्रसंप्राप्ति) में यह कहानी आती है । यहाँ जंगली सूअर द्वारा पेट फाड डालने से भील की मृत्यु होती है । सूअर भी भील का बाण लगने से मर जाता है । साँप का नाम यहाँ नहीं है । हितोपदेश, मित्रलाभः और कथासरित्सागर भी देखिए; तथा मूल सर्वास्तिवाद का विनयवस्तु, पृ० १२१-२२ । ११ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किसी जंगल में एक सिंह रहता था । हरिण का मांस उसे बहुत अच्छा लगता था । प्रतिदिन वह हरिण मारकर खाता । ८२ खरगोश और सिंह एक दिन जंगल के सब हरिण मिलकर जंगल के राजा के पास पहुँचे । उन्होंने निवेदन किया - महाराज ! हम लोग प्रतिदिन जंगल में से एक प्राणी आपके भोजन के लिए भेजेंगे, कृपा कर हमारी रक्षा करें । सिंह ने स्वीकृति दे दी । उसे अब घर बैठे शिकार मिलने लगा । एक बार एक बूढे खरगोश की बारी आई । जब खरगोश सिंह के पास पहुँचा तो सूर्योदय हो चुका था । सिंह ने गरज कर पूछा- रे दुष्ट ! इतनी देर कहाँ था ? खरगोश ने डरते-डरते उत्तर दिया- "महाराज ! जब आपके पास आ रहा था, रास्ते में मुझे एक दूसरा सिंह मिल गया । उसने पूछा ---- कहाँ जा रहे हो ? मैंने कहा - जंगल के राजा के पास । वह बोला - क्या ? जंगल के राजा के पास ? मेरे सिवाय जंगल का राजा और कौन है ? मैंने निवेदन किया - महाराज ! यदि मैं उसके पास न जाऊँगा तो वह मुझे और मेरे साथियों को मार डालेगा " । खरगोश की बात सुनकर सिंह आग-बबूला हो गया । वह बोला - बता, वह दुष्ट कहाँ रहता है ? मैं उसे अभी मजा चखाता हूँ । वह खरगोश के साथ चल दिया । कुछ दूर चलने पर खरगोश ने एक कुएँ की ओर इशारा किया -- महाराज ! वह यहीं रहता है । देखिए, आप कुएँ पर बैठकर गर्जना कीजिए । आपकी गर्जना का उत्तर वह प्रतिगर्जना से देगा । गया है । सिंह को निश्चय हो गया कि अवश्य ही वह डर के मारे कुएँ में उतर Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंह अपने प्रतिद्वंदी को मजा चखाने के लिए कुएँ में कूद पड़ा !' बन्दर और बया किसी बया ने एक वृक्ष पर सुन्दर धोसला बनाया । एक बार की बात है, वर्षा ऋतु में ठंडी हवा चलने लगी और मूसलाधार पानी बरसने लगा । इस समय वहाँ वर्षा से बचने के लिए ठण्ड से काँपता हुआ एक बन्दर आया । अपने घोंसले में बैठी हुई बया कहने लगी-ऐ बन्दर ! तू जरा मेर घोंसले को देख । कितने परिश्रम से मैंने इसे बनाकर तैयार किया है। कितने सुख से मैं यहाँ रहती हूँ। न मुझे वर्षा का डर है और न हवा का । रे मूर्ख ! मुझे तुझपर दया आती है कि तेरे हाथ पाँव होते हुए भी, आलस्य के कारण तू कुछ नहीं कर सकता । वर्षा की तीक्ष्ण बौछारें सहने के लिए तू तैयार है और ठण्डी हवा के थपेड़े सहना तुझे मंजूर है, लेकिन थोड़ी-सी मेहनत से अपना घर तू नहीं बना सकता ! पहले तो बन्दर बया की बातें चुपचाप सुनता रहा । लेकिन बया जब अपनी बात को बार-बार कहती गयी तो वह कूदकर वृक्ष की डाल पर पहुँचा । उसने वृक्ष की उस डाल को जोर से हिलाया जिस पर बया का घोंसला लटका हुआ था। क्षणभर में बया अपने घोंसले में से जमीन पर आ गिरी । घोंसले को तोडकर उसने हवा में उड़ा दिया । बया से वह कहने लगा-प्यारी बया ! अब तू मेरे १. व्यवहारभाष्य ३. २९-३० और वृत्ति पृ. ७ अ । तुलनीय हितोपदेश (मित्रभेद); शुक सप्तति (३१) के साथ । निग्रोधजातक तथा कथासरित्सागर भी देखिए । मलाया के जंगलवासियों में इस प्रकार की कथा प्रचलित है। डब्ल्यू. स्कीट, फेबल्स एण्ड फोकटेल्स, कैम्ब्रिज, १९०१, कहानी नं. १२, पृ० २८, डाक्टर प्रभाकर नारायण कवठेकर, संस्कृत साहित्य में नीतिकथा का उद्गम एवं विकास, पृ.३३९ फुटनोट । यह कहानी अफ्रीका की हब्शी जाति की लोक कथाओं में भी पाई जाती है । सिंह खरगोश का पीछा करता है। खरगोश रास्ते में एक चट्टान के नीचे खड़ा होकर चिल्लाने लगता है-"सिंह ! मेरे दादाजी! यह देखिए, यह चट्टान हम लोगों पर गिरी जा रही है । कृपया इसे संभालिए" । सिंह चट्टान को संभालने खड़ा हो जाता है और खरगोश भाग जाता है। इसे चट्टान 'मोटिफ' कहा गया है। स्टैण्डर्ड डिक्शनरी ऑफ फोकलोर, माइथोलोजी एण्ड लीजेण्ड, जिल्द२, मारिया लीच, न्यूयार्क, १९५० Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समान निर्लज्ज हो गयी है । वर्षा में भीगती हुई और ठण्ड से काँपती हुई तू कितनी अच्छी लगती है !' कौए और मरा हुआ हाथी कोई बूढ़ा हाथी ग्रीष्मकाल में पहाड़ी नदी पार करते समय नदी के किनारे गिर पड़ा । कोशिश करने पर भी वह उठ नहीं सका और वहीं उसकी मृत्यु हो गयी । भेड़िए और गीदड़ों ने उसके गुदाभाग को खा लिया। उसके गुदाभाग से होकर कौए अन्दर घुस गये । अंदर बैठे-बैठे वे उसका मांस खाने लगे। कुछ समय बाद गर्मी के कारण कौओं का प्रवेश मार्ग संकुचित हो गया । कौओं ने सोचा-अब हम बिना किसी विघ्न-बाधा के यहाँ आराम से रह सकेंगे। वर्षाकाल आरंभ होने पर पहाड़ी नदी के प्रवाह में वह हाथी बह गया और बहते-बहते उसकी लाश समुद्र में पहुँच गयी । मगर-मच्छों ने उसे खा डाला । लाश के अन्दर जल भर जाने से कौए बाहर निकल आये, लेकिन पास में कोई आश्रय न पा उनकी वहीं मृत्यु हो गयी। , बृहत्कल्पभाष्य और वृत्ति, उद्देश १. ३२५२ । यहाँ बन्दर के दृष्टान्त द्वारा लब्धि प्राप्त होने से गर्वोन्मत्त किसी साधु को शिक्षा दी गयी है । आवश्यक नियुक्ति ६८१ में वानर दृष्टान्त आता है। आवश्यकचूर्णी (पृ० ३४५) में इस कहानी का गाथाओं में वर्णन है। तथा देखिए आवश्यक, हारिभद्रीय वृत्ति, पृ० २६२ । पंचतंत्र (मित्रभेद), और कूटिदूसक जातक (३२१) में यह कहानी आती है। इस 'मोटिफ़' की तुलना एक कोटा लोककथा के 'मोटिफ' से की जा सकती है। कोई लड़का ईश्वर का साक्षात्कार करने के लिए जंगल में जाता है। तीन दिन तक वहाँ बैठा रहता है। चौथे दिन उसकी मृत्यु हो जाती है। उसका शरीर फूल जाता है। एक बड़ा चूहा जमीन की मिट्टी खोदकर उसके सारे शरीर पर एक बिल बना लेता है। देखिए, एम बी० एमेनियन (M. B. Fmenean) का जरनल आफ अमेरिकन ओरिटिएल सोसाइटी (६७) में स्टडीज़ इन द फोकटेल्स आफ इंडिया, लेख । वसुदेवहिंडी, पृ० १६८ । यहाँ कौओं को संसारी जीव, हस्ति के शरीर में उनके प्रवेश को मनुष्ययोनि का लाभ, अंदर रहते हुए मांस-भक्षण को विषयों की प्राप्ति, मार्गनिरोध को भवप्रतिबंध, जलप्रवाह के कारण शरीर वियोग को मरणकाल तथा कौओं के बाहर निकल आने को परभवसंक्रमण कहा गया है। हेमचन्द्र के परिशिष्टपर्व (२. ५. ३८०-४०५) में भी यह कथा आती है। तुलनीय लोहजंघ ब्राह्मण की कथा से। गीदड़ों द्वारा भीतर से खाई हुई हाथी की खाल में पैरों की तरफ से उसने प्रवेश किया । वर्षा के कारण हाथी की यह लाश बहती हुई समुद्र में पहुँच गई, साथ में लोहजंघ भी । कथासरित्सागर, ४. २. ११८-२४ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य कहानियाँ पर्वत और मेघ ____ एक बार पर्वत और मेघ में वाक्युद्ध ठन गया। मेध-मैं तुझे अपनी एक जरासी धार में बहा सकता हूँ, तू समझता क्या है ? पर्वत-यदि तू मुझे तिलभर भी हिला दे तो मेरा नाम पर्वत नहीं । यह सुनकर मेघ को बहुत क्रोध आया । वह लगातार सात दिन और सात रात मूसलाधार जल की वृष्टि करता रहा। उसने सोचा-अब देखता हूँ पर्वत कहाँ जायेगा ? अब तो उसके होशहवाश ठिकाने आ जायेंगे । लेकिन सुबह उठकर देखा तो पर्वत और उज्ज्वल होकर चमक रहा था।' शेखचिल्ली एक बार किसी भिखारी को बहुत भूख लगी । वह एक गोशाला में गया जहाँ ग्वालों ने उसे सकोरा भरकर दूध पिलाया । दो-चार दिन बाद वह फिर गोशाला में पहुँचा । अब की बार ग्वालों ने उसे हंडी भरकर दूध दिया। भिखारी हंडी को सिरहाने रखकर लेट गया । वह सोचने लगा--इस दूध का दही जमाऊँगा । दही बेचकर मुर्गी खरीदूंगा । मुर्गी अण्डे देगी । अण्डे बेचकर बकरी मोल लँगा । बकरी बेचकर गाय खरीदूंगा । गाय से बहुत से बैल हो जायेंगे । बैल बेचकर बहुत-सा धन कमा लँगा । धन को व्याज पर चढ़ा दूंगा और सेठ बन जाऊँगा । मेरा विवाह हो जायेगा । छमछम करती घरवाली आयेगी। यदि वह कभी अपमान करेगी तो मारपीटकर उसकी अक्ल ठिकाने लगा दूँगा। खाट पर लेटे-लेटे भिखारी ने जो 'घरवाली' को मारने के लिए हाथ उठाया, बृहत्कल्पभाष्य ३३४ और वृत्ति (आवश्यक नियुक्ति १३९; तथा आवश्यकचूर्णी, पृ० १२१; आवश्यक हारिभद्रीयवृत्ति (पृ० १००) भी देखिये। यहाँ शैल को ऐसा शिष्य बताया है जो गर्जन-तर्जन करते हुए आचार्य के समीप शास्त्र का एक पद भी नहीं सीखना चाहता । आचार्य लज्जित होकर बैठ जाता है । आवश्यक नियुक्ति १३९ में शिष्यों को शैल, कुट, छलनी, परिपूणक (घो-दूध छानने का छन्ना), हंस, महिष, मेष, मशक, जोख, बिलाड़ी, सेही भेरी और आभीरी के समान बताया है। देखिये जगदीशचन्द्र जैन, जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज पृ० २८८-९१ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. वह हाथ हंडी में लगा । हंडी फूट गयी और सारा दूध बिखर गया !' एक व्यापारी कोई वणिक् माल की बहुत-सी गाड़ियाँ भरकर सार्थ के साथ व्यापार के लिए चला । एक खच्चर पर उसने उपयोगी समझकर कुछ पण (एक छोटा सिक्का) लाद लिये थे । ऊबड़-खाबड़ मार्ग पर चलने के कारण खच्चर की झूल फट गयी और पण जमीन पर बिखर गये । यह देखकर वणिक् ने माल की गाड़ियाँ रोक दी और लोगों को पणों को चुगने के लिए कहा । वहाँ से कुछ मार्गदर्शक जा रहे थे। उन्होंने कहा-आप लोग कौड़ी के लिए करोड़ों का क्यों नुकसान कर रहे हैं ? गाड़ियों को आगे जाने दें । क्या आप को चोरों का डर नहीं है ? वणिक् ने उत्तर दिया भविष्य की कौन जाने ? जो मौजूद है, उसे तो पहले ले लें । ___ व्यापारी आगे बढ़ गये । वणिक् पीछे रह गया । उसका माल चोरों ने लूट लिया। व्यवहारभाष्य और वृत्ति, उद्देश ३. २९. पृ. ८अ । पंचतंत्र (अपरीक्षित कारक) में मन के लड्डू खाने वाले सोमशर्मा के पिता की कहानी आती है । सत्तू के घड़े को देखकर वह सोचता है-अकाल पड़ने पर सत्तू का यह घड़ा सौ रुपये में बिकेगा । उससे बकरियां आयेंगी, फिर गायें, भैसें, घोड़ियाँ और घोडे हो जायेंगे । घोड़े बेचकर सोना, सोने से चौमजला मकान बनेगा । फिर विवाह होगा। पुत्र का जन्म होगा । पुस्तक पढ़ने में वह बाधा डालेगा । पुत्र के पढ़ने में बाधा डालने के कारण वह अपनी ब्राह्मणी को मारने के लिए लात उठाता है और सत्त का घड़ा फूट जाता है । तथा देखिए भवदेवसूरि कृत पार्श्वनाथचरित (२. १०२५. २६) विनोदात्मककथा संग्रह कथा ३३; धम्मपद-अदठकथा, पृ० ३०२, हितोपदेश (४. ८)। यह कथा विश्व कथा साहित्य में पाई जाती है। वसुदेवहिंडी, पृ. १५ । यहाँ वणिक् की तुलना विषयसुख के लोभ के वशीभूत, मोक्षसुख के साधनों की उपेक्षा कर संसार में रचे-पचे मनुष्य से की गयी है। ऐसा मनुष्य पश्चात्ताप का भागी होता है । आवश्यकचूर्णी पृ. २७२ में भी यह कहानी आती है । धनदेव वणिक् पांच सौ गाड़ियाँ माल भरकर चलता है। रास्ते में वेगवती नदी पार करते समय एक बैल थककर वहीं गिर पड़ता है । धनदेव उसके सामने घास-चारा और पानी रखकर आगे बढ़ जाता है । पंचतंत्र (मित्रभेद) में वणि पुत्र वर्धमानक संजीवक और नन्दक नामक दो बैलों को रथ में जोड़, व्यापार के लिए मथुरा रवाना होता है । संजीवक यमुना नदी पार करते हुए दलदल में फंस जाता है । वर्धमानक तीन रात उसके पास बैठा रहता है । तत्पश्चात् वहाँ से जाने वाले व्यापारियों के कहने पर संजीवक के लिए रखवाले नियुक्त कर आगे बढ़ता है। कालान्तर में संजीवक की पिंगलक सिंह से मित्रता हो जाती है। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७ सोचा था कुछ, हुआ कुछ ! वसुभूति नाम का एक दरिद्र ब्राह्मण अध्यापन का काम करता था। उसकी भार्या का नाम था यज्ञदत्ता । उसके सोमशर्म नाम का पुत्र और सोमशर्मा नाम की पुत्री थी । उसकी गाय थी रोहिणी । किसी धर्मात्मा ने उसे खेती करने के लिए थोड़ी-सी जमीन दे दी । इस जमीन में उसने शालि बो दिये। एक दिन उसने अपने पुत्र से कहा-बेटा ! मैं शहर जा रहा हूँ। चन्द्रग्रहण लगने वाला है । साहूकारों से दान-दक्षिणा माँग कर लाऊँगा । मेरे पीछे तू खेत की रखवाली करना । खेत में जो शालि पैदा होंगे और मैं जो कुछ रुपयापैसा माँगकर लाऊँगा, उससे तेरी और तेरी बहन की शादी कर देंगे। तबतक रोहिणी भी बिया जायेगी। यह कहकर ब्राह्मण चला गया । एक दिन गांव में कोई नट आया । सोमशर्म नटी के संसर्ग से नट बन गया। सोमशर्मा को किसी धूर्त से गर्भ रह गया । रोहिणी का गर्भ गिर गया । खेती की देखभाल न होने से शालि सूख गये । उधर ब्राह्मण को भी कुछ प्राप्ति न हुई । वह खाली हाथ घर लौटा । ब्राह्मणी दीन-हीन दशा में बैठी दिखायी पड़ी। ब्राह्मणी ने उठकर उसका स्वागत किया । ब्राह्मण ने पूछा- यह सब क्या ? ब्राह्मणी ने उत्तर दिया-हमारा भाग्य ही ऐसा है । सोचा कुछ था और हुआ कुछ !' पारखी इभ्यपुत्र किसी नगर में एक रूपवती गणिका रहती थी। उसके पास अनेक धनाढ्य राजपुत्र, मन्त्रीपुत्र और इभ्यपुत्र आते और धन-सम्पति लुटाकर लौट जाते । उन्हें बिदा देते समय गणिका कहती-यदि आप मुझे छोड़कर जा ही रहे हैं तो कम-सेकम मुझ निर्गुनिया की याद के लिए कुछ तो लेते जायें। १. सालीरुत्तो तणो जातो, रोहिणी न वियाइया सोमसम्मो नडो जाओ, सोमसम्मा वि गम्भिणी ॥ वसुदेवहिंडी, पृ. ३१ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिका के अनुरोध पर कोई उसका पहना हुआ हार, कोई अर्धहार, कोई कड़ा, और कोई बाजूबंद लेकर जाता। एक बार कोई इभ्यपुत्र गणिका को छोड़कर जाने लगा । गणिका ने उससे भी कुछ लेने को कहा। इभ्यपुत्र रत्नों का पारखी था । उसकी नजर गणिका के पंचरत्नों से जटित बहुमूल्य सोने के पादपीठ की ओर गयी । उसने कहा- यदि कुछ लेना ही है तो अपने पादस्पर्श से मनोहर इस पादपीठ को मुझे दे दो। इसे देखकर मैं तुम्हारी याद कर लिया करूँगा । गणिका--इस जरा-सी चीज को लेकर क्या करोगे? कोई कीमती चीज माँगो। लेकिन इभ्यपुत्र ने पादपीठ ही लेने की इच्छा बतायी । इभ्यपुत्र पादपीठ लेकर चला गया और उसने रत्नविनियोग द्वारा बहुत-सा धन कमाया। ___ एक लड़की के तीन वर ? किसी लड़की के तीन स्थानों से मंगनी आई । एक जगह की मंगनी उसकी माता ने, दूसरी जगह की उसके भाई ने और तीसरी जगह की मंगनी उसके पिता ने ली। विवाह की तिथि निश्चित हो गयी। तीनों स्थानों से बारात आ पहुँची । दुर्भाग्यवश जिस रात को भाँवर पड़ने वाली थी, उस रात को लड़की को साँप ने काट लिया । वह मर गयी। लड़की के तीनों वरों में से एक तो उसी के साथ चिता में जल गया। दूसरे ने अनशन आरंभ कर दिया। तीसरे ने देवाराधना से संजीवन मन्त्र प्राप्त किया। इस मन्त्र से उसने उस लड़की और उसके वर को पुनः उज्जीवित कर दिया । अब तीनों वर उपस्थित होकर लड़की माँगने लगे । बताइए, तीनों में से किसे दी जाये ? वही, पृ. ४ । यहाँ गणिका की तुलना धर्मश्रवण, राजपुत्र, आदि की देवमनुष्य सुखभोगी प्राणियों, हार आदि आभरणों की देशविरति सहित तपोपधान, इभ्यपुत्र की मोक्ष के इच्छुक, परीक्षाकौशल की सम्यग्ज्ञान, रत्नजटित पादपीठ की सम्यग्दर्शन, रत्नों की महाव्रत और रत्नविनियोग की निर्वाण सुख से की गयी है। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिस वर ने लड़की को जिलाया, वह उसका पिता हुआ और जो उसके साथ जीवित हुआ, वह भाई कहलाया। अतएव लड़की का हकदार वही समझा जायेगा जो अनशन कर रहा था । उसी को लड़की मिलनी चाहिए' । पति की परीक्षा किसी ब्राह्मणी के तीन कन्याएँ थीं । उसके मन में विचार आता कि विवाह के पश्चात् वे कैसे सुखी बनेंगी। - उसने उन्हें सिखा दिया कि विवाह के पश्चात् प्रथम दर्शन में तुम लोग पादप्रहार से पति का स्वागत करना । ब्राह्मणी की जेठी कन्या ने अपनी माँ का आदेश पालन किया । आवश्यकचूर्णी २. पृ० ५८ । बेतालपंचविंशतिका की पांचवीं कहानी में हरिवंश मंत्री की कन्या प्रण करती है कि वह किसी ऐसे पुरुष से विवाह करेगी जो वीरता, विद्या अथवा मन्त्र-तन्त्र में सबसे बढ़कर होगा। कन्या का पिता वर की तलाश के लिए प्रस्थान करता है। वह एक ब्राह्मण की खोज करता है जो मन्त्रविद्या में अत्यन्त कुशल है। कन्या का भाई एक विद्वान् ब्राह्मण को अपनी बहन के विवाह के लिए वचन देता है । कन्या की माता अपनी बेटी के लिए बाण चलाने में कुशल एक योद्धा को पसंद करती है। विवाह की तिथि निश्चित की जाती है । उसी दिन एक राक्षस कन्या का अपहरण कर लेता है। विद्वान् ब्राह्मण उस स्थान का पता लगाता है जहाँ कन्या रहती है। मांत्रिक वहाँ अपना हवाई-जहाज लेकर पहुँचता है । योद्धा राक्षस को मारकर कन्या को वापिस लाता है। बेताल प्रश्न करता है कि तीनों में से कन्या किसे दी जानी चाहिए ? राजा उत्तर देता है कि योद्धा कन्या का हकदार है; वही कन्या को राक्षस से छुड़ा लाया है । बेन्फे आदि विद्वानों ने इस कहानी को विश्व साहित्य की कहानी में गर्भित किया है। विटनित्स, द हिस्ट्री आफ इंडियन लिटरेचर, जिल्द ३, भाग १, पृ० ३६९ नोट । अरेबियन नाइट्रस की शहजादे के ढंग को यह कहानी है। जान हर्टल ने बेतालपंचविंशतिका और पंचतन्त्र के जैन संस्करण में पाई जाने वाली सूक्तियों की अनुक्रमणिका प्रकाशित की है, बी०एस० जी०डब्ल्यू० (१९०२ पृ० १२३) नामक जर्मन पत्रिका में; विण्टरनित्स, द हिस्ट्री आफ इंडियन लिटरेचर, जिल्द ३, भाग, १, पृ. ३६८ फुटनोट। सिंहासनद्वात्रिंशिका और भरटकद्वात्रिंशिका को जैन विद्वानों की रचनाएँ बताया गया है। विंटरनित्स, जैनाज़ इन इंडियन लिटरेचर नामक लेख, इंडियन कल्चर, जुलाई १९३४-अप्रैल १९३५, पृ० १५० । १२ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० लात खाकर उसका पति अपनी प्रिया के पैर दबाते हुए कहने लगा-- प्रिये ! तुम्हारे पैर में कहीं चोट तो नहीं लग गयी ! __ कन्या ने अपनी माँ से यह बात कही । माँ ने उत्तर दिया-बेटी ! तू निश्चित रह, तेरा पति तेरा गुलाम बनकर रहेगा । ____मंझली कन्या ने भी ऐसा ही किया । उसके पति ने लात खाकर पहले तो अपनी पत्नी को बुरा-भला कहा, लेकिन शीघ्र ही शान्त हो गया । माँ ने कहा--बेटी ! तू भी आराम से रहेगी, चिन्ता मत कर । अब सबसे छोटी कन्या की बारी आई । पति ने लात खाकर उसे पीटना शुरू किया, और वह उसके कुल को अपशब्द कहने लगा। माँ ने कहा—बेटी तुझे ! सब से श्रेष्ठ पति मिला है। तू उसकी आज्ञा में सदा रहना और उसका साथ कभी न छोडना ।' नाइन पंडिता कोई नाइन खेत में भोजन लिये जा रही थी। रास्ते में चोरों ने उसे पकड़ लिया। वह बोली- चलो, अच्छा ही हुआ, मुझे भी आप लोगों की तलाश थी। लेकिन इस समय तो आप मुझे जाने दें । रात को मेरे घर आइए, आपके साथ रुपये लेकर चलेंगी। रात के समय जब चोर उसके घर में घुसे तो नाइन ने उनकी नाक काट ली। चोर डरकर भाग गये । अगले दिन चोरों ने फिर उसे खेत में जाते हुए देखा । चोरों ने नाइन को पकड़ लिया । उन्हें देखते ही वह अपना सिर पीटने लगी और बोली-अरे ! यह किसने काट ली ? नाइन उनके साथ चल दी। आगे चलकर चोरों ने उसे एक कलाल के घर बेच दिया । रुपये लेकर वे चम्पत हुए । नाइन वहाँ से आकर रात में एक वृक्ष पर छिपकर बैठ गयी। चोर भी संयोगवश उसी वृक्ष के नीचे आकर ठहरे। मांस पकाकर वे खाने लगे। १. बृहत्कल्प भाष्य २६२ और वृत्ति ; आवश्यकचूर्णी , पृ. ८१ अप्रशस्त भावोपक्रम का यह दृष्टान्त है । आवश्यक, हारिभद्रीय टीका, पृ. ५५ । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनमें से एक चोर मांस लेकर वृक्ष पर चढ़ा । उसने चारों तरफ देखा तो एक औरत को बैठे हुए पाया । औरत ने उसे रुपये निकालकर दिखलाये । रुपयों के लालच से चोर ज्योंही उसके पास पहुँचा, औरत ने जोर से अपने दांतों से उसे काट लिया । ९१ चोर डरकर भागा । वह कहने लगा - अरे ! यह तो वही है ! नाइन चोरों की चोरी का सब माल लेकर चंपत हुई । ' नूपुरपंडिता कोई सेठानी अपने पति के रहते हुए भी किसी अन्य पुरुष से प्रेम करने लगी थी । स्त्री के श्वसुर ने अपने बेटे से यह बात कही, लेकिन उसे विश्वास न हुआ । १. आवश्यकचूर्णी, पृ० ५२३ । कथासरित्सागर ( २, ५, ९२ - १११ ) में सिद्धि सेविका का रूप धारण कर उत्तरापथ से आये हुए एक वणिक्पुत्रक के यहाँ रहने लगी । एक दिन वह उसका सारा सोना लेकर चलती बनी । रास्ते में एक डोम मिला । सिद्धि का धन छीनने के लिए डोम ने उसका पीछा किया। सिद्धि ने एक पीपल के पेड़ के नीचे पहुँचकर बड़ी दीनतापूर्वक उससे निवेदन किया-आज मैं अपने पति से कलह करके घर से भाग आई हूँ । मैं मरना चाहती हूँ, तुम मेरे लिए फांसी का फंदा बांध दो । डोम ने वृक्ष से फंदा बांधकर लटका दिया । सिद्धिकरी ने डोम से कहा- इस फंदे में गला कैसे फंसाया जाता है ? जरा गला फँसाकर तो दिखाओ । डोम ने पैरों के नीचे ढोलक रखकर अपने गले को फंदे में डालकर दिखा दिया । लेकिन सिद्धिकरी ने झट से डोम के पैरों के नींचे से ढोलक हटा ली और वह फंदे में लटक कर मर गया । उस समय अपनी स्त्री को ढूँढता हुआ अपने नौकर के साथ उसका पति वहाँ आया । उसे देख वह वृक्ष के पत्तों में छिपकर बैठ गयी । उसका नौकर वृक्ष पर चढ़कर उसे ढूँढ़ने लगा । सिद्धिकरी ने उसे देखकर कहा— आओ, मेरे पास आओ । तुम बहुत सुन्दर हो तुम पर मैं मोहित हूँ । लो, यह भी ले लो और मेरे शरीर का उपभोग करो । यह कहकर, ज्योंही वह नौकर उसके पास आया, उसका चुंबन लेने के बहाने, सिद्धिकरी ने उसकी जीभ काट ली । उसका पति अपने नौकर के साथ वहाँ से जल्दी से भाग गया। सिद्धिकरी वृक्ष से नीचे उतर धन की गठरी उठाकर चंपत हुई ! Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परीक्षा के लिए स्त्री को यक्षमंदिर में भेजा गया। स्त्री ने मंदिर के पिशाच (जो पिशाच के रूप में स्त्री का प्रेमी था) को सम्बोधित करके कहा हे पिशाच ! जिस पुरुष के साथ मेरा विवाह हुआ है, उसे छोड़कर यदि मैंने अन्य किसी से प्रेम किया हो तो तुम साक्षी हो । यक्षमंदिर का नियम था कि यदि कोई अपराधी होता तो वह वहीं रह जाता और निर्दोषी बाहर निकल जाता ।' स्त्री का उक्त सम्बोधन सुनकर पिशाच सोच में पड़ गया कि इसने तो मुझे भी ठग लिया। पिशाच क्षणभर के लिए सोच में पड़ा रहा और इस बीच स्त्री मंदिर से झट से बाहर निकल आई ! ६ बौद्धों की जातक कथाएँ बौद्धों की जातक-कथाएँ भी कथा-कहानियों का समृद्ध कोष है । श्रीलंका, बर्मा आदि प्रदेशों में ये कथाएँ इतनी लोकप्रिय हैं कि लोग रात-रातभर जागरण कर इन्हें बड़ी श्रद्धापूर्वक सुनते हैं । जातक-कथाओं में बुद्ध के पूर्वभवों की कथाएँ हैं जिनके अनेक दृश्य सांची, भरहुत आदि के स्तूपों की भित्तियों पर अंकित हैं । इनका समय ई०पू० दूसरी शताब्दी माना जाता है । जातक-कथाएँ ई०पू० पाँचवीं शताब्दी के पूर्व से लेकर ईसवी सन् की प्रथम या द्वितीय शताब्दी में रची गयी हैं। कतिपय विद्वानों की मान्यता है कि जातक की अनेक कथाएँ महाभारत और रामायण में विकसित रूप में पायी जाती हैं। शुद्धतापरीक्षा (चैस्टिटी टैस्ट) मोटिफ' के लिये देखिये स्टैण्डर्ड डिक्शनरी ऑफ फोक लोर माइथोलोजी एण्ड लीजेण्ड, जिल्द १ मारिया लीच, न्यूयार्क १९४९. चैस्टिर टैस्ट' और 'ऐक्ट ऑफ टूथ' नामक लेख; पेन्जर, ओशन ऑफ स्टोरी, 'चैस्टिट इण्डेक्स' मोटिफ, भाग १, पृ. १६५-६८ रूथ नॉरटन (Ruth Nortan), द लाइ' इण्डेक्स ए हिन्दू, फिक्शन मोटिफ, स्टडीज़ इन आनर आफ मौरिस ब्लूम फील येल यूनिवर्सिटी प्रेस, १९२० । दशवैकालिक चूर्णी, पृ० ८९-९१ । परिशिष्ट पर्व (२.८.४४६-६४०) भी देखिये तुलना कीजिए शुकसप्तति की १५वीं कहानी के साथ । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -९३ जातक-कथाओं में बुद्ध के पूर्व जीवन संबंधी कथाओं का संग्रह है । बुद्धत्व प्राप्त करने के पूर्व गौतम बुद्ध ने अनेक योनियों में जन्म लिया, जहाँ वे बोधिसत्व की अवस्था में रहे । कभी पशु-पक्षी, कभी मनुष्य और कभी देवयोनि में जन्म धारण कर वे अपने जीवन का लोकहित संबंधी कोई शिक्षाप्रद आख्यान सुनाते हैं। ये मनोरंजक आख्यान कभी दृष्टांतों, कभी उपमाओं, कभी सूक्तियों, कभी प्रश्नोत्तरों, कभी प्रहेलिकाओं और कभी हास्य एवं व्यंग्य कथाओं के रूप में हमारे सामने आते हैं। इन कथाओं में से यदि बोधिसत्व का नाम हटा दिया जाये तो ये कथाएँ शुद्ध लौकिक कथा के रूप में रह जाती हैं। जैन कथाओं और जातक-कथाओं की तुलना जैन कथाओं और बौद्धों की जातक-कथाओं की तुलना करते हुए डाक्टर हर्टल ने जैन कथाओं को श्रेष्ठ बताया है। इस संबंध में उनका निम्न वक्तव्य ध्यान देने योग्य है-“जातक की कहानी का आरंभ अधिकांश रूप में नगण्य होता है। अमुक-अमुक घटना अमुक-अमुक भिक्षु के साथ हुई। भगवान बुद्ध आते हैं। बौद्ध भिक्षु उनसे प्रश्न करते हैं वर्तमान परिस्थिति के संबंध में; बुद्ध उस भिक्षु के पूर्व भव को कथा सुनाकर उत्तर देते हैं। यही पूर्वभब की कथा जातक की मुख्य कथा हैं (जब कि जैन कहानियों में कहानी के निष्कर्ष में यह बात कही जाती है)। बोधिसत्व अथवा भावी बुद्ध इस कहानी में अपनी भूमिका अदा करते हैं, अवश्य ही वह भूमिका उनके अनुरूप होनी चाहिए । फिर, इस समस्त कहानी का शिक्षाप्रद होना आवश्यक है । जातक-कथाओं के जहाँ तक मनोरंजक होने का संबंध है, यह बौद्धों की खोज नहीं है; वे भारत में जगह-जगह बिखरे हुए कथा-कहानियों के विशाल भंडार से ली गयी हैं । इनमें से कितनी ही जनप्रिय कहानियाँ पटुतापूर्ण हैं, विचित्र हैं अथवा किसी रूप में मनोरंजक भी, लेकिन शिक्षाप्रद वे नहीं हैं । अतएव बौद्ध भिक्षु, जिनकी जातक कथाएँ हर हालत में शिक्षाप्रद और बोधिसत्व के अनुरूप होनी चाहिए, लोकप्रिय कथाओं में अपने उद्देश्य के अनुसार परिवर्तन करने के लिए बाध्य होते हैं, और इसका दुःखद परिणाम प्रायः यह होता है कि इस प्रकार की कथा नीरस बनकर रह जाती है, जिसमें से उसका चमत्कार ही नष्ट हो जाता है, और इसका विकास प्रायः मनोवैज्ञानिक संभाव्यता के विपरीत होता है। बौद्ध लोग अपने सिद्धांतों का सीधा उपदेश देने के लिए बोधिसत्व का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं कि मनुष्य को बुद्धधर्म की मैतिकता की धारणा के Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसार किस प्रकार आचरण करना चाहिए। तथा यदि बौद्धजातक कथा के लिए पसंद की गयी किसी कहानी में इस प्रकार का नैतिक आचरण नहीं है तो कहानी में तदनुसार परिवर्तन करना पड़ेगा । बौद्धों के अनुसार, अर्थशास्त्र के पठन-पाठन को पापाचरण कहा गया है । लेकिन भारत की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ इसी शास्त्र में विकसित हुई पाई जाती हैं। बौद्ध साधु ऐसी कितनी ही कथाओं को अपने कथासंग्रह में स्थान देते हैं, किन्तु अपने सिद्धान्त के अनुसार, कहानी के उन्हीं मुद्दों को-और फलस्वरूप इन कहानियों की अत्यन्त आवश्यक विशेषताओं को परिवर्तित करने के लिए वे बाध्य होते हैं, और इस तरह अपरिहार्य रूप से स्वयं कहानियाँ ही नष्ट हो जाती हैं। यह केवल एक संयोग की बात नहीं कि पंचतंत्र के अनेकानेक संस्करणों का बौद्धों का एक भी संस्करण उपलब्ध नहीं होता ।' ७. श्रमण संस्कृति की पोषक वैराग्यवर्धक जैन कथाएँ श्रमण संस्कृति में निवृत्ति की प्रधानता उत्तराध्ययन के कापिलीय अध्ययन में कहा है-“अध्रुव, अशाश्वत और दुखों से परिपूर्ण इस संसार में मैं कौनसा कर्म करूँ, “जिससे दुर्गति को प्राप्त न होऊँ ?" उत्तर-पूर्व परिचित संयोग का त्याग करके, जो कहीं किसी वस्तु में स्नेह नहीं करता, और स्नेह करने वालों के प्रति स्नेहशील नहीं होता, वह भिक्षु दोष और प्रदोषों से मुक्त होता है।" यह संसार अनेक दुखों और कष्टों से पूर्ण है। मनुष्य को कर्म का फल भोगना ही पड़ता है। कर्म के वश हुआ वह असंख्य योनियों में अनंतकाल तक भ्रमण करता रहता है । धन, धान्य और बंधु-बांधव उसकी रक्षा नहीं कर सकते । आकाश के समान विस्तार वाली तृष्णा से उसकी तृप्ति नहीं होती। ऐसी अवस्था में जबतक मनुष्य जरा से जर्जरित और आधि-व्याधि से पीड़ित नहीं हो, तब तक आत्मस्वरूप को पहचान कर उसे धर्म का आचरण करना चाहिए । मनुष्य जन्म की प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है। मनुष्य जन्म पाकर जो परलोकहित में रत नहीं रहता, १. आन द लिटरेचर आफ द श्वेतांबराज आफ गुजरात, पृ. ७-८ अधुवे असासयम्मी संसारम्मी दुक्खपउराए । किं नाम होज्ज तं कम्मयं, जेणाहं दोग्गई न गच्छेज्जा ॥ विजहित्तु पुव्वसंजोय, ण सिणेहं कहिचि कुब्वेज्जा । असिणेह सिणेहकरेहिं, दोसपओसेहिं मुच्चए भिक्खू ॥ उत्त० ८. १-२ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९५ वह मरणकाल के समय शोकाभिभूत होता है। जो दशा जल में पड़े हुए हाथी, कांटे से पकड़े हुए मत्स्य और जाल में फंसे हुए पशु-पक्षियों की होती है, वही दशा जरा और मृत्यु से अभिभूत इस जीव की होती है। उस समय अपने त्राता को न प्राप्त करता हुआ, कर्मभार से प्रेरित होकर वह शोक से व्याप्त होता है । आत्मदमन करने, अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण करने और संसार के माया-मोह का त्याग करने से ही शाश्वत, अव्याबाध और अनुपमेय निर्वाणसुख की प्राप्ति हो सकती है संक्षेप में यही निवृत्तिप्रधान श्रमण संस्कृति है जो वैदिक धर्म की प्रवृत्तिप्रधान ब्राह्मण संस्कृति से मेल नहीं खाती। त्याग और वैराग्यप्रधान कथाएँ __ श्रमण संस्कृति की पोषक कथाओं में केवल सामान्य स्त्री-पुरुष ही संसार का त्याग कर श्रमण दीक्षा. स्वीकार नहीं करते, बल्कि विद्वत्ता, शूरवीरता और धनऐश्वर्य से संपन्न उच्चवर्गीय विद्वान् ब्राह्मण, राजे-महाराजे, सेनापति और धनकुबेर भी निर्वाण सुख की प्राप्ति के लिए इस मार्ग का अवलंबन ग्रहण करते हैं। कोई अपने सिर के श्वेत केश को धर्मदूत का आदेश समझकर, कोई बाड़े में बंध हुए निरीह पशुओं की चीत्कार सुनकर, कोई मुद्रिकाशून्य अपनी उंगली, फलरहित आम्र वृक्ष, और मांसखंड के लिए लड़ते हुए दो गीधों को देखकर, कोई किसी उत्सव की समाप्ति पर सर्वत्र शून्यता का अनुभव कर और कोई दीपशिखा पर गिरकर जलते हुए पतिंगे को देखकर, जल के बुबुदों और ओसकण के समान क्षणभंगुर संसार का परित्याग कर संयम, तप और त्याग का अवलंबन लेते हुए आत्महित में संलग्न होते हैं । इस संबंध में नमि राजर्षि और शक्र का संवाद उल्लेखनीय है । राजपाट का त्यागकर वन की शरण लेते हुए मिथिलानरेश नमि से शक्र प्रश्न करता है महाराज ! यह अग्नि और यह वायु आपके भवन को प्रज्वलित कर रही है। अपने अन्तःपुर की ओर आप क्यों ध्यान नहीं देते ? नमि - हे इन्द्र ! हम तो सुखपूर्वक हैं, किसी वस्तु में हमारा ममत्व भाव नहीं है । अतएव मिथिला के प्रज्ज्वलित होने से मेरा कुछ भी प्रज्वलित नहीं होता।' १. विदेह के राजा जनक ने भी महाभारत (शांतिपर्व १७८) में कहा है : अनन्तं बत मे वित्तं यस्य मे नास्ति किञ्चन । मिथिलायां प्रदीप्तायां न मे दहति किश्चन ॥ बौद्धों के धम्मपद का तण्हावग्ग भी देखिए । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शक्र हे राजर्षि ! अपने नगर में प्राकार, गोपुर, अट्टालिका, खाई, और शतघ्नी आदि का प्रबंध करने के पश्चात् , निराकुल होकर संसार का त्याग करें। ____ नमि-श्रद्धारूपी नगर का निर्माण कर, उसमें तप और संवर के अर्गल (मूसले) लगा, क्षमा का प्राकार बना, त्रिगुप्तिरूपी अट्टालिका, खाई और शतघ्नी का प्रबंध कर, धनुषरूपी पराक्रम चढ़ा, ईर्यासमितिरूपी प्रत्यंचा बांध, धैर्यरूपी मूठ लगा और तप के बाण से कर्मरूपी कंबुक को भेद, मैंने संग्राम में विजय प्राप्त की है, अतएव अब मैं संसार से छुटकारा पा गया हूँ।' अस्पृश्य समझी जाने वाली जाति में उत्पन्न लोग श्रमणदीक्षा स्वीकार कर मैत्री, कारुण्य आदि का उपदेश देते हैं। अनेक आख्यानों में यज्ञ-याग में होने वाली हिंसा की गर्हणा कर परमधर्म अहिंसा का प्रतिपादन किया गया है । श्रमण संस्कृति में अहिंसा, संयम, तप, त्याग, ब्रह्मचर्य, आत्मदमन, कर्मसिद्धान्त और जातिविरोध की मुख्यता प्रतिपादित की गयी है । अतः श्रमण संस्कृति संबंधी कथाएँ ब्राह्मणों के पौराणिक साहित्य पर आधारित न होकर सामान्य जीवन की लोकगाथाओं पर आधारित हैं। विण्टरनित्स ने इस प्रकार के साहित्य को श्रमणकाव्य नाम से अभिहित कर, समान रूप से महाभारत, जैन एवं बौद्ध साहित्य पर उसके प्रभाव को स्वीकारकिया है। __ महाभारत के शांतिपर्व (मोक्ष धर्म) में ऐसे कितने ही आख्यान और नीतिवचन समाविष्ट हैं जिनकी तुलना जैन और बौद्धों के अहिंसा और मैत्री के सिद्धान्तों से की जा सकती है । एक आख्यान देखिए - १. उत्तराध्ययन सूत्र ९ । तुलना कीजिए महाभारत, शांतिपर्व (१२. १७८ ) तथा सोनक जातक (५२९), पृ० ३३७-३८ के साथ । देखिए 'सम प्रोब्लम्स आफ इंडियन लिटरेचर' में 'एसेटिक लिटरेचर इन एंशियेंट इंडिया', कलकत्ता यूनिवर्सिटी प्रेस, १९२५, पृ० २१-१० । यहाँ पितापुत्र संवाद (महाभारत, सभापर्व),विदुरहितवाक्य (महाभारत ५. ३२-४०), धृतराष्ट्रशोकापनोदन (स्त्रीपर्व २-७), धर्मव्याध के उपदेश (वनपर्व २०७-१६), तुलाधारजाजलिसंवाद (शांतिपर्व २६१-६४), यज्ञनिन्दा (महाभारत १२. २७२), गोकपिलीय अध्ययन (१२, २६९-७१). व्याध और कापोत (शांतिपर्व १४३-१९) आदि प्रकरणों के संवादों और नीतिवचनों की तुलना जैन और बौद्ध उपदेशों के साथ की गयी है। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कबूतर और बाज एक बार राजा मेघरथ अपनी पौषधशाला में बैठे थे कि वहाँ डर से काँपता हुआ एक कबूतर आकर गिरा । शरण में आये हुए कबूतर को राजा ने अभय दिया । कबूतर के पीछे-पीछे एक बाज़ भी वहाँ आया। वह कहने लगा"यह कबूतर मेरा भक्ष्य है, मुझे दीजिए ।" मेघरथ-----यह मेरी शरण आया है, तुम्हें कैसे मिल सकता है ? बाज़-यदि आप इसे न देंगे तो बुभुक्षित अवस्था में, आप ही कहिए, मैं किसकी शरण जाऊँ ? मेघरथ—जैसा जीवन तुझे प्रिय है, वैसा समस्त जीवों को भी है। बाज़ – बुभुक्षित अवस्था में धर्माचरण में मेरा मन कैसे लग सकता है ? आप ही बतायें। मेघरथ-मैं तुझे दूसरे किसी का मांस देता हूँ, इस कबूतर को तू छोड़ दे। बाज -- मैं मरे हुए जीव का मांस भक्षण नहीं करता, स्वयं मारकर ही भक्षण करता हूँ। मेघरथ-यदि ऐसी बात है तो जितना वजन इस कबूतर का है, उतना मांस मरे शरीर में से ले ले । यह कहकर राजा तराजू के एक पलड़े में कबूतर को बैठा, दूसरे पलड़े में अपना मांस काट-काटकर चढ़ाने लगा।' __वैराग्यप्रधान एक दृष्टान्त देखिए जो महाभारत तथा जैन और बौद्रों के धार्मिक कथाग्रन्थों के अलावा विश्व के अन्य साहित्यों में भी पाया जाता हैमधुबिन्दु दृष्टान्त देश-देशान्तर में पर्यटन करने वाले किसी पुरुष ने सार्थ के साथ अटवी में प्रवेश किया । चोरों ने सार्थ को लूट लिया । अपने साथियों से भ्रष्ट हुए इस पुरुष पर एक जंगली हाथी ने आक्रमण किया। हाथी के डर से भागते हुए उसे वसुदेवहिंडी, पृ. ३३७ । पंचतंत्र (काकोलूकीय) में यह कहानी पद्यरूप में दी हुई है । यहाँ कोई शिकारी कबूतरी को अपने जाल में पकड़ लेता है । मूसलाधार वर्षा होने लगती है। शिकारी सर्दी से ठिठुरता हुआ एक वृक्ष के नीचे जाकर खड़ा हो जाता है। उस वृक्ष पर रहने वाला कबूतर अपनी कबूतरी के वियोग से अत्यंत दुखी था। शिकारी के पिजड़े में बंद कबूतरी ने शिकारी को अतिथि समझ उसका सत्कार करने का अनुरोध किया । इसपर कबूतर ने अग्नि में प्रवेश कर अपने शरीर का माँस शिकारी को समर्पित किया। यह कथा महाभारत (शांतिपर्व १४३-४९), सिविजातक, कथासरित्सागर (१. ७. ८८-१०७) तथा पूर्णभद्रसूरि के पंचाख्यान में भी मिलती है। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृण और डाभ से आच्छादित एक जीर्ण कूप दिखायी दिया । इस कूप के तट पर एक महान् वट का वृक्ष खड़ा था। वृक्ष की शाखाएं कूप में लटक रही थीं। डर के मारे वह पुरुष वृक्ष की शाखाएं पकड़कर कूप में लटक गया । उसने नीचे की ओर देखा तो जान पड़ा कि एक महाकाय अजगर अपना मुंह बाये उसे निगल जाने के लिए तैयार था । चारों दिशाओं में चार भीषण सर्प फुकार मार रहे थे । शाखाओं के ऊपर कृष्ण और शुक्ल दो चूहे बैठे हुए शाखाओं को कुतर रहे थे । हाथी अपनी सूंड को उसके केशों पर बार-बार घुमा रहा था । वृक्ष पर एक मधुमक्खी का बड़ा छत्ता लगा हुआ था। वृक्ष के हिलने पर पवन से चंचल हुए मधु की बूंदें उसके मुँह में टपकती थीं। इन बूंदों का आस्वाद क्षणभर के लिए उसे तृप्त कर देता था । मधुमक्खियां उसके चारों ओर भिनभिना रही थीं। इस दृष्टांत में पुरुष को संसारी जीव, अटवी को जन्म-जरा-रोग और मरण से व्याप्त संसार, वनहस्ती को मृत्यु, कूप को देव और मनुष्य योनि, अजगर को नरक और तिर्यंच गति, चार सौ को दुर्गति में ले जाने वाली क्रोध-मान-माया-लोभ चार कषाएँ, वट वृक्ष की शाखा को जीवनकाल, कृष्ण और शुक्ल मूषक को रात्रि और दिवस रूपी अपने दाँतों से जीवन को कुतरने वाले कृष्ण और शुक्ल पक्ष, वृक्ष को कर्मबन्ध के कारणरूप अविरति और मिथ्यात्व, मधुको शब्द-स्पर्श-रस-रूप-गंध रूप इंद्रियों के विषय, और मधुमक्खी को शरीर से उत्पन्न व्याधि प्रतिपादित किया है। भला इस प्रकार भय से व्याकुल पुरुष को सुख की प्राप्ति कहाँ से हो सकती है ? मधुबिन्दु के रस का आस्वादन केवल सुख की कल्पना मात्र है।' इसी प्रकार का एक अन्य आख्यान देखिएकुडंग द्वीप के तीन मार्गभ्रष्ट व्यापारी __ पाटलिपुत्र के धन नामक वणिक् ने व्यापार के लिए प्रस्थान किया । मार्ग में उनका जहाज फट गया । एक पट्ट की सहायता से वह कुडंग द्वीप नामक वसुदेवहिडी, पृ. ८ । समराइच्कहा, भव २, पृ० १३४-१३९ में यह दृष्टांत किंचित परिवर्तन के साथ कुछ विस्तार से मिलता है। अमितगति की धर्मपरीक्षा और हेमचन्द्राचार्य के परिशिष्टपर्व (२.१) में भी उपलब्ध है। महाभारत (स्त्रीपर्व २-७) के धृतराष्ट्रशोकापनोदन अध्ययन में, धृतराष्ट्र के पुत्रों की मृत्यु हो जाने पर विदुर उसे सान्त्वना देते हुए संसारजन्य दुखों का वर्णन करता है। मृत्यु एवं भाग्य की बलवत्ता का परिचय देते हए यहाँ मधुबिन्दु दृष्टांत का आश्रय लिया गया है । बौद्धों के अवदान साहित्य में भी यही दृष्टान्त पाया जाता है। इस्लाम, यहूदी और ईसाइयों के ग्रंथों में भी इस दृष्टान्त का उयोग किया गया है। विण्टरनित्स ने इसे प्राचीन भारतीय श्रमण काव्य की उपज कहा है । देखिए. एसेटिक लिटरेचर इन एंशियेंट इंडिया पृ० २८ -३० । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वीप में पहुँचा । क्षुधा और तृषा से व्याकुल हुआ जब वह इधर-उधर परिभ्रमण कर रहा था तो उसे एक पुरुष मिला। वह भी जहाज फटने के कारण वहाँ आकर उतरा था। दोनों भोजन-पानी की खोज में घूमने लगे । इतने में वहाँ एक और आदमी दिखाई दिया । उसकी भी यही दशा थी। तीनों में मित्रता हो गयी। उन्होंने एक ऊँचे वृक्ष पर वृक्ष की छाल की ध्वजा बनाकर लटका दी। यह ध्वजा यात्रियों के जहाज फट जाने का चिह्न था। इसका मतलब था कि यदि कोई पोतवणिक् उस मार्ग से गुजरे तो उस द्वीपवासी मार्गभ्रष्ट पुरुषों को वहाँ से निकालकर ले जाने में सहायता करे ।' तीनों पुरुष भोजन की खोज करते-करते इधर-उधर घूमते-फिरते रहे, लेकिन कोई फलवाला वृक्ष उन्हें दिखायी न दिया । कुछ समय बाद उन्हें घर के आकार के बने हुए तीन कुण्ड दिखायी पड़े। प्रत्येक कुण्ड में काकोदुंबरी का एक-एक वृक्ष लगा हुआ था। तीनों ने उन कुण्डों को बांट लिया । लेकिन इन वृक्षों पर फल नहीं थे। कुछ समय बाद उनपर कच्चे और कर्कश फल लगे । पक्षियों से उन वृक्षों की वे रखवाली करने लगे। इस बीच में किसी पोतवणिक् ने वृक्ष पर लगी हुई ध्वजा को देखा और अपने नाविकों को कुडंग द्वीपवासी उन पुरुषों को लाने के लिए भेजा। पहले पुरुष ने उत्तर दिया-यहाँ हमें दख ही कौनसा है ? यह देखो हमारा घर । हमारे वृक्ष पर फल लग गये हैं। भविष्य में भी इसपर फल लगा करेंगे । वर्षा ऋतु में हमें भोजन-पान का कोई कष्ट न होगा । अतएव यहाँ से जाने की इच्छा मेरी नहीं है। दूसरे पुरुष ने भी वहाँ से जाने की अनिच्छा व्यक्त की । उसने कहा कुछ समय बाद वह चल सकता है। तीसरे पुरुष ने आगन्तुकों का स्वागत किया। वह उनके जहाज पर सवार हो, घर पहुँच अपने सगे-संबंधियों से जा मिला। . १. बुधस्वामी के बृहत्कथाश्लोकसंग्रह (१८. ३१५-१६) में भिन्न पोत होने पर, नाविकों का ध्यान आकृष्ट करने के लिए वृक्ष पर ध्वजा लगाने और अग्नि जलाने का उल्लेख है। कुवलयमाला, १६६, पृ० ८९ । इस आख्यान द्वारा यहाँ तीन प्रकार के जीवों की ओर लक्ष्य किया गया है-अभव्य, कालभव्य और तत्क्षणभव्य। ये तीनों संयोगवश मनुष्यजन्म रूपी एक द्वीप में पहुँच गये । यहाँ रहने के लिए उन्हें घर मिल गया जिसमें काकोदुंबरी रूपी स्त्रियों का निवास था। धर्मोपदेशकों के रूप में आये हुए नाविक उनकी रक्षा करना चाहते हैं। पहला पुरुष जाने की अनिच्छा व्यक्त करता है। दूसरा कहता है कि कुछ समय बाद वह चलेगा । तीसरा फौरन उनके साथ चलने को तैयार हो जाता है । अन्यत्र (पृ. ४५-८०) क्रोध, मान,माया, लोभ और मोह-इन पाँच महामल्लों के उदाहरण स्वरूप क्रोध के आख्यान में चंडसोम, मान के आख्यान में मानभट, माया के आख्यान में मायादित्य, लोभ के आख्यान में लोभदेव और मोह के आख्यान में मोहदत्त की कथाएँ दी गयी हैं। पात्रों के नाम ध्यान देने योग्य हैं। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार के सैकड़ों आख्यान प्राकृत जैन कथाग्रंथों में मिलते हैं जिनका उपयोग जैनधर्म के उपदेश के लिए किया जाता था। वैराग्योत्पादक लघु आख्यान एक आख्यान-हाथी पर सवार हो शत्रु पर आक्रमण करने जाते समय राजा सिंहराज ने देखा कि एक महाकाय सर्प ने मेंढक को पकड़ रक्खा है, कुरल पक्षी सर्प को पकड़कर खींच रहा है और कुरल को एक अजगर ने कसकर पकड़ रक्खा है। जैसे-जैसे अजगर कुरल को खींचता है, वैसे-वैसे कुरल सर्प को, और सपें मेंढ़क को पकड़कर खींचता है । इस हृदयद्रावक घटना को देखकर राजा के मन में वैराग्य हो आया ।' समराइच्चकहा, २ पृ. १४८-९। कुवलयमाला (२९९, पृ० १८८-८९) में चित्रकला द्वारा पशु-पक्षियों के दृश्य चित्रित किये गये हैं। सिंह हाथी का और हाथी सिंह का वध कर रहा है। सिंह ने मृग को मार दिया है। व्याघ्र ने आक्रन्दनपूर्वक वृषभ का वध कर दिया है । वृषभ ने अपने सींग से व्याघ्र का भेदन कर दिया । भैसों का युद्ध हो रहा है। हरिण भी परस्पर युद्ध कर रहे हैं। एक सर्प दूसरे सर्प को, एक मत्स्य दूसरे मत्स्य को और एक मगर दूसरे मगर को निगले जा रहा है। एक पक्षी दूसरे पक्षी को मार रहा है । मोर सर्प को खा रहा है। मकड़ी के जाले में फँसी हुई मकड़ी को दूसरी मकड़ी ने पकड़ लिया है। भूखी छिपकली ने एक कीड़े को पकड़ रक्खा है । श्यामा ने छिपकली को पकड़ लिया है ।यह श्यामा एक कीड़े को चाँच में दबाये आकाश में उड़ रही थी कि इसे दूसरे पक्षी ने पकड़ लिया। जब यह पक्षी जमीन पर गिरा तो इसे एक जंगली बिलाव ने पकड़ लिया। बिलाव को जंगली सूअर ने, सूअर को चोते ने, चीते को तेंदुए ने, तेंदुए को व्याघ्र ने, व्याघ्र को सिंह ने और सिंह को शरभ ने पकड़ रक्खा है। उत्तराध्ययन (२५ वां अध्ययन, शान्त्याचार्य, बृहद्वृत्ति) में इसी तरह का अन्य आख्यान आता है। जयघोष जब गङ्गास्नान करने जा रहे थे तो उन्होंने देखा कि मेंढक को एक सांप ने डस रक्खा है और उस सांप को एक मार्जार ने, तथा चींची करते हुए मेंढ़क का सांप भक्षण कर रहा है और तड़फड़ाते हुए सांप को मार्जार । यह देखकर जयघोष ब्राह्मण को वैराग्य उत्पन्न हो गया और गंगा पार पहुँचकर उसने साधु के पास श्रमणदीक्षा ले ली। उत्तराध्ययन नियुक्ति (४६५-६७) में मार्जार के स्थान . पर कुरल का उल्लेख है। - कोरमंगल के बस्वेश्वर मंदिर (इस जैन मंदिर का निर्माण होयसलराज बल्लाल द्वितीय के राज्याभिषक के समय सेनापति वूचिराज द्वारा ११७३ ई. में किया गया था) में एक दूसरे का नाश करने वाले जानवरों की यह शृङ्खला चित्रित है। यहां गुण्डमेरुण्ड शरभ को, शरभ सिंह को, सिंह हाथी को, हाथी सर्प को और सर्प हरिण को निगल रहा है। इसी शृङ्खला में एक साधु का चित्र है । एम.बी. एमेनियन के अनुसार, इस प्रकार की शृङ्गला के माध्यम से धर्म की ओर प्रवृत्त करने का उल्लेख सर्वप्रथम जैन प्रन्थों में पाया जाता है। देखिए, जरनल आफ अमेरिकन ओरिटिएल सोसायटी (६५) में 'स्टडीज इन फोकटेल्स आफ इंडिया; ३' नामक लेख । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतीकों द्वारा अटवी पार करने का आख्यान एक सार्थवाह ने किसी नगर में प्रस्थान करते समय घोषणा कराई कि जो कोई उसके साथ चलना चाहे और उसके आदेश का पालन करे, वह उसे निर्विघ्न रूप से अटवी से पार कराकर इष्ट स्थान पर पहुँचा देगा । सार्थवाह की घोषणा सुनकर बहुत से व्यापारी एकत्र हो गये । सार्थवाह ने उन्हें मार्गों के गुणदोष समझाये : मार्ग दो प्रकार के होते हैं-एक सरल, दूसरा वक्र । वक्र मार्ग द्वारा सुखपूर्वक गमन किया जाता है, इसमें बहुत समय लग जाता है। सरल मार्ग से पहुँचने में कष्ट होता है, इससे जल्दी पहुँच जाते हैं । सरल मार्ग अत्यन्त विषम और संकटापन्न है। इसमें दो व्याघ्र और सिंह रहते हैं। इन्हें भगा देने पर फिर से आकर ये रास्ता रोक लेते हैं। यदि कोई उन्मार्ग से गमन करे तो उसे मार डालते हैं; जो सीधे मार्ग से जाये, उसे कुछ नहीं करते। इस मार्ग में शीतल छाया वाले अनेक मनोहर वृक्ष हैं। कुछ वृक्ष अमनोहर भी हैं, जिनके फूल-पत्त झड़ गये हैं। मनोहर वृक्षों की शीतल छाया के नीचे विश्राम करना विनाश का कारण है । अतएव जिनके फूल-पत्ते झड़ गये हैं, उन वृक्षों के नीचे थोड़े समय के लिए विश्राम करना चाहिए । मार्ग के किनारे खड़े हुए मनोहर रूपधारी पुरुष मधुर वचनों से आमंत्रित करते हैं-हे यात्रियो ! आओ, इस रास्ते से जाओ। उनकी बात पर ध्यान न देना चाहिए। अपने साथियों से थोड़ी देर के लिए भी अलग न होना चाहिए । उनके अकेले रह जाने पर भय निश्चित है। मार्ग में जाते हुए अटवी आग से जलती हुई दिखाई देगी, सावधानीपूर्वक इस आग को बुझा देना चाहिए। आग न बुझाने से स्वयं जल जाने की आशंका है। आगे चलकर एक दुर्ग और ऊँचा पर्वत पड़ेगा, उसे लांघ कर चले जाना चाहिए। ऐसा न करने से मृत्यु निश्चित है। उसके बाद बांस का गहन जंगल पड़ेगा, उसे भी जल्दी से पार कर लेना चाहिए । वहाँ ठहरने से अनेक उपद्रवों की आशंका है। उसके बाद एक छोटा-सा खड्ड पड़ेगा । वहाँ मनोहर नामक ब्राह्मण रहता है । वह कहेगातुम लोग इस खड्ड को किंचित् भरकर आगे बढ़ना । उसकी बात अनसुनी कर आगे बढ़ जाना चाहिए। यदि उस खड्ड को भरने की कोशिश करोगे तो यह और बड़ा हो जायेगा, और तुम मार्ग से भ्रष्ट हो जाओगे। आगे चलकर सुन्दर किंपाक फल दिखायी देंगे। उनकी ओर न देखना चाहिए और न इन्हें चखना ही चाहिए । अनेक प्रकार के पिशाच प्रत्येक क्षण यहाँ उपद्रव करते हैं, उनकी परवा Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न करनी चाहिए। भोजन-पान यहां बहुत थोड़ा मिलेगा और जो मिलेगा, वह अत्यन्त नीरस होगा। उससे दुखी न होना चाहिए । सदा आगे बढते जाना चाहिए । रात में भी दो याम नियम से चलना चाहिए। इस प्रकार गमन करने से शीघ्र ही अटवी को पार किया जा सकता है और एकान्त दुर्गति से रहित निर्वृत्तिपुर (मोक्ष) में पहुँचा जा सकता है। वहाँ किसी प्रकार का क्लेश और उपद्रव नहीं है। यहाँ सार्थवाह को अर्हन्त, उसकी घोषणा को धर्मकथा, सार्थ को निर्वृत्तिपुर के लिए प्रस्थान करने वाले जीव, अटवी को संसार, सरल मार्ग को साधु धर्म, वक्र मार्ग को श्रावक धर्म, व्याघ्र-सिंह को राग-द्वेष, मनोहर वृक्षों की छाया को स्त्री-पशु आदि से युक्त वसति, अमनोहर वृक्षों को निर्दोष वसति, मार्ग पर खड़े हुए पुरुषों को परलोकविरुद्ध उपदेष्टा, अच्छे सार्थ को शीलधारी श्रमण, जंगल की अग्नि को क्रोध, पर्वत को मान, बांस के जंगल को माया, खड्ड को लोभ, मनोहर ब्राह्मण को इच्छाविशेष, खड्ड के किंचित् भरने को अपर्यवसान-गमन, किंपाक फलों को शब्द आदि विषय, पिशाचों को परीषह, नीरस भोजन को निर्दोष भिक्षावृत्ति, प्रयाण न करने को सदा अप्रमाद, और दो याम गमन करने को स्वाध्याय बताया गया है । इस प्रकार संसार-अटवी को लांघकर मोक्षपुरी में पहुँचा जा सकता है।' पशिखा पर गिरने वाला पतिंगा राजा रत्नमुकुट अपने वासगृह में अकेला बैठा हुआ दीवट की दीपशिखा की ओर देख रहा था । इतने में एक पतिंगा आकर दीपशिखा पर गिरा। राजा ने अनुकंपा भाव से उसे पकड़ दरवाजे के बाहर छोड़ दिया। वह फिर से आ गया । उसने फिर पकड़ लिया और फिर से बाहर छोड़ दिया। इस तरह कई बार हुआ । राजा सोचने लगा-लोग कहते हैं, 'उपाय द्वारा रक्षित पुरुष सौ वर्ष तक जोवित रहता है', अब देखना है कि उपाय द्वारा जीव की मृत्यु से रक्षा भी की जा सकती है या नहीं। यह सोचकर उसने फिर से पतिंगे को पकड़ लेया। अब की बार उसे एक संदूकची में बन्द कर अपने सिरहाने रख कर सो वही ५, पृ० ४७६-८०; आवश्यकचूर्णी, पृ. ५०९-१० में भी यह दृष्टांत आता है। आवश्यकनियुक्ति (८९९-९००) में कहा है-'जैसे सार्थवाह के उपदेश से विघ्नों से पूर्ण अटवी को लांघकर इष्ट स्थान को प्राप्त किया जाता है, उसी प्रकार जीव जिन भगवान् के उपदेश से निर्वाण को प्राप्त करते हैं। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गया। थोड़ी देर बाद सन्दूकची को खोलकर देखा तो वहाँ एक छिपकली दिखाई पड़ी । उसने चारों तरफ नजर दौड़ाई, लेकिन पतिंगा कहीं दिखायी न दिया। राजा ने सोचा कि अवश्य ही यह छिपकली उसे चट कर गयी होगी ! _उसके मन में विचार आया कि कर्म का भोग भोगे सिवाय छुटकारा नहीं। वैद्य लोग औषधि, मंत्र-तंत्र और योगविद्या द्वारा रोगी की चिकित्सा कर उसे अच्छा कर देते हैं, किन्तु पूर्वजन्म कृत कर्मों से जीव की रक्षा करने में वे असमर्थ हैं।' धान्य का दृष्टान्त मनुष्य जन्म की दुर्लभता का प्रतिपादन करने के लिए धान्य के दृष्टांत द्वारा बताया गया है कि यदि समस्त भरत क्षेत्र के धान्यों को एकत्र कर उनमें एक प्रस्थ सरसों मिला दी जाये तो जैसे किसी दुर्बल और रोगी वृद्धा के लिए उस सरसों को समस्त धान्यों से पृथक् करना अत्यंत कठिन है, वैसे ही अनेक योनियों में भ्रमण करते हुए जीव को मनुष्य जन्म की प्राप्ति दुर्लभ है। झुंटणक पशु का दृष्टान्त ___ कोई श्रेष्ठिपुत्र धन-सम्पति के नष्ट हो जाने से दरिद्र हो गया। उसकी पत्नी ने उसके मायके जाकर झुंटणक पशु लाने को कहा जिससे कि उसके रोमों से वे कीमती कंबल तैयार कर आजीविका चला सकें । लेकिन पत्नी का कहना था कि रात-दिन तुम्हें उस पशु के साथ ही रहना पड़ेगा, नहीं तो वह मर जायेगा। पत्नी के कहने पर वह अपनी ससुराल से झुटणक को ले आया। उसे एक बगीचे में छोड़कर वह अपनी पत्नी से मिलने आ गया । पत्नी ने पूछा-झुंटणक कहाँ है ? उसने उत्तर दिया-बगीचे में । यह सुनकर उसकी पत्नी ने सिर धुन लिया। इस दृष्टांत से यहाँ लक्ष्य किया है कि जैसे श्रेष्ठीपुत्र अपनी पत्नी के उत्साहपूर्ण वचन सुनकर अपनी ससुराल में से झुंटणक पशु को लाता है, उसी प्रकार संसारी जीव गुरु के वचनों से धर्म को प्राप्त करता है। लेकिन जैसे श्रेष्ठीपुत्र लोकोप१. कुवलयमाला, २३०, पृ० १४० २. उपदेशपद, गाथा ८, पृ० २२ । आवश्यकनियुक्ति (८३३) में मनुष्य जन्म की दुर्लभता का प्रतिपादन करने के लिए चोल्लक, पाशक, धान्य, द्यूत, रत्न, स्वप्न, चक्र, चर्म, युग और परमाणु-ये दस दृष्टान्त दिये गये हैं । हरिषेण के वृहत्कथाकोश (३५-४०) में भी कतिपय दृष्टान्त पाये जाते हैं। | Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ हास के कारण पशु को प्राप्त करके भी छोड़ देता है । उसी प्रकार संसारी जीव दीर्घ संसारी होने से अज्ञान के कारण धर्म को छोड देता है। आगम साहित्य में दृष्टांतों द्वारा धर्मोपदेश आगमकालीन कथा-साहित्य में ज्ञातृधर्मकथासूत्र का उल्लेख किया जा चुका है । अंडक नामक अध्ययन में यहाँ मयूरी के अंडों के दृष्टांत द्वारा, तथा कूर्म नामक अध्ययन में अपने अंगों की रक्षा करने वाले कछुओं के दृष्टांत द्वारा संयम की रक्षा का उपदेश दिया है । रोहिणी नामक अध्ययन में धन्य सार्थवाह की पतोहू रोहिणी के दृष्टांत द्वारा अपने आचरण में सदा जागरुक और उद्यम शील रहने का उपदेश है।' नौवें अध्ययन में जिनपालित और जिनरक्षित नाम के माकंदीपुत्रों के माध्यम से प्रलोभनों पर विजय प्राप्त कर संयम में दृढ़ रहने का उपदेश है अन्यत्र दावद्दव नामक वृक्ष, परिखा का जल, मेंढ़क, नंदीफल वृक्ष, कालिय द्वीपवासी अश्व आदि दृष्टांतों द्वारा धर्मकथा का प्ररूपण किया गया है । कालियद्वीप अश्वों के संबंध में कथन है कि साधु स्वच्छन्द विहारी अश्वों कि भाँति आचरण करते हैं, शब्द आदि विषयों से आकृष्ट होकर पाशबंधन में वे नहीं पड़ते। सूत्रकृतांग में कमलों से अच्छादित सुंदर पुष्करिणी के दृष्टांत द्वारा धर्मोंपदेश दिया है । चार पुरुष चारों दिशाओं से कमल को तोड़ने आते हैं, लेकिन सफल नहीं होते । इस समय तटवर्ती एक मुनि इस कमल को तोड़ लेता है । यहाँ पुष्करिणी को संसार, कमल को राजा, चार पुरुषों को चार परमतावलंबी साधु तथा तटवर्ती मुनि को जैन साधु बताया है । विपाकसूत्र नामक बारहवें अंग में कर्मों के विपाक संबंधी कथाएँ दी हुई हैं। उत्तराध्ययन के विनय अध्ययन में बताया है कि जैसे मरियल घोड़े को बार-बार कोड़े लगाने की जरूरत होती है, वैसे ही मुमुक्षु को पुनः पुनः गुरु के उपदेश की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए। औरभ्रीय अध्ययन में कहा है कि जैसे खूब खिला-पिलाकर पुष्ट किये गये मेंढ़े का अतिथि के आने पर वध १. उपदेशपद, भाग२. गाथा५५१, पृ. २७२अ । २. देखिए, 'दो हजार बरस पुरानी कहानियाँ' में 'चावल के पांच दाने' कहानी। सर्वास्तिवाद के विनयवस्तु (पृ० ६२) तथा बाइबिल (सेंट मेथ्यू की वार्ता २५, सेंट ल्यूक की सुवार्ता १९) में यह कहानी कुछ रूपान्तर के साथ उपलब्ध है। ३. देखिए, 'दो हजार बरस पुरानी कहानियाँ' में 'प्रलोभनों को जीतो' नामक कहानी। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५ कर दिया जाता है, उसी प्रकार विषय-भोगों में रचा-पचा मनुष्य मरणसमय आने पर शोक का भागी होता है। द्रुमपत्र के दृष्टांत द्वारा मनुष्य जीवन की असारता व्यक्त करते हुए क्षणभर के लिए भी प्रमाद न करने का उपदेश है। सड़ियल बैल के दृष्टान्त द्वारा बताया है कि जो दशा सड़ियल बैलों को गाड़ी में जोतने से होती है, वही दशा धर्मपालन के समय कुशिष्यों की होती है। प्राकृत कथाओं की दृष्टि से आगमों पर लिखा हुआ नियुक्ति, भाष्य, चूर्णी और टीका साहित्य भी बहुत महत्त्वपूर्ण है । नियुक्तियों के रचयिता भद्रबाहु, निशीथ, कल्प और व्यवहार भाष्य के प्रणेता संघदासगणि, चूर्णियों के कर्ता जिनदासगणि महत्तर तथा टीकाकार हरिभद्रसूरि, मलयगिरि, शांतिचन्द्रसूरि, देवेन्द्रगणि (नेमिचन्द्रसूरि) के नाम यहाँ उल्लेखनीय हैं। इस साहित्य में भरत, सगर, राम, कृष्ण, द्वीपायनऋषि, द्वारकादहन, गङ्गा की उत्पत्ति आदि अनेक पौराणिक आख्यानों का वर्णन है। आगमोत्तर कथा साहित्य में धर्मकथाएँ आगमोत्तर कालीन कथाग्रन्थों में वसुदेवहिंडी के अन्तर्गत इंद्रियविषयप्रसक्ति में वानर', गर्भावास की दुःख प्राप्ति में ललितांग", स्वकृत कर्मविपाक में कोंकण ब्राह्मण", स्वच्छन्दता में रिपुदमन नरपति, परलोकप्रत्यय और धर्मफलप्रत्यय में राजकुमारी सुमित्रा', परदारदोष में विद्याधर वासव तथा पंचाणुव्रत आदि संबंधी आख्यान उल्लेखनीय हैं। ___ हरिभद्रसूरि की धर्मकथा समराइच्चकहा में निदान की मुख्यता बतायी गयी है। अग्निशर्मा पुरोहित राजा गुणसेन द्वारा अपमानित किये जाने पर निदान बांधता है कि यदि उसके तप में कोई शक्ति हो तो वह आगामी भव में गुणसेन का शत्रु बनकर उससे बदला ले। परिणामस्वरूप अग्निशर्मा एक नहीं, नौ भवों में गुणसेन से बैर का बदला लेता है। दोनों के पूर्वजन्मों की कथाएँ यहाँ वर्णित हैं। मूलकथा के अन्तर्गत अनेक अन्तर्कथाएँ और उपकथाएँ हैं जिनमें निर्वेद, वैराग्य, संसार की असारता, कर्मों की विचित्र परिणति, मन की विचित्रता, लोभ का परिणाम, १. वसुदेवहिंडी, पृ. ६ ४. वही, पृ० ६१ २. वही, पृ० ९ ५. वही, पृ. ११५ ३. वही, पृ. २९ ६. वही, पृ० २९२ ७ वसुदेवहिंडी, पृ० २९४-९० १४ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माया-मोह, श्रमणत्व की मुख्यता आदि विषय प्रतिपादित किये गये हैं । पूर्वकृत कर्मदोष के संबंध में उक्ति है-मनुष्य को पूर्वकृत कर्मों का ही फल मिलता है । अपराधों अथवा गुणों में दूसरा व्यक्ति केवल निमित्त मात्र होता है।' ___ कुवलयमाला में मनोनुकूल धर्मकथाएँ उल्लिखित हैं। कुवलयमाला और कुवलयचन्द्र की कथा के माध्यम से यहाँ संसार का स्वरूप, चार गतियाँ, जातिस्मरण, पूर्वकृत कर्म, चार कषाय, पाप का पश्चात्ताप, धनतृष्णा, जिनमार्ग की दुर्लभता, प्रतिमापूजन, पंच नमस्कार मंत्र, तीर्थकर धर्म, संसारचक्र, मोक्ष का शाश्वत सुख, सम्यक्त्व, व्रत, द्वादश भावनाएँ, लेश्या, वीतराग की भक्ति आदि का सोदाहरण वर्णन है। कथाकार ने अलंकारों से विभूषित, सुंदर, ललित पदावलि से सम्पन्न, मृदु एवं मंजुल संलापों से युक्त, सहृदय जनों को आनन्द प्रदान करने वाली कथाओं का यहाँ समावेश किया है। जिनेश्वरसूरि के कहाणयकोस (कथाकोषप्रकरण) में जिनपूजा, साधुदान, जैनधर्म में उत्साह आदि, णाणपंचमीकहा (ज्ञानपंचमीकथा) में ज्ञानपंचमीव्रत का माहात्म्य, कथामणिकोष (आख्यानमणिकोष) में सम्यक्त्व, जिनबिंबदर्शन, जिनपूजा, जिनवंदन, साधुवंदन, जिनागमश्रवण, स्वाध्याय, रात्रिभोजनत्याग, जीवदया आदि, गुणचन्द्रगणि के कहारयणकोस (कथारत्नकोष) में नागदत्त, शंख, रुद्रसूरि आदि अपूर्व कथानकों में लोकव्यवहार संबंधी विविध विषय, कालिकायरियकहाणय (कालिकाचार्यकथानक) में युग प्रवर्तक कालिकाचार्य की कथा, नम्मयासुंदरीकहा (नर्मदासुंदरीकथा) में महासती नर्मदासुंदरी का आख्यान, कुमारपाल प्रतिबोध में अहिंसा आदि द्वादश व्रत, देवपूजा, गुरुसेवा, शीलसंरक्षण आदि, और प्राकृतकथासंग्रह में दान, शील, तप, भावना, सम्यक्त्व, नवकार मंत्र, संसार की अनित्यता आदि से संबन्ध रखने वाली कथा-कहानियों का वर्णन किया गया है। प्राकृतकथासंग्रह में कर्म की प्रधानता बताते हुए कहा है—“अथवा किसी को कभी भी दोष न देना चाहिए; सुख और दुख पूर्वोपार्जित कर्मों का ही फल है।" सिरिवालकहा (श्री १. सम्बो पुव्वकयाणं कम्माण पावए फलविवागं । अवराहेसु गुणेसु य निमित्तमत्तं परो होइ ॥ -भव २, पृ० १६० २. अहवा न दायव्वो दोसो कस्सवि केण वडयावि। पुवज्जियकम्माओ हवंति जे सुक्ख दुक्खाइं ॥ -प्राकृत साहित्य का इतिहास, पृ. ४७६ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७ पालकथा) में सिद्धचक्र के माहात्म्य से श्रीपाल का कोढ़ नष्ट होने, तथा रयणसेहरीकहा (रत्नशेखरीकथा) में जैनधर्म के प्रभाव से राजा रत्नशेखर के विजय प्राप्त करने की कथा वर्णित है। इनके अतिरिक्त, पूजाष्टककथा, सुव्रतकथा, मौनएकादशीकथा, अंजनासुंदरीकथा, अनन्तकीर्ति कथा, सहस्रमल्लचौरकथा, हरिश्चन्द्रकथानक आदि कथाग्रन्थों के नाम लिये जा सकते हैं । औपदेशिक कथा-साहित्य आगे चलकर धर्मदेशना जैन कथा साहित्य का एक प्रमुख अंग बन गया। यहाँ संयम, शील, तप, त्याग और वैराग्य आदि की भावनाओं को प्रमुख बताया गया। फलस्वरूप प्राकृत में धर्मदास की उपदेशमाला, हरिभद्रसूरि का उपदेशपद, जयसिंहसूरि का धर्मोपदेशमालाविवरण, मलधारी हेमचन्द्रसूरि का भवभावना और उपदेशमालाप्रकरण (पुष्पमालाप्रकरण), वर्धमानसूरि का धर्मोपदेशमाला-प्रकरण, जयकीर्ति का शीलोपदेशमाला, मुनिसुंदर का उपदेशरत्नाकर, शांतिसूरि का धर्मरत्न, आसड का उपदेशकंदलि और विवेकमंजरीप्रकरण, जिनचन्द्रसूरि का संवेगरंगशाला, आदि अनेक कथा-ग्रन्थों की रचना की गयी। शांत रसप्रधान संवेगरंगशाला में संवेग की प्रधानता प्रतिपादित की गयी है जैसे-जैसे भव्यजनों के लिए संवेगरस का वर्णन किया जाता है, वैसे-वैसे उनका हृदय द्रवित हो जाता है- जिस प्रकार मिट्टी के बने हुए कच्चे घड़े पर जल छिड़कने से वह टूट जाता है। चिरकाल तक यदि तप का आचरण किया हो, चारित्र का पालन किया हो, शास्त्रों का स्वाध्याय किया हो, लेकिन यदि संवेग रस का परिपाक नहीं हुआ तो सब धान के तुष की भाँति निस्सार है।' चरित-ग्रंथों में कथाएँ प्राकृत में चरित-ग्रंथों की भी रचना की गयी। तरेसठ शलाकापुरुषों के चरितों में २४ तीर्थङ्करों, १२ चक्रवर्तियों, ९ वासुदेवों, ९ बलदेवों, और ९ प्रतिवासुदेवों के चरित लिखे गये । कल्पसूत्र में ऋषभ, अरिष्टनेमि, पार्श्व और महा१. देखिए, प्राकृत साहित्य का इतिहास, पृ० ४९०-५२४ २. जह जह संवेगरसो वणिज्जइ तह तहेव भव्वाणं । भिज्जति, खित्तजलमिम्मयामकुंभ व्व हिययाई ॥ सुचिरं वि तवो चिण्णं चरणं सुयं पि बहुपढियं । जइ नो संवेगरसो ता तं तुसखंडणं सव्वं ॥ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ वीर आदि तीर्थंकरों के चरितों का वर्णन किया गया । वसुदेवहिंडी में ऋषभ आदि तीर्थकरों एवं भरत आदि चक्रवर्तियों के चरित और उनके पूर्वभवों के आख्यान दिये गये ।' शीलांकाचार्य ने चउपन्नमहापुरिसचरिय में चौवन शलाकापुरुषों का जीवनचरित लिपिबद्ध किया । विमलसूरि के पउमचरिय में जैन रामायण और हरिवंसचरिय (अनुपलब्ध) में कृष्ण की कथा वर्णित की गयी। उद्योतनसूरि ने अमृतमय, सरस एवं स्पष्टार्थ की द्योतक विमलसूरि की प्राकृत भाषा को प्रशंसनीय कहा है। स्वतंत्र रूप से भी चरित ग्रंथों की रचना हुई । गुणपाल मुनिकृत जम्बूचरित , गुणचन्द्रगणिकृत पार्श्वनाथचरित और महावीरचरित, लक्ष्मणगणिकृत सुपार्श्वनाथचरित, मानतुंगसूरिकृत जयंतीचरित, देवेंद्रसूरिकृत कृष्णचरित, जिनमाणिक्यकृत कुम्मापुत्तचरिय, हेमचन्द्र आचार्य के गुरु देवचन्द्रसूरिकृत संतिनाहचरिय (शांतिनाथचरित), मलधारि हेमचन्द्रकृत नेमिनाहचरिय (नेमिनाथचरित), सोमप्रभसूरिकृत सुमतिनाथचरित, चन्द्रप्रभमहत्तरकृत विजयचन्दकेवलीचरिय, वर्धमानसूरिकृत मनोरमाचरिय, शांतिसूरिकृत पुहवीचन्दचरिय, आदि का नामोल्लेख किया जा सकता है । शलाका पुरुषों के साथ-साथ जैनधर्म के उन्नायक प्रभव, जंबू, शय्यंभव, भद्रबाहु, स्थूलभद्र, महागिरि, सुहस्ति, पादलिप्त, कालिक, वज्रस्वामी, आर्यरक्षित, हेमचन्द्र आदि आचार्यों तथा राजीमती, चन्दनबाला, तरंगवती, नर्मदासुन्दरी, सुभद्रा आदि आर्यिकाओं के चरित मुख्य हैं । पौराणिक आख्यानों में बुद्धिगम्य तत्त्व जैन आचार्यों की यह विशेषता रही है कि उन्होंने अपने सिद्धांतों के प्रचार के लिए केवल जनसामान्य की बोली प्राकृत को ही नहीं अपनाया, अपि तु पौराणिक आख्यानों की श्रद्धागम्य अलौकिकता के स्थान पर युक्तियुक्त बुद्धिगम्य तत्त्वों को भी प्रतिष्ठित किया । राम और कृष्ण के लोकोत्तर चरितों का प्रणयन करते समय जैन विद्वानों का यही दृष्टिकोण रहा । रामचरित लिखते समय वाल्मीकि की रामायण का अनुकरण उन्होंने नहीं किया । घोषित किया गया कि वाल्मीकिरामायण विरोधी और अविश्वसनीय बातों से भरी है । यहाँ रावण आदि को राक्षस और मांसभक्षी के १. आवश्यकचूर्णी में महाबीर के और हेमचन्द्रीय परिशिष्ट पर्व के प्रथम सर्ग में जम्बूस्वामी के पूर्वभवों का वर्णन है। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूप में चित्रित किया गया है। कुंभकर्ण के विषय में उल्लेख है कि वह छह मास तक सोता था और भूख लगने पर हाथी भैंस आदि को चटकर जाता था । इन्द्र को पराजित कर रावण उसे श्रृंखला में बांधकर लंका में लाया था । जैन विद्वानों ने इस प्रकार की घटनाओं को बुद्धि द्वारा अग्राह्य बताकर असंभव घोषित किया ।' ___हरिभद्रसूरि का धूर्ताख्यान भी महाभारत, रामायण और पुराणों की अतिरंजित कथाओं पर व्यंग्यस्वरूप लिखा गया है। मूलश्री (मूलदेव), कंडरीक, एलाषाढ़, शश और खंडपाणा नामक पांच धूर्तशिरोमणि उज्जैनी के उद्यान में बैठे गपशप कर रहे हैं । पांचों में शर्त लगी कि सब अपने-अपने अनुभव सुनायें और जो इन अनुभवों पर विश्वास न करे, वह सबको भोजन दे, तथा जो अपने कथन को रामायण, और पुराणों के कथन से प्रमाणित कर दे, वह धूर्ती का शिरोमणि माना जाये । सभी ने अपने-अपने आख्यान सुनाये, रामायण, महाभारत और पुराणों के प्रमाण देकर सिद्ध किया । खण्डपाणा ने अपनी चतुराई से एक सेठ से रत्नजटित मुद्रिका प्राप्त की और उसे बेचकर सबको भोजन खिलाया। प्रवचन-उड्डाह होने पर उसकी रक्षा करने के लिए हिंगुशिव नाम की एक कथा देखिए किसी नगर में कोई माली बगीचे में से पुष्प तोड़ कर उन्हें बेचने के लिए मार्ग पर बैठ गया । इतने में उसे टट्टी की हाजत हुई । उसने जल्दी-जल्दी टट्टी फिरकर उसे पुष्पों के ढेर से ढंक दिया। लोगों ने पूछा-यहाँ पुष्प क्यों डाल रक्खे हैं । माली ने उत्तर दिया-मुझे प्रेत-बाधा हो गई है । हिंगुशिव की मनौती करने के लिए उसे पुष्प चढ़ाये हैं। आश्चर्य नहीं कि जब ब्राह्मणों की अतिरञ्जित कल्पनाओं से पूर्ण पौराणिक कथाओं से पाठकों का मन ऊब रहा था, पौराणिक आख्यानों को बुद्धिगम्य बना१. देखिए, विमलमूरि, पउमचरिय की प्रस्तावना। निशीथभाष्य (२९४-९६) और चूर्णी की पीठिका में सस, एलासाढ, मूलदेव और खंडा नाम के चार धूर्ती की कथा दी है । हरिभद्रसूरि ने इसी को धूर्ताख्यान में विकसित किया । ३. दशवैकालिकचूर्णी, पृ० ४७ । ढोंढ शिवा के कथानक के लिए देखिए, आवश्यक चूर्णी, पृ. ३१२; बृहत्कल्पभाष्य ५, ५९२८ । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर जैन विद्वानों ने कथा-साहित्य को एक नया मोड़ दिया ।' ईसवी सन् की लगभग पहली-दूसरी शताब्दी से ही प्राकृत में कथा-साहित्य की रचना आरंभ हो गयी थी। पादलिप्त की तरंगवती, मलयवती, मगधसेना, और संघदासगणिवाचकविरचित वसुदेवहिंडी, धूर्ताख्यान आदि कथाग्रन्थों का पाँचवीं शताब्दी में रचे गये छेदसूत्रों के भाष्यों में उल्लेख मिलता है। उद्योतनसूरि की कुवलयमाला (७७९ ई०) की प्रस्तावना में पादलिप्त, शालवाहन, गुणाढ्य, विमलांक, देवगुप्त, हरिवर्ष, जटिल, रविषेण, और हरिभद्र आदि के नामों के साथ उनकी रचनाओं का भी उल्लेख है । इनमें पादलिप्त की तरङ्गवईकहा, गुणाड्य की बृहत्कथा, विमलांक का हरिवंश, देवगुप्त का त्रिपुरुषचरित, हरिवर्ष की सुलोचना आदि रचनाएँ अनुपब्ध हैं। किन्तु संघदासगणिवाचक का वसुदेवहिंडी (प्रथम खण्ड), धर्मसेन महत्तर का वसुदेवहिंडी (मध्यम खण्ड), विमलांक का पउमचरिय, हरिभद्रसूरि की समराइच्चकहा, शीलांक का चउप्पन्नमहापुरिसचरिय, भद्रेश्वर की कहावली जैसी प्राकृत की प्राचीन महत्त्वपूर्ण कृतियाँ उपलब्ध हैं। उपदेशपद, उपदेशमाला, धर्मोपदेशमाला आदि औपदेशिक साहित्य भी इसमें जोड़ा जा सकता है । इन सबकी रचना ईसवी सन् की दसवीं शताब्दी तक में हो चुकी थी। तत्पश्चात् ११-१२ वीं शताब्दी में गुजरात और राजस्थान के श्वेतांबर आचार्यों के हाथों प्राकृत कथा-साहित्य उन्नति के चरम शिखर पर पहुँच गया । इस समय गुजरात में चालुक्य, मालवा में परमार तथा राजस्थान में गुहिलोत और चाहमान राजाओं ने जैनधर्म को प्रश्रय दिया जिससे राजदरबारों में जैन महामात्यों, दण्डनायकों, सेनापतियों, और श्रेष्ठियों का प्रभाव बढ़ा और ये प्रदेश जैन विद्वानों की प्रवृत्ति के केन्द्र बन गये । इसके फलस्वरूप कहाणयकोस, णाणपंचमीकहा, कथामणिकोष, कहारयणकोस, कालिकायारिय कहाणय, नम्मयासुन्दरीकहा, कुमारवालपड़िबोह, प्राकृतकथासंग्रह, जिनदत्ताख्यान, सिरिवालकहा, रयणसेहरीकहा, महीवालकहा आदि सैकड़ों प्राकृत कथा ग्रन्थों की रचना की गयी। १. प्रबंधचिंतामणिकार ने लक्ष्य किया है भृशं श्रुतत्वान्न कथाः पुराणाः । प्रीणन्ति चेतांसि तथा बुधानाम् ॥ -पौराणिक कथाओं के बार-बार श्रवण करने से पंडितजनों का चित्त प्रसन्न नहीं होता। २. डॉ. हर्टल के अनुसार, मध्यकाल से लगाकर आजतक जैन विद्वान् ही मुख्य कथाकार रहे हैं । इस विशाल कथा साहित्य में जो सामग्री सन्निहित है, वह लोक वार्ता के अध्येता विद्यार्थियों के लिये अत्यंत उपयोगी है। वही, पृ० ११ । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ काव्य के विविध रूपों का प्रयोग इन विद्वानों ने परम्परागत जैनकथा - साहित्य को अपनी कृतियों का आधार बनाया । संघदासगणिवाचक ने गुरु परम्परागत रचनाओं के आधार पर लिखित वसुदेवहिंडी में विष्णुकुमारचरित के प्रसंग में विष्णुगीतिका की उत्पत्ति बतायी है ।' हरिभद्रसूरि ने समराइच्चकहा में प्रश्नोत्तरपद्धति एवं समस्यापूर्ति का प्रयोग किया है । १. २. 3. यह साधुओं के गुणकीर्तन करते समय गायी गयी है उवसम साहुवरिया ! न हु कोवो वणिओ जिणिदेहिं । हुति हु कोवणसोल्या, पावंति बहूणि जाइयव्वाई ॥ - हे साधुश्रेष्ठ ! शांत होओ ! जिनेन्द्र भगवान् ने भी कोप को उत्तम नहीं कहा । जो कोपशील होते हैं, वे संसारभ्रमण को प्राप्त होते हैं । पृ० एक अन्य गीत देखिए- १३१ अड नियंठा सुरठं पविट्ठा, कविट्ठस्स हेट्ठा अह सन्निविट्ठा । पडियं कवि भिण्णं च सीसं, अन्वो ! अव्वो ! वाहरंति हसंति सीसा ॥ - आठ निर्ग्रथों ने सौराष्ट्र में प्रवेश किया । कैथ के वृक्ष के नीचे वे बैठ गये । वृक्ष पर से कैथ टूटकर गिरा; उनका सिर फट गया । शिष्य आहा ! आहा ! करके हंसने लगे । प्रश्नोत्तर शैली देखिए - प्रश्न :- किं देति कामिणीओ ? के हरपणया ? कुणंति किं भुयगा ? कंच मऊ हेहि ससी धवलइ ? १ - कामिनियाँ क्या देती है ? २ - शिवको कौन प्रणाम करता है ? ३ - सर्प क्या करते हैं ? ४ - चन्द्रमा अपनी किरणों द्वारा किसे धवल करता है ? उत्तर :- नहंगणा भोयं -- (१) नख, (२) गण, (३) भोग (फण), (४) नभ के आँगन का विस्तार । (८, पृ. ७४४ ) सरस्वतीकण्ठाभरण (२, १४८ ) में प्रश्नोत्तर का निम्नलिखित लक्षण किया हैयस्तु पर्यनुयोगस्य निर्भेदः क्रियते बुधैः । विदग्धगोष्ठ्यां वाक्यैर्वा तद्धि प्रश्नोत्तरं विदुः ॥ आचारांग नियुक्ति में एक ही समस्या की पूर्ति परिव्राजक, तापस, बौद्ध और जैन साधु से कराई गई है । गूढचतुर्थगोष्ठी में चतुर्थ पद की पूर्ति की गई है- सुरयमणस्स रइहरे नियबिंबभमिरं वहू धुयकरग्गा । तक्खणवुत्तविवाहा.. समस्यापूरक चतुर्थ पद वरयस्स करं निवारेइ । -- रतिघर में, अभिनवपरिणीता, सुरतमन वाली वधू अपने नितम्बों को घुमाती हुई, उंगलियों को नचाती हुई वर के हाथ को रोकती है । (८, पृ० ७५२ ) हेमचन्द्र के काव्यानुशासन (५, ४, पृ० ३२२-२३) में क्रिया, कारक, संबन्ध और पाद के भेद से गूढ़ के चार प्रकार बताये हैं । Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिभद्र के शिष्य उद्द्योतनसूरि ने अपनी प्रसादपूर्ण चम्पूशैली में लिखी हुई कुवलयमाला में विदग्ध पुरुषों द्वारा बुद्धिचातुर्य से परिकल्पित विनोदोत्पादक (१) प्रहेलिका,' (२) बूढ़ा (१), (३) अंत्याक्षरी, (४) बिन्दुमती, (५) अट्ठाविडओ (अष्टपिटक), (६) प्रश्नोत्तर, गूढ़ उत्तर, (७) पट्ठ, (८) अक्षरच्युत, १. दण्डी के कान्यादर्श (३, ९५) में प्रहेलिका का निम्न लक्षण किया गया है क्रीडागोष्टीविनोदेषु तज्जैराकीर्णमन्त्रणे । परव्यामोहनं चापि सोपयोगाः प्रहेलिकाः ॥ हेमचन्द्र आचार्य ने प्रश्नोत्तर, प्रहेलिका और दुर्वच आदि को कष्टकाव्य बताकर उसमें काव्यत्व को अस्वीकार किया है। काव्यानुशासन की टीका (५, ४, पृ० ३२३) में प्रहेलिका का निम्न उदाहरण दिया है पयस्विनीनां धेनूनां ब्राह्मणः प्राप्य विशतिम् । ताभ्योऽष्टादश विक्रीय गृहीत्वैकां गृहं गतः ॥ (यहाँ धेनुनां में समास करना चाहिए-धेन्वा ऊनाम) श्रावकप्रतिक्रमणसूत्र की अर्थदीपिकावृत्ति (पृ. १२७) के मंत्रीपुत्रीकथानक में किसी वादी ने मंत्रीपुत्री के ५६ प्रश्नों का उत्तर प्राकृत भाषा के चार अक्षरों में दिया है। देखिए, ज्ञानाञ्जलि (पृ. ५७) में संकलित मुनि पुण्यविजयजी का लेख, वडोदरा, १९६९ । अंत्याक्षरी प्रहेलिका में कविता के अंत्य अक्षर को लेकर उससे नयी कविता बनायी जाती है। उद्योतनसुरि ने उक्त तीनों को गोपालों के बालकों में भी प्रसिद्ध बताया है । ३. आदि और अंतिम अक्षर छोड़कर बाकी अक्षरों के स्थान पर केवल बिन्दु दिये जाते हैं, फिर उसका अर्थ लगाया जाता है, उसे बिन्दुमती कहते हैं । बत्तीस कोठों में व्यस्त-समस्त रूपसे श्लोक का एक-एक अक्षर लिखना अट्ठाविडअ है। दो, तीन अथवा चार प्रश्नों का उत्तर एक ही पद में दिये जाने को प्रश्नोत्तर कहते हैं। प्रश्नोत्तर के अनेक भेद हैं; जैसे एक समान अर्थ वाला, भिन्न-भिन्न अर्थ वाला, मिश्र, आलापक, लिंगभिन्न, विभक्तिभिन्न, कालभिन्न, कारकभिन्न, वचनभिन्न संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, पैशाची, मागधी, राक्षसी, मिश्र; आदि-उत्तर, बाह्य-उत्तर । ६. प्रश्नोत्तर का ही भेद है । प्रश्न के अंदर ही गूढ उत्तर छिपा रहता है, इसे गूढ उत्तर कहते हैं। परबुद्धिवंचन में यह पटु है। ७. कोई प्रश्न किया जाये और उसका उत्तर दिया जाये, फिर भी उसे न समझ सकें, ऐसी प्रकट और गूढ़ रचना को पट्ठ (पृष्ठार्थ) कहते हैं । ८. जहाँ एक अक्षर के उड़ जाने से श्लेष नहीं रहे, किंतु उसमें अक्षर जोड़ने से वह ठीक हो जाय. उसे अक्षरच्युत कहते हैं । उदाहरण के लिए कुर्वदिवाकरश्लेषं दधच्चरणडम्बरम् । देव ! यौष्माकसेनायाः करेणुः प्रसरत्यसौ ॥ (कादम्बरी, पीटर्सन, बम्बई १९००) यहाँ 'करेणु' शब्द में से 'क' निकाल देने से द्वितीय अर्थ की प्रतीति होती है। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३ (९) मात्राच्युत,' (१०) बिन्दुच्युत, (११) गूढ़चतुर्थपाद, (१२) भाणियब्विया (भणितव्यता), (१३) हृदयगाथा, (१४) पोम्ह (पद्म), (१५) संविधानक (१६) गाथार्ध, (१७) गाथाराक्षस और (१८) प्रथमाक्षररचना आदि महाकवियों द्वारा कल्पित कवियों के लिए दुष्कर प्रयोगों का वर्णन किया है । इसके अतिरिक्त कहारयणकोस, जिनदत्ताख्यान, सिरिवालकहा, उपदेशपद, धर्मोपदेशमालाविवरण, सुरसुंदरीचरिय आदि कथा-ग्रन्थों में मध्य-उत्तर, बहिःउत्तर, एकालाप और गतप्रत्यागत नामक प्रश्नोत्तर तथा समस्यापूर्ति, पादपूर्ति, प्रहेलिका, वक्रोक्ति, व्याजोक्ति और गूढोक्ति आदि के उदाहरण पाये जाते हैं । १. जिसमें क्रिया का लोप हो और मात्रा के सद्भाव से तद्भाव रहे, वह मात्राच्युत है । उदाहरण मूलस्थितिमधः कुर्वन् मात्रैर्जुष्टो गताक्षरैः । विटः सेव्यः कुलीनस्य तिष्ठतः पथिकस्य सः ॥ यहाँ 'विट' में से 'इ' मात्रा हटा देने से 'वट' की प्रतीति होती है। इसी प्रकार बिन्दुच्युत समझना चाहिए । हेमचन्द्र ने मात्राच्युत, अर्धमात्राच्युत, बिंदुच्युत और वर्णच्युत-ये च्युत के चार प्रकार बताये हैं । इनके उदाहरण भी दिये हैं । (काव्यानुशासन, ५, ४, पृ० ३१५-२२) । २. जिसमें प्रथम तीन पादों में चतुर्थ पाद गूढ रहता है, उसे गूढचतुर्थपाद' कहते हैं । इसी प्रकार भाणियब्विया (भणितव्यता), हृदयगाथा.पोम्ह (पद्म), गाथार्ध, संविधानक, गाथाराक्षस और प्रथमाक्षररचितगाथा के लक्षण समझने चाहिए । प्रथमाक्षररचितगाथा का उदाहरण-- दाणदयादक्खिण्णा सोम्मा पयईए सव्वसत्ताणं । हंसि व्व सुद्धपक्खा तेण तुमं दंसणिज्जासि ॥ --दान और दया में कुशल, स्वभाव से समस्त जीवों के प्रति सौम्य और हंसिनी के समान तुम शुद्ध पक्ष वाली हो, अतएव दर्शनीय हो । इस गाथा के तीनों चरणों के प्रथम अक्षर लेने से 'दासो है' (अर्थात्, मैं दास हूँ) रूप बनता है। प्राकृत साहित्य का इतिहास, पृ. ४५५ वही, पृ० ४७८ वही, पृ० ४८० ___ औत्पत्तिकी, वैनियिकी, कर्मजा और पारिणामिको बुद्धियों के उदाहरणों के लिए देखिए, पृ० ४८-९७ । प्राकृत साहित्य का इतिहास, पृ० ५०२ वही, पृ० ५४०-४१ १५ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ सुभाषित प्राकृत में सुभाषित ग्रंथों की अलग से रचना की गयी । इनमें जिनेश्वरसूरि (११९५ ई०) कृत गाथाकोष, लक्ष्मणकृत गाथाकोष, मुनिचन्द्रकृत रसाउल, तथा रसालय, विद्यालय, साहित्यश्लोक और सुभाषित का उल्लेख किया जा सकता है।' कथा-ग्रन्थों में भी अनेक रोचक सुभाषित भी मिलते हैं। कुछ सुभाषितों पर ध्यान दीजिए(क) वरि हलिओ वि हु भत्ता अनन्नभज्जो गुणेहि रहिओ वि । मा सगुणो बहुभज्जो जइ रायाचक्कवट्टी वि ॥ -गुणों से विहीन एक पत्नीवाला हालिक (किसान) अनेक भार्या वाले गुण वान् चक्रवर्ती राजा की अपेक्षा श्रेष्ठ है। (ख) उप्पण्णाए सोगो वड्ढंतीए य वड्ढए चिंता । परिणीयाए उदंतो जुवइपिया दुक्खिओ निच्चं ॥ —उसके पैदा होने पर शोक होता है, बड़ी होने पर चिन्ता होती है और विवाह कर देने पर कुछ न कुछ देते ही रहना पड़ता है। इस प्रकार युवती का पिता सदा दुख का भागी बना रहता है। (ग) उच्छ्गामे वासो सेयं वत्थं सगोरसा साली। इट्ठा य जस्स भजा पिययम ! किं तस्स रज्जेण ।। हे प्रियतम ! ईखवाले गांव में वास, श्वेतवस्त्रों का धारण, गोरस और शालि का भक्षण तथा इष्ट भार्या जिसके मौजूद है, उसे राज्य से क्या प्रयोजन ? (घ) पढ़मं हि आवयाणं चिंतेयव्वो नरेण पडियारो। न हि गेहम्मि पलित्ते अवडं खणिउं तरइ कोई ॥ -विपत्ति के आने से पहले ही उसका उपाय सोचना चाहिए । घर में आग लगने पर क्या कोई कुआं खोद सकता है ?" (ङ) राईसरिसवमित्ताणि, परछिद्दाणि पाससि । अप्पणो बिल्लमित्ताणि, पासंतो वि न पाससि ॥ -दूसरों के तो राई और सरसों के समान क्षुद्र छिद्रों को भी तू देखता है, और बेल जितने बड़े अपने छिद्रों को देखता हुआ भी नहीं देखता।" प्राकृत साहित्य, पृ० ५८४-८५ णाणपंचमीकहा, प्राकृत साहित्य का इतिहास, पृ. ४४२ जिनदत्ताख्यान, प्राकृत साहित्य, पृ० ४७९ ४. भवभावना, प्राकृत साहित्य, पृ० ५१३ उत्तराध्ययन, शान्त्याचार्य टीका, २. १४०, पृ० १३८अ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुदेव हिंडी और गुणाढ्य की बृहत्कथा Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुदेवहिंडी और बृहत्कथा डाक्टर एल० आल्सडोर्फ ने वसुदेवहिंडी की भाषा-संबंधी विशेषताओं पर प्रकाश डालते हुए इस ग्रन्थ को गुणाढ्य की अनुपलब्ध बड्डकहा (बृहत्कथा)' का जैन संस्करण बताया है। उनकी मान्यता है कि वसुदेवहिंडी नष्ट हुई बृहत्कथा की पुनर्रचना में अत्यन्त उपयोगी है । वे लिखते हैं-"वसुदेवहिंडीकार की योजना के क्षेत्र की तुलना आगमबाह्य जैन साहित्य के किसी ग्रन्थ से नहीं की जा सकती। इस ग्रन्थ की शैली न संक्षिप्त है और न शुष्क । यह सजीवता एवं लाक्षणिकता लिए हुए है तथा तत्कालीन जीवित भाषा का अत्यन्त मनोरंजक चित्र यहाँ प्रस्तुत किया गया है। अलंकृत वर्णनों से यह भाषा सजीव हो उठी है । इस प्रकार के वर्णन भारतीय कवियों को बहुत प्रिय रहे हैं।" उधर फ्रेंच विद्वान् प्रोफेसर एफ० लाकोत ने गुणाढ्य की बृहत्कथा के रूपान्तर बुधस्वामीकृत बृहत्कथाश्लोकसंग्रह, क्षेमेंद्रकृत बृहत्कथामंजरी तथा सोमदेवभट्टकृत कथासरित्सागर का तुलनात्मक अध्ययन कर बृहत्कथाश्लोकसंग्रह को बृहत्कथा के अधिक निकट बताया है । लाकोत की मान्यता है कि बृहत्कथामंजरी और कथा१. भोजकृत सरस्वती कण्ठाभरण के टीकाकार आसड के मतानुसार, हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण (८.४.३२६) में उद्धृत पैशाची गाथा बृहत्कथा का आदि नमस्कार है पनमथ पनय-पकुप्पित-गोली-चलनग्ग-लग्ग-पति-बिंबं । तससु नख-तपनेसुं एकातस-तनु-थलं लुई ।। नच्चन्तस्स य लीला-पातुक्खेवेन कंपिता वसुथा । 'छल्लन्ति समुद्दा सइला निपतन्ति तं हलं नमथ ॥ (भारतीय विद्या ३.१, पृ० २२८-३० १९४५) बुलेटिन आर स्कल आफ ओरिटिअल स्टडीज, जिल्द ८, पृ. ३४४-४९, १९३५ -३७ म वहिंडी. ए स्पेसिमैन आफ आर्किक जैन महाराष्ट्री' नामक लेख: तथा १९वीं अन् लीय प्राच्य विद्या परिषद् , रोम, १९३५ में Eine new Version des renen Brihatkatha of Gunadhya (a new Version der Version of theen ort Brihatkatha of Gunadhya) नामक जर्मन लेख इसके गुजराती और हि. Driharkatha of Gunadhva): मांडेसरा कत वसदेवहिडीपाद के लिए दाखए क्रमशः प्रोफेसर भोगीलाल ने गुजराती अनुवाद, प्र. ९-११ भमिका, पृ० १२-१७, बिहा अनुवाद, पृ० ९-१३, तथा कथासरित्सागर (१) 'गष्ट्रभाषापरिषद् । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ सरित्सागर बृहत्कथाश्लोकसंग्रह का ही संक्षिप्त संस्करण है ।' उक्त दोनों विद्वानों के कथनों की सार्थकता की सिद्धि में, गुणाढ्य की बृहत्कथा पर आधारित स्वीकार किये जाने वाले वसुदेवहिंडी और बृहत्कथाश्लोकसंग्रह का संक्षिप्त तुलनात्मक अध्ययन यहाँ प्रस्तुत किया जाता है । वसुदेवहिंडी और बृहत्कथाश्लोकसंग्रह बृहत्कथाश्लोकसंग्रह, जो बृहत्कथा का नैपाली संस्करण कहा जाता है, की रचना संस्कृत में लगभग पाँचवीं शताब्दी में हुई । लेकिन गुणाढ्य की बृहत्कथा १. अत्यन्त समृद्ध बृहत्कथाश्लोकसंग्रह कथासरित्सागर और बृहत्कथामंजरी की अपेक्षा अधिक सरल है । लोकसंग्रह के लेखक ने प्राप्त सामग्री को सुव्यवस्थित रूप से प्रस्तुत किया है । विषय वस्तु अत्यन्त सीमित है । उक्त दोनों रचनाओं की तुलना में यहाँ कथाएँ अधिक विस्तारपूर्वक दी गयी हैं । लेखक सामान्य जनता के रीतिरिवाजों और रहन-सहन से पूर्णतया परिचित जान पड़ता है । बृहत्कथाश्लोकसंग्रह का शब्दकोष है; कितने ही शब्द निश्चित रूप से प्राकृत से लिये गये हैं, और बहुत से शब्द केवल कोषकारों के कोर्षों में ही संग्रहीत हैं; अनेक शब्द नये भी घड़े गये हैं । अनेक शब्दों को हेमचन्द्राचार्य ने उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया है । भाषा प्राचीन है; अप्रचलित शब्दों का प्रयोग मिलता है । शैली रोचक और सरल है । देखिये Essai sur Gunadhya at la Brihatkatha (पेरिस, १९०८ ) का क्वार्टर्ली जरनल आफ द / मिथिक सोसायटी, बंगलूर सिटी, १९२३ में प्रकाशित अंग्रेजी अनुवाद । बृहत्कथारल कसंग्रह का देवनागरी लिपि में मूल संस्करण और उसका फ्रेंच अनुवाद १९०८ में पेरिस से प्रकाशित हुआ है । विंटरनित्स ने लाकोत के उक्त कथन को पुष्टि की है। उनकी मान्यता है कि यद्यपि गुणाढ्य और बुधस्वामी के समय में काफी अन्तर है, फिर भी क्षेद्र और सोमदेव के काश्मीरी संस्करणों की अपेक्षा बृहत्कथाश्लोकसंग्रह बृहत्कथा के निकट होने की प्रभावशाली छाप मन पर डालता है । उदाहरण के लिए, बृहत्कथा लोकसंग्रह में गोमुख को एक मनोरंजक पात्र के रूप में प्रस्तुत किया गया है जबकि कमोरी संस्करणों में वह केवल एक कथक के रूप में आता है । फिर, ५ वें सर्ग, यवन देश के कारीगरों का उल्लेख हैं जो आकाशयंत्र के निर्माण करने में कुशल से भारत के निवासी इस कला से अनभिज्ञ थे । १८ सर्ग में राजगृह के सार्थवाह की पुत्री एक यवनी से पैदा हुई थी । इससे हमें उस प्राचीनकाल का संकेत मिलता है जबकि यवन देश के कारीगरों ने उत्तर भारत में ख्याति प्राप्त की थी। भारय साहित्य में बहुत हो कम ग्रन्थ ऐसे मिलेंगे जिनमें हास-परिहास की मात्रा इविशद् रूप में पायी जाती हो जितनी कि प्रस्तुत रचना में सामान्यजनों का जन यहाँ खुशहाली और हँसी खुशी के जीवन के रूप में चित्रित है । हिस्ट्री आफ डियन लिटरेचर, जिल्द ३, भाग ने इसी प्रकार के विचार व्यक्त १, पृ० ३५०-५१ । ए०बी० कोथ और जे० किये हैं । Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का रूपान्तर होने से इसकी सामग्री ईसा की प्रथम शताब्दी की मानी गयी है । यही बात संघदासगणिवाचक के वसुदेवहिंडी के समय के संबंध में कही जा सकती है। आवश्यकचूर्णीकार जिनदासगणि महत्तर (६७६ ई०) ने ऋषभदेव के चरित्रवर्णन-प्रसंग तथा वल्कलचीरी और प्रसन्नचंद्र के कथावर्णन में वसुदेवहिंडी को आधार रूप में उद्धृत किया है। इससे इस ग्रन्थ की प्रामाणिकता का अनुमान लगाया जा सकता है। वसुदेवहिंडी में अंधकवृष्णि वंशोत्पन्न कृष्ण के पिता वसुदेव और बृहत्कथाश्लोकसंग्रह में वत्सराज उदयन के पुत्र नरवाहनदत्त-दोनों देश-देशान्तरों में परिभ्रमण कर विद्याधरों और राजकन्याओं से विवाह करते हैं । संघदासगणिवाचक के वसुदेवहिंडी में वसुदेव के २९ और धर्मसेनगणि के मध्यम खण्ड में उसके ७१ विवाहों का वर्णन है।' वसुदेवहिंडी की भाँति बृहत्कथाश्लोक-संग्रह भी अपूर्ण है और यहाँ लेखक २८ विवाहों में से केवल ६ का वर्णन कर सका है । वसुदेवहिंडी में छह प्रकरण हैं -कथोत्पत्ति, धम्मिल्लहिंडी, पेढ़िया, मुख, प्रतिमुख और शरीर । कथोत्पत्ति, पीठिका और मुख में कथा का प्रस्ताव, प्रतिमुख में वसुदेव की आत्मकथा और शरीर में २९ लंभकों की कहानियाँ हैं । अंतिम लंभक त्रुटित तथा १९ और २० लंभक अनुपलब्ध हैं । बृहत्कथाश्लोकसंग्रह जिसका केवल एक चतुर्थांश ही उपलब्ध है-में तीसरे सर्ग का नाम कथामुख है । वसुदेवहिंडी के तीसरे लंभक में गंधर्वदत्तालंभक तथा तेरहवें और पंद्रहवें लंभकों में वेगवतीलंभक का वर्णन है । बृहत्कथाश्लोकसंग्रह में तेरहवें और चौदहवें सर्गों में वेगवतीदर्शन और पंद्रहवें में वेगवतीलाभ, तथा सोलहवें सर्ग में गंधर्वदत्तालाभ, व चंपाप्रवेश और सत्रहवें सर्ग में गंधर्वदत्ताविवाह नामक प्रकरण हैं। दोनों ही रूपान्तरों में गंधर्वदत्ता वणिक् की १. धर्मसेनगणि महत्तर ने वसुदेवहिंडी के मध्यम खंड की प्रस्तावना में सूचित किया है-“वसुदेव ने १०० वर्ष तक परिभ्रमण करके १०० कन्याओं से विवाह किया । संघ दासगणि वाचक ने श्यामा से लेकर रोहिणी तक २९ लंभकों में २९ विवाहों का वर्णन किया है। शेष ७१ विवाहों को विस्तार भय से उन्होंने छोड़ दिया है। लौकिक शङ्कार कथा की प्रशंसा को सहन न करके मैंने, आचार्य के समीप निश्चय करके प्रवचन के अनुराग से,आचार्य के आदेश से, मध्यम के लंभकों के साथ कथासूत्र को जोड़ा है।' मुनि पुण्यविजयजीकी संशोधित हस्तलिखित प्रति, पृ ४-५। इसका मतलब है कि धर्मसेन ने वसुदेवहिंडी के २९वें लंभक के बाद से अपने कथासूत्र का आरम्भ नहीं किया । उन्होंने एणीपुत्रक नामक राजा की पुत्री प्रियंगुसुंदरी नामक लंभक के साथ अपने ७१ लंभकों को जोड़ा है। यही कारण है, यह ग्रन्थ मध्यम खंड नाम से कहा जाने लगा । Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० पुत्री है । वसुदेवहिंडी में कालिंदसेना की गणिकापुत्री सुहिरण्या और बृहत्कथाश्लोकसंग्रह में कलिंगसेना महागणिका की पुत्री मदनमंजुका के वर्णन में बहुत समानता है। काश्मीरी रूपान्तरों में मदनमंजुका को एक बौद्ध राजा की दौहित्री बताया है । दोनों ही संस्करणों में गोमुख नायक के मित्र के रूप में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है और बृहत्कथाश्लोकसंग्रह (२५ वां सर्ग) में तो उसके विग्रह का आख्यान वर्णित है। वसुदेवहिंडी में बृहत्कथा की काव्यशक्ति और बृहत्कथाश्लोकसंग्रह की लाक्षणिकता के दर्शन होते हैं । विद्याधरों के पराक्रम . वसुदेवहिंडी और बृहत्कथाश्लोकसंग्रह दोनों ही रचनाओं में विद्याधर जाति के लोगों का वर्णन है। कथासरित्सागर के रचयिता सोमदेवभट्ट ने गुणाढ्य की बृहत्कथा को अपनी रचना का मूलाधार बताते हुए कैलाश पर्वत पर विराजमान शिव और पार्वती के संवाद का उल्लेख किया है। पार्वती शिवजी से कोई रम्य कथा सुनाने का अनुरोध करती हैं। अपनी पत्नी का अनुरोध स्वीकार कर वे विद्याधरों की कथा सुनाते हैं, देवतागण सदा सुख में और मानव जाति के लोग सदा दुःख में डूबे रहते हैं, अतएव दोनों के ही चरित उत्कृष्ट रूप से मनोहर नहीं होते। यह जानकर शिवजी सुख-दुःख से मिश्रित विद्याधरों के अपूर्व और अद्भुत चरित सुनाना ही पसन्द करते हैं। गुणाढ्य के पूर्व भी लेखकों ने देवी-देवताओं के चरितों की रचनाएँ की होंगी लेकिन कालान्तर में पाठक इन चरितों को सुनते-सुनते ऊब गये । अतएव गुणाढ्य ने प्राचीन आख्यानों की परम्परा से हटकर विद्याधरों के अद्भुत चरित्रों का वर्णन करना हितकारी समझा । वत्सराज उदयन के पुत्र और विद्याधरों के अधिपति नरवाहनदत्त के साहसिक कार्यों का यहाँ वर्णन किया गया है। प्राचीन जैन कथा-साहित्य में विद्याधरों का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। वे आकाशगामी (खेचर) होने के कारण श्रेष्ठ विमानों द्वारा यात्रा किया करते हैं। जैनधर्म के उपासक होने के कारण वे नंदीश्वर या अष्टापद (कैलाश) की यात्रा १. एकांत सुखिनो देवा मनुष्या नित्यदुःखिता । दिव्यमानुषचेष्टा तु परभागे न हारिणो ॥ विद्याधराणां चरितमतस्ते वर्णयाम्यहं । १. १. ४७-८ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के लिए गमन करते हैं। वे श्रमणदीक्षा भी स्वीकार करते हैं । तीर्थंकर ऋषभदेव को विद्याधरों का पालक बताया गया है । अनेक विद्याएँ उन्होंने विद्याधरों को प्रदान की। मानवों से साथ विद्याधरों के सहानुभूतिपूर्ण सम्बन्ध बताये गये हैं। दोनों में सौहार्द था और शादी-विवाह तक होते थे। यदि कोई विद्याधर किसी अनगार (जैनसाधु), या दम्पति को कष्ट पहुँचाये अथवा किसी परयुवति का जबर्दस्ती से अपहरण करे तो उसके विद्या से भ्रष्ट हो जाने की आशंका रहती थी। विद्याधरगण जब धरण नामक नागेंद्र का कोप शान्त करने उसके पास पहुंचे तो धरण ने उन्हें फटकारते हुए कहा- "देखो, आज से विद्याओं के सिद्ध करने से ही वे तुम्हारे वश में होंगी । लेकिन यदि विद्यासिद्ध होने पर जिनगृह, अनगार अथवा किसी दम्पति का अपराध करोगे तो विद्याओं से भ्रष्ट हो जाओगे। इस विज्जुदाढ़ नामक विद्याधर नरेश के वंश में पुरुषों को महाविद्याएँ सिद्ध नहीं होंगी, स्त्रियों को भी सोपसर्ग और दुखपूर्वक सिद्ध होंगी अथवा देव, साधु और महापुरुष के दर्शन से सुखपूर्वक सिद्ध हो सकेंगी। कथा-प्रसंगों की समानता १ कोक्कास बढई (अ) वसुदेव हिंडी : ताम्रलिप्ति में धनद नामक बढ़ई । पुत्रोत्पत्ति । दरिद्रता के कारण माता-पिता की मृत्यु; धनपति सार्थवाह के घर पुत्र का पालन । कंडिकशाला में कुक्कुस ( अथवा कुकुस) भक्षण करने के कारण कोक्कास नाम । धनपति सार्थवाह के पुत्र धनवसू का यवन देश की यात्रा के लिए यानपात्र सज्जित । कोक्कास भी साथ में । यवनदेश पहुँचकर व्यापार। कोक्कास पडोस के एक बढ़ई के घर दिन व्यतीत करता । अपने पुत्रों को वह अनेक प्रकार के शिल्प कर्म की शिक्षा देता लेकिन वे न सीखते । कोक्कास बीच-बीच में उनकी सहायता करता । आचार्य ने कोक्कास को काष्टकर्म की शिक्षा दी। १. सर्प से दष्ट सामदत्ता ने विद्याधर युगल के स्पर्श मात्र से चेतना प्राप्त की। वसुदेवहिंडी पृ० ४७ २. वही. पृ. २६४, २२७ । कथासरित्सागर में अपनी विद्या की शेखी बघारने के कारण विद्याभ्रष्ट हुए जीमूतवाहन की कथा आती है । भरहुत के शिलालेखों (२०९ में विद्याधरों का उल्लेख है। विद्या और बिद्याधरों के लिये देखिए, जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज. पृ० ३४३-५२, कुवलयमाला २१७, २१८, पृ० १३१-३२, कुक्कुस, कुक्कस कुक्कास, कोक्कस, कोकस, कोक्कास, कोकास कोक्कोस और कोक्कास पाठान्तर है । बृहत्कथाश्लोकसंग्रह में पुक्कस । १६ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ कोक्कास का ताम्रलिप्ति-आगमन । ताम्रलिप्ति में दुष्काल । कोक्कास ने अपनी आजीविका चलाने और राजा को अपनी शिल्पकला का ज्ञान कराने के लिए कपोत युगल सज्ज किये । ये कपोत प्रतिदिन राजा के कलमशालि लेकर आ जाते । कोक्कास के यंत्रमय कपोत युगल शालि चुग जाते हैं, इस बात का पता लगने पर शिल्पी को राजदरबार में उपस्थित किया गया । राजा ने संतुष्ट होकर उसका सम्मान किया। राजा की आज्ञा से आकाशगामी यंत्र सज्जित किया गया । आकाश की सैर करते हुए दोंनोंका कालयापन । राजा के साथ सैर करने की महारानी की इच्छा । कोक्कास ने निवेदन किया कि यंत्र तीसरे आदमी का भार वहन नहीं कर सकता । रानी का पुनः अनुरोध । राजा रानीको साथ लेकर चला । कुछ दूर उड़ने पर यंत्र के बिगड़ जाने से वह पृथ्वी पर आ गिरा। तोसलि नगर में कोक्कास यंत्र को ठीक करने के औजार लेने गया । बड़ई के घर पहुँच उसने बासी मांगी । बढ़ई ने कहा कि वह राजा के लिए रथ बना रहा है, वासी नहीं मिल सकती । कोक्कास ने कहा-लाओ, तुम्हारा रथ मैं बना दूं । बढ़ई समझ गया कि वह कोक्कास होना चाहिए । उसने काकजंघ राजा को कोक्कास के आने का समाचार दिया । काकजंघ ने राजा और रानी को कैद कर लिया । कोक्कास से राजकुमारों को शिल्पकला की शिक्षा दिलवायी। कोक्कास ने आकाशगामी दो घोटक- यंत्रों का निर्माण किया। एक बार कोक्कास सोया हुआ था, तो राजकुमार घोटकयंत्र लेकर आकाश में उड़ गये। उनके पास यंत्र को वापिस लौटाकर लाने की कील नहीं थी, अतः मरण अवश्यंभावी था। राजा ने कोक्कास के वध की आज्ञा सुनायो । एक राजकुमार ने कोक्कास को यह दुखद समाचार सुनाया । कोक्कास ने चक्रंयंत्र सज्जित किया । कुमारों को उस पर सवार हो जाने को कहा । उसने बताया कि जब वह शंख फूंके तो शंख की ध्वनि सुनकर वे बीच की कील पर प्रहार करें। ऐसा करने से यान आकाश में उड़ जायेगा । राजकुमार यान में सवार हो गये । वध के लिए ले जाते समय कोक्कास ने शंख की ध्वनि की। राजकुमारों ने बीच की कील पर प्रहार किया और वे चक्रयंत्र की शूली में बिंधकर मर गये । कोक्कास का वध कर दिया गया।' १. पृ० ६१-६३ । आवश्यक नियुक्ति, ९२४ में शिल्पसिद्धि में कोक्कास बढ़ई का दृष्टांत दिया है । आवश्यकचूर्णी पृ. ५४१ में यह कहानी कुछ हेरफेर के साथ मिलती है। कोक्कास को यहाँ शूरिक का निवासी बताया है जो उज्जयिनी में आकर रहने लगा था । यवन देश में जाकर शिल्प सीखने की बात का यहाँ उल्लेख नहीं है । राजा अपनी महारानी के साथ आकाश की सैर करता, इसलिये अन्य रानियों ने ईर्ष्यावश यंत्र की कील छिपा दी जिससे यंत्र जमीन पर गिर पड़ा। देखिये, दो हजार बरस पुरानी कहानियाँ (प्रथम संस्करण) 'कोक्कास बढ़ई' कहानी। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३ (आ) बृहत्कथाश्लोकसंग्रह : उदयन की रानी पद्मावती ने विमान में सवार हो पृथ्वी के भ्रमण की इच्छा व्यक्त की । उदयन के मंत्री रुमण्वत ने शिल्पियों को बुलाकर आकाशगामी यंत्र तैयार करने का आदेश दिया। शिल्पियों ने उत्तर दिया कि वे केवल जलयंत्र, अश्मयंत्र, पांशुयंत्र और काण्डराशिकृत यंत्र-इन चार प्रकार के यंत्रों' का ही निर्माण करना जानते हैं; आकाशयंत्र यवनदेशवासी ही बना सकते हैं। महासेन का पुक्कस नामक बढ़ई सेना के साथ सौराष्ट्र गया हुआ था । वहाँ विश्विल नामक एक कुशल शिल्पी से उसकी भेंट हुई । पुक्कस ने सर्वगुणसम्पन्न अपनी रत्नावली नाम की कन्या का उसके साथ विवाह कर दिया । विश्विल ने जंगल में से लकड़ियाँ काटकर उनसे यवनयंत्रों (यावनानि यंत्राणि) का निर्माण किया । आरोग्य प्रदान करने वाले और भोजन बनाने के उपकरण तैयार करके उनसे जो धन की प्राप्ति होती, उसे अपने श्वसुर को दे देता। एक बार विश्विल काशी देश के राजा का आदेश पाकर देवकुल के निर्माण के लिए वाराणसी गया। विश्विल वहाँ से कुक्कुटयंत्र में बैठकर रात्रि के समय चुपचाप अपनी पत्नी से मिलने आता और सुबह होने के पूर्व ही लौट जाता। एक बार दूतों ने उसे देख लिया । उनके पाँव पड़कर विश्विल ने उसके आकाशयंत्र द्वारा आगमन की बात किसी से न कहने की प्रार्थना की; क्योंकि यह विज्ञान यवनदेश के लोगों के सिवाय और किसी को ज्ञात नहीं था। कुछ दिनों बाद विश्विल आकाशयंत्र में १. कथासरित्सागर ६. ३. १७. २२ में अनेक प्रकार के मायायंत्रों का उल्लेख है । काष्ठ की बनी हुई यंत्र पुत्तलिका चाबी घुमाने से आकाश में उड़ जाती थी, कोई नाचने लगती थी और कोई वार्तालाप करने लगती थी । अपने पति की सेवा के लिए सोमप्रभा ने आकाशमार्ग से उड़कर अपने घर गमन किया । बृहत्कल्पभाष्य (४.४९.५) में यवन देश में यंत्रमय प्रतिमाओं के निर्माण करने का उल्लेख है। इससे यवन देश के साथ भारत के संबंधों और सांस्कृतिक आदान-प्रदान का होना सूचित होता है। वसुदेवहिंडी (पृ. ३८-३९) में कौशाम्बी में.. यवन देश के अधिपति द्वारा भेजे हुए दूत के आगमन का उल्लेख है । कौशाम्बी के राजा ने उसका आदर-सत्कार किया । राजा के पुत्र आनन्द को रुग्ण देख कर यवनदूत ने उसके विषय में प्रश्न किया । उसने कहा कि क्या उस देश में औषधियाँ नहीं मिलती अथवा वैद्य नहीं हैं जो राजपुत्र की यह दशा है। उसने नव उत्पन्न अश्वकिशोर के रक्त में थोड़ी देर के लिए रोगी को रखने के लिए कहा । यवनों के 'खवाघटनविज्ञान' का भी यहाँ उल्लेख है । लाकोत के अनुसार, यूनानी लोग अपनी खाट को मेज के रूप में परिवर्तित कर सकते थे। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ सवार हो वाराणसी से लौट आया । पुक्कस ने विश्विल को बताया कि राजा चाहता है कि जो आकाशयंत्रविज्ञान उसने अपने जामाता को सिखाया है, उसे वह उसके शिल्पियों को भी सिखा दे । लेकिन पुक्कस ने कहा कि यह विज्ञान उसके जामाता ने यवन के शिल्पियों से सीखा है। इसपर राजा ने कुपित होकर पुक्कस को मृत्युदण्ड की धमकी दी। विश्विल ने अपनी पत्नी से कहा-"राजा आकाशयंत्रविज्ञान सीखना चाहता है, लेकिन इस विज्ञान को हमें इसी प्रकार छिपाकर रखना चाहिए जैसे कृपण धन को रखता है। इसकी रक्षा के लिए मैं तुम्हें तक छोड़ने को तैयार हूँ।" तत्पश्चात् रात्रि के समय अपनी भार्या के साथ कुक्कुटाकार यान में सवार हो विश्विल अपने स्थान को चला गया। उधर राजा के शिल्पियों को यंत्र का निर्माण करने में असमर्थ देख सेनापति ने उनकी बहुत ताड़ना की। इस समय किसी आगन्तुक ने वहाँ उपस्थित हो गरुडाकार यंत्र का निर्माण किया । यंत्र की मंदार के पुष्पों से पूजा की गयी। राजा ने रानी से कहा कि यंत्र तैयार हो गया हैं, और वह इच्छानुसार आकाश की सैर कर सकती है। शिल्पी ने निवेदन किया कि वह यंत्र समस्त नगरवासियों का भार वहन करने में सक्षम है । राजा का समस्त अन्तःपुर, अपनी स्त्रियों सहित मंत्रीगण, और पुरवासी यंत्र में सवार हो पूर्व दिशा की ओर चल पड़े। सारी पृथ्वी में घूमकर राजा अवन्ती नगरी में आया । महासेन राजा द्वारा विश्विल का बहुत सम्मान किया गया।' २ पुरुषों के भेद (अ) वसुदेवहिंडी : कृष्णपुत्र शंब अपने सखा जयसेन और बुद्धिसेन नामक राजकुमारों के साथ रथ में सवार हुए जा रहे थे। तीनों में वार्तालाप हो रहा है जयसेन-(शंब को लक्ष्य करके) आर्यपुत्र ! बुद्धिसेन बिचारा सीधा-सादा है, वह बात करने में ही कुशल है । जो कष्ट सहन नहीं कर सकता, वह कुपुरुष है । . बुद्धिसेन जैसे अंधपुरुष को किसी रूप-रंग का ज्ञान नहीं हो सकता, वैसे ही तुम भी पुरुषों के ज्ञान से वंचित हो । _ जयसेन-अच्छा, तू जानता है तो बता कि पुरुष कितने प्रकार के होते हैं ? तेरी बुद्धि का पता चल जायेगा । बुद्धिसेन--अर्थ, धर्म और काम की अपेक्षा पुरुषों के उत्तम, मध्यम और अधम-ये तीन भेद किये गये हैं । जो पिता और पितामह के द्वारा उपार्जित १. ५. १९६-२९७. पृ० ६५-७५ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ફરક धन का उपभोग करता हुआ भी उसमें वृद्धि करता है, वह उत्तम, जो उसे क्षीण नहीं होने देता, वह मध्यम और जो उसे खा-पटका कर खत्म कर देता है, उसे अधम पुरुष कहा जाता है । धर्म की अपेक्षा पुरुषों के उत्तम और मध्यम-ये दो भेद किये गये हैं। स्वयंबुद्ध उत्तम और बुद्धों द्वारा बोधित पुरुष मध्यम है । काम की अपेक्षा पुरुषों के तीन भेद हैं । जो स्वयं कामना करता है और उसकी भी कामना की जाती है, वह उत्तम; जिसकी कामना की जाती है, लेकिन जो स्वयं कामना नहीं करता वह मध्यम; तथा जो स्वयं कामना करता है लेकिन उसकी कामना नहीं की जाती, उसे अधम कहा गया है। जयसेन-आर्यपुत्र शंव इन तीनों में से कौनसे हैं ? बुद्धिसेन- अर्थ और धर्म के बारे में कुछ कह सकना कठिन है; हाँ, काम के बारे में उन्हें मध्यम कहा जा सकता है । जयसेन-~और स्वयं तुम कौनसे हो ? बुद्धिसेन-उत्तम ! जयसेन ---(क्रुद्ध होकर) अरे पंडितमन्य ! तू अपने आपको उत्तम और स्वामी को मध्यम कहता है ! बस, यही तेरी शिक्षा है ? बुद्धिसेन—तुम समझते नहीं ! जो दूसरों द्वारा कामना किये जाने पर स्वयं कामना नहीं करता, उसे मध्यम कहते हैं। जयसेन-अच्छा, बताओ, स्वामी की कौन कामना करता है ? बुद्धिसेन-नहीं बताऊँगा । यदि वे स्वयं पूछे तो कहूँगा । शंब-अच्छा कहो, मैं ही पूछ रहा हूँ।' (आ) बृहत्कथाश्लोकसंग्रह : गोमुख, मरुभूतिक, तपन्तक और हरिशिख नामक मित्रों के साथ रथ में सवार हो नरवाहनदत्त ने यात्रा के लिए प्रस्थान किया। धर्म, अर्थ और काम में इच्छासुखात्मक काम की मुख्यतापूर्वक कामशास्त्र के पंडितों ने चार प्रकार के पुरुषों का उल्लेख किया है-उत्तम, मध्यम, हीन और नकेचन । गोमुख को उत्तम और आर्यपुत्र को मध्यम कोटि का बताया गया । इसपर मरुभूति ने क्रुद्ध होकर गोमुख को फटकारा तुम बैल-के-बैल रहे जो तुम अपने आपको उत्तम और आर्यपुत्र को मध्यम कहते हो। अपने आपको अपने प्रभु से बढ़कर बताते हो ? १. पृ० १०१ २. वसुदेवहिंडी में हरिशिख, वराह, गोमुख, तपंतक और मरूभूतिक नाम आते हैं । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ गोमुख ने उत्तर दिया--तुम वज्रमूर्ख हो मरुभूति । क्या कोई प्रभु होने मात्र से उत्तम कामुक हो जाता है ? देखो, जिसकी कामना की जाती है और जो कामना करता है, वह उत्तम (जैसे-मैं); जो कामना नहीं करता और उसकी कामना की जाती है, वह मध्यम (जैसे-आर्यपुत्र); और जो किसी की कामना करता है और उसको कामना नहीं की जाती, वह अधम; तथा न जिसको कामना की जाती है और न वह किसी की कामना करता है, वह नकेचन पुरुष हैं । इनमें तुम नकेचन की श्रेणी में आते हो।' ३ गणिकापुत्री की कथा (अ) वसुदेव हिंडी : कालिन्दसेना गणिका की पुत्री सुहिरण्या : शंब बुद्धिसेन, जयसेन और सुदारक के साथ बड़ा होने लगा। एक बार शंब को वासुदेव कृष्ण के पादवंदन के लिए लाया गया । कृष्ण बालक को खिलाने लगे। कालिंदसेना भी अपनी कन्या सुहिरण्या को कृष्ण के पादवंदन के लिए लायी । वासुदेव ने पूछा-कालिंदसेना ! यह तुम्हारी कन्या है ? कालिंदसेना--जी महाराज ! वासुदेव ने सुहिरण्या को कुमार शंब के पास छोड़ देने को कहा । दोनों ने एक दूसरे को आलिंगन किया । कृष्ण ने मन्त्री की ओर देखा । मन्त्री ने कहा- ठीक ही है। कालिंदसेना बोली-~~-महाराज ! यह कंचनपुर के अधिपति हेमांगद की कन्या है, इसे कुमार की सेविका बनाने का अनुग्रह करें। कृष्ण ने कौटुंबियों को आदेश दिया—देखो, सुहिरण्या मेरी पुत्रवधू है, कुमार की भाँति इसकी भी संभाल करना । शंब ने बुद्धिसेन आदि मित्रों के साथ कलाओं की शिक्षा प्राप्त की । युवावस्था को प्राप्त होने पर वह दूसरे वासुदेव के समान जान पड़ने लगा । कुमार द्वारा धारण किये हुए पुष्पशेखर को बुद्धिसेन उससे माँगकर कहीं ले जाता । इसी प्रकार उसके बदले हुए वस्त्र तथा खाने से बचे हुए मोदकों को वह अन्यत्र ले जाता यह कहकर कि वह उन्हें खायेगा। १. यः काम्यते च कामी च स प्रधानमहं यथा । अकामी काम्यते यस्तु मध्योऽसावर्यपुत्रवत् ॥ यस्तु कामयते कांचिदकामां सोऽधमः स्मृतः । ते नकेचन भण्यन्ते ये न काम्या न कामिनः । २. पृ० ९८ बृहत्कथाश्लोकसंग्रह १०, १५-२३, पृ० ११२ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ एक बार रत्नकरंडक उद्यान में सुहिरण्य और हिरण्या गणिकापुत्रियों का नृत्य होने वाला था । शंब अपने मित्रों के साथ रथ में सवार हो उद्यान में पहुँचा । सुदारक उसका सारथि बना । मार्ग में रथ का पहिया ठीक करने के लिए रथ को खड़ा किया । एक कन्या ने आकर कुमार के मुकुट से लटकते हुए फुंदों को अपने दोनों हाथों से ऊपर कर दिया । उद्यान में पहुँच हिरण्या और सुहिरण्या का मनोहारी नृत्य देखा । शंब ने हिरण्या की ओर इस प्रकार दृष्टिपात किया जैसे कामदेव रति की ओर करता है । तत्पश्चात् शंब ने मित्रों के साथ नगरी के लिए प्रस्थान किया । बुद्धिसेन ने हाथ में पोथी-पुस्तक लिए हुए पुरुषों को देखा । आपस में वे कह रहे थे— “देव की आज्ञा है कि द्वारका में जितने मूर्ख हों और जिसने पंडित हों, इन सब के नाम लिखकर भेजे जायें । यह बुद्धिसेन यदि रथ में सवार हो जाता है तो इसका नाम पंडितों की सूची में लिखा जायगा, अन्यथा मूर्खो की ।" यह सुनकर बुद्धिसेन रथ पर सवार हो गया । मार्ग में नयनाभिराम दृश्य देखता हुआ वह आगे बढ़ा । आगे चलकर मत्त गज पर आरूढ़ एक महावत ने हाथी को वश में रख सकने की असमर्थता बताते हुए सारथि से रथ लौटाने का अनुरोध किया । रथ गणिकाओं के आवास में से होकर गुजरा । तरुणों के ईर्ष्या, प्रणयकोप और प्रसादन के वचन सुनते हुए बुद्धिसेन ने एक तोरण युक्त भवन में प्रवेश किया । वहाँ दासियों से परिवृत एक कन्या दिखायी दी । कन्या ने प्रणामपूर्वक उसका स्वागत किया और उसके पदों का प्रक्षालन कर आसन पर बैठाया । भोगमालिनी परिचारिका को बुलाया गया । वह बुद्धिसेन को गर्भगृह में ले गयी । शयनारूढ़ होने पर वह उसके पादों का संवाहन करने लगी । फिर, उसने वक्षस्थल के संवाहन करने की इच्छा व्यक्त की । बुद्धिसेन ने सोचा कि दासी निपुण जान पड़ती है जो पादों का संवाहन कर वक्षस्थल का संवाहन करना चाहती है । अपने स्तनों द्वारा वह वक्षस्थल का संवाहन करने लगी । हाथों से संवाहन करने की अपेक्षा स्तनस्पर्श में विशेषता होती है । जिस प्रकार हस्तिनी हाथी को रति कराती है, उसी प्रकार उसने भी कराई । बुद्धिसेन वहाँ बार-बार जाने लगा । १. २. ३. 8. बृहत्कथाश्लोकसंग्रह (१०, २६१) में मुकुट को ऊपर करने का उल्लेख है । तुलनीय बृहत्कथालोकसंग्रह १०, २७१, पृ० १३५ तथा ११वां सर्ग | वसुदेवहिंडी, पृ० १०१ । मूलपाठ है 'पत्त लिवासणहत्थे' । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ हिरण्या बचपन से ही शबकुमार को दे दी गई थी। क्रम से उसने यौवनावस्था को प्राप्त किया । वासुदेव कृष्ण ने कालिन्दसेना को उसकी कन्या को उसके अभ्यन्तरोपस्थान (गर्भगृह) में भेजने का आदेश दिया । एक बार वह अपनी माता के साथ चली । माता के मना करने पर भी न मानी । गर्भगृह में पहुँच सुहिरण्या ने गले में फाँसी लगा ली । दैवयोग से भोगमालिनी वहाँ उपस्थित थी । उसने उसका रज्जुपास हटा दिया। जब वह होश में आई तो भोगमालिनी ने आत्मघात करने का कारण जानना चाहा । सुहिरण्या ने उत्तर दिया- "बाल्यावस्था से ही मैं कुमार को दे दी गई हूँ । बड़ी होने पर देवोपस्थान में गये हुए कुमार को कभी-कभी देख लेती थी। लेकिन अब तो उनके दर्शन भी दुर्लभ हो गये हैं । " ये सब बातें भोगमालिनी ने उसकी माँ से कहीं । उसने मित्रों, हस्त्यारोहकों और लेखकों के साथ मंत्रणा की । तत्पश्चात् रथिक, महावत और लेखकों के साथ शंब के विश्वासपात्र बुद्धिसेन को कुमार के पास भेजा गया । बुद्धिसेन ने कुमार को समझाया कि वह सुहिरण्या को गणिका की पुत्री न समझे, और स्वीकार करने में कोई दोष नहीं है । ' गणिकाओं की उत्पत्ति - पूर्वकाल में भरत मंडलपति राजा था । वह एकपत्नीव्रत था। उसके सामंतों ने इसके लिए अनेक कन्याएँ प्रेषित कीं । महारानी के साथ प्रासाद पर बैठे हुए राजा ने उन्हें देखा | महारानी ने प्रश्न कियायह किसकी सेना चली आ रही है ? राजा ने उत्तर दिया- मेरे सामन्तोंने मेरे लिए कन्याएँ भेजी हैं। महारानी ने सोचा, अनागत की ही चिकित्सा करना ठीक है, कहीं राजा इनमें से किसी से प्रेम न करने लगे ! उसने कहा— स्वामि ! प्रासाद से गिरकर मैं प्राणों का त्याग कर रही हूँ । यदि इनमें से किसी ने घर में पैर रखा तो मैं शोकाग्नि में भस्म हो जाऊँगी । राजा ने कहा कि यदि ऐसी बात है तो घर में इनका प्रवेश न होगा । महारानी ने कहा-बाहर सभामंडप में ये आपकी सेवा में उपस्थित रह सकती हैं । क्रमशः उन्हें गणों के सुपुर्द कर दिया गया। तब से ये गणिकाएँ कही जाने लगी ।' (आ) बृहत्थकथाश्लोकसंग्रह : कलिंगसेना गणिका की कन्या मदनमंजुका : कलिंगसेना ने राजा को दूर से देखकर नमस्कार किया । राजा ने उसे आमंत्रित किया। पर्यंक के मध्य में आकर वह बैठ गयी । सुन्दर वस्त्राभूषणों से वह १. तुलनीय बृहत्कथाश्लोकसंग्रह ११, ८६ । Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२९ सज्जित थी (वर्णन)। उसके निकट दस वर्ष की बालिका बैठी हुई थी। राजा की दृष्टि उसकी ओर आकृष्ट हुई । वह भी राजा को मानो सहस्र नेत्रों से देखने लगी (बालिका का वर्णन)। कलिंगसेना ने बताया कि वह उसकी कन्या है और उसका नाम मदनमंजुका है। राजा ने उसे स्नेहपूर्वक अपने उरू स्थल पर बैठाया । उसकी माता को बहुत-से वस्त्राभूषण प्रदान किये । मदनमंजुका भी दीर्ध और उष्ण निश्वास छोड़ती हुई अपने घर चली गयी।' - नरवाहनदत्त जब गोमुख आदि मित्रों के साथ रथ में सवार होकर जा रहा था तो रास्ते में लम्बकर्ण, विनीत और लम्बा चोगा पहने, मषीपात्र लिए, कान में लेखनी लगाये एक कायस्थ मिला। उसने कहा- "हमारे स्वामी ने इस क्षुद्र श्ववृत्ति को सौंपकर हमें महान् कष्ट में डाल दिया है । उसका आदेश है कि इस पृथवी पर जितने विवेकवान श्रेष्ठ पुरुष हैं और जो विवेकवान नहीं हैं, उन सबकी सूची तैयार की जाये ।" इस समय दो पुस्तकें हाथ में लिए हुए उसके दूसरे साथी ने नरवाहनदत्त की ओर उंगली से इशारा किया इस अविवेकी पुरुष का नाम पुस्तक में लिख लो यह विनीत होने पर भी रथ में सवार नहीं होना चाहता; और जो बिना कहे रथ में सवार हो जाता है, उसका नाम .विवेकवान पुरुषों के रजिस्टर में लिखो। यह सुनकर नरवाहनदत्त शीघ्र ही रथ में सवार हो गया । आगे चलने पर एक हाथी मिला । सारथि ने महावत से कहा कि वह रथ के सामने से हाथी को हटा ले । उसने उत्तर दिया-तुम्हीं अपने रथ को एक तरफ हटा लो, मैं इसे ताड़ना नहीं चाहता । नरवाहनदत्त ने सारथि से कहा कि यदि महावत(अघोरण) हाथी को नहीं हटाता तो तुम अपने रथ को एक तरफ कर लो। आगे चलकर वणिक्पथ दिखायी दिया । रम्य प्रासाद की पंक्तियाँ दिखाई पड़ीं । मद से उन्मत्त प्रमदाएँ पुरुषों के साथ विविध प्रकार की क्रीडाएँ कर रही थीं। विटशास्त्रका अध्ययन किया जा रहा था । सारथि ने नरवाहनदत्त को वेश्यालय में प्रवेश कराया। नरवाहनदत्त ने १. ७. ४-१७, पृ. ८३-६ २. वसुदेवहिंडी में 'पत्तलिवासणहत्थे पुरिसे' है। ३. वसुदेवहिंडी (पृ. १०२) में 'अविहेओ मे गओ' और बृहत्कथाश्लोकसंग्रह में 'विहन्तुं नेच्छामि' पाठ है । वसुदेवहिंडी की कालिन्दसेना और सुहिरण्यका क्रमशः कलिंगसेना और मदनमंजुका बन गई हैं। ४. वसुदेवहिंडी (पृ० १०२) और बृहत्कथाश्लोक. दोनों में इसी शब्द का प्रयोग किया गया है। १७ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारथि को रथ लौटाकर ले चलने को कहा । लेकिन सारथि ने उत्तर दिया कि भय की बात नहीं; यह कोई मातंगों का मोहल्ला नहीं है ? और किसी चीज के देखने मात्र से कोई दोष का भामी नहीं हो जाता । आगे बढ़ने पर एक उन्नत मंदिर दिखाई पड़ा । सुन्दर आभूषण धारण करने वाली अनेक कन्याओं ने रथ को घेर लिया। एक कन्या ने नस्वाहनदत्त को निकट आने का आमंत्रण दिया। सारथि ने प्रणयीजन के प्रणय को सफल करने के लिए नरवाहनदत्त से उस गृह में प्रवेश करने का अनुरोध किया। तत्पश्चात् जैसे कोई जंगली हाथी श्रृंखला द्वारा पकड़ लिया जाता है उसी प्रकार नस्वाहनदत्त मणिकाओं द्वारा पकड़ लिया गया । पहले कक्ष में उसने नागकन्या को, दूसरे में शिविका को, तीसरे में अश्कों को, चौथे में पक्षियों के पंजरमंडल को, पांचवें में बिविध आकार वाले सुवर्ण तारताम्रों को, छठे में धूपानुलेपन से म्लान हुए वस्त्र-परिधान को, सातवें में पट्ट, कौशेयक दुकुल वस्त्र को आठवें में मणिमुक्ता के छेदन आदि संस्कारों को देखा । सुवर्णकुण्डल धारण करने वाली कियों ने नरवाहनदत्त से निवेदन किया कि उसके चरण-कमलों से उनका घर पवित्र हो गया है । प्रासाद में पहुँच नरवाहनदत्त अनुपम गुणों से युक्त एक सुन्दर कन्या के अनुपम सौन्दर्य को देखकर मूर्छित हो गया । उसके दिये हुए आसन पर वह बैठ गया। उसके अन्य मित्र भी उसके साथ थे । कन्या के प्रश्न करने पर नरवाहनदत्त ने बताया कि वह स्वयं गजनीति और गांधर्वज्ञान में, हरिशिख दण्डनीति में, मरुभूतिक शास्त्रज्ञान में तथा तपन्तक रथ आदि यानविद्याओं में कुशल है । इस गणिकाकन्या की ओर नरवाहनदत्त का आकर्षण न हुआ । अन्य गणिकाओं को भी उसने तुच्छ समझा । इतने में रूपदेवता की भाँति एक अन्य गणिका उपस्थित हुई। उसने बिछे हुए पर्यंक की शरण ग्रहण कर रथ-संक्षोभजन्य खेद को दूर करने का अनुरोध किया। नरवाहनदत्त के पायंतो बैठकर अपने हाथों से वह उसके पाद संवाहण करने लगी । कुछ क्षणों बाद उसने कहा--आपको वक्षस्थल में भी थकान का अनुभव होता होगा, आज्ञा हो तो यह दासी थकान दूर करे । नरवाहनदत्त ने सोचा कि उसके पादतल का स्पर्श कर अपने हाथों से वह अब उसके वक्षस्थल का स्पर्श करना चाहती है । नरवाहनदत्त के अभिप्राय को समझ गणिका ने कहा- कौन मूर्ख तुम्हारे वक्षस्थल को हाथों से स्पर्श करना चाहेगा ? स्थ के संक्षोभ से उत्पन्न वक्षस्थल की थकान दूर करने के लिए स्तनोत्पीडितक-संवाहन सबसे श्रेष्ठ बताया गया है। तत्पश्चात् सकंपभाव से वह अपने स्तन युक्त उर से नरवाहनदत्त के वक्षस्थल का संवाहन करने लगी। नरवाहनदत्त क्रीड़ाघर से बाहर Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३१ निकला । वहाँ पहले वाली कन्या मिली । उसने कहा-यह घर आपका ही है, आते रहिए । गणिकाओं की उत्पत्ति-राजा भरत ने समुद्रपर्यंत मिलने वाली कान्ताओं को एकत्र कर, एकान्त में उन सबके साथ विवाह किया। लेकिन जिस स्त्री का सर्वप्रथम उसने पाणिग्रहण किया, उसी से वह संतुष्ट हो गया। शेष को आठ गणों के सुपुर्द कर दिया। प्रत्येक गण में प्रमुख स्त्री को राजा ने आसन, छत्र और चामर की अनुज्ञा प्रदान की। जो गणों में अन्यों से महानतम थीं उन्हें महागणिका शब्द से सम्बोधित किया गया । गणमुख्य गणिकाओं के एक गण में कलिंगसेना उत्पन्न हुई । मदनमंजुका उसी की कन्या है । मदनमंजुका की कहानी--एक दिन अपनी माता कलिंगसेना को राजकुल में जाती देख मदनमंजुका ने भी जाने के लिए बार-बार अनुरोध किया । कन्या का बहुत आग्रह देख, उसे आभरणों से सज्जित कर वह राजदरबार में ले गयी । वहाँ से लौट आने पर उसके कपोल, नयन और अधरों में संतोष दिखायी दिया। अपनी सखियों के बीच बैठकर वह राजदरबार की कथाएँ सुनाती । अपनी माता को राजदरबार में जाती देख वह भी जाने के लिए उद्यत हो गयी। माता ने समझाया--बेटी ! राजाज्ञा के बिना वहाँ जाना ठीक नहीं, क्योंकि राजा लोग क्षीणस्नेही और कठोर होते हैं। माता के वचन सुनकर वह घर लौट आई । निद्रा और भोजन का त्यागकर उसने शैया की शरण ग्रहण की। नींद का बहाना कर अपनी सखियों को उसने बिदा कर दिया । वह राजकुल की तरफ मुँह कर, अंजलि बाँध, जन्मान्तर में वहाँ की वधू बनने की अभिलाषा करने लगी । गले में दुकूल पाश बाँध उसने अपने आपको खूटी पर लटका दिया । मुद्रिकालतिका ने जल्दी से उसका वह कालपाश हटा दिया। शयनीय पर लिटाकर पंखे से हवा की जिससे वह होश में आ गयी । उसने बताया कि जब वह राजकुल में गयी थी तो राजा ने उसे आदरपूर्वक अपने दक्षिण उरु पर बैठाया था, उसके वाम उरु पर राजकुमार आसीन था । मेरी नजर राजकुमार पर पड़ी और वह मेरे हृदय में बैठ गया। तभी से निर्धूम अग्नि मेरे अन्तस्तल में प्रज्वलित हो रही है। मेरे दुख का यही कारण है । मुद्रिकालतिका ने उसकी माता के पास पहुंचकर यह समाचार सुनाया । उपाय सोचा गया-राजकुमार के परम मित्र गोमुख' को वेश्यालय में प्रवेश कराया जाय, जहाँ वह राजकुमार को भी साथ लेकर आयेगा। १. वसुदेवहिंडी में बुद्धिसेन है । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ स्वयं नरवाहनदत्त ने मदनमंजुका के पास जाकर उसे ढाढ़स बंधाया और कहा कि राजकुमार स्वयं शीघ्र ही उपस्थित हो उसे प्रणाम करेगा । नरवानदत्त कुमारवाटिका में पहुँच वहाँ से उच्छिष्ट मोदक' आदि लेकर लौटा । उससे कहा कि राजकुमार ने अपने हाथ के मोदक उसके लिए भेजे हैं। लेकिन मदनमंजुका को विश्वास न हुआ । मुद्रिकालतिका ने नरवाहनदत्त से कहा कि महानागरक होकर भी आप उस बिचारी को ठगना चाहते हैं !" मदनमंजुकालाभ नामक ११ वें सर्ग में मदनमंजुका का राजकुमार के साथ मिलाप हो जाता है। ४. श्रेष्ठीपुत्र की कथा (अ) वसुदेवहिंडी : चारुदत्त की कथा : श्रमणोपासक भानू नामक श्रेष्ठी की भार्या का नाम भद्रा था। उसके कोई संतान नहीं थी। एक बार आकाशचारी चारु नामक अनगार का आगमन हुआ। भद्रा ने हाथ जोड़कर विनय की महाराज ! हम लोगों के धन की कमी नहीं, लेकिन उसका भोगने वाला कोई पुत्र नहीं है। समय व्यतीत होने पर भद्रा ने पुत्र को जन्म दिया । चारु मुनि के कथन से वह पैदा हुआ था, इसलिए उसका नाम रक्खा गया चारुदत्त । चारुदत्त बड़ा हुआ । उसके पाँच मित्र थे-हरिशिख, वराह, गोमुख, तपंतक और मरुभूतिक । उसने कलाओं की शिक्षा ग्रहण की। मित्रों के साथ वह समय व्यतीत करने लगा। एक बार कौमुदी महोत्सव के समय श्रेष्ठीपुत्र चारुदत्त हरिशिख, वराह, गोमुख, तपंतक और मरुभूति नामक अपने मित्रों को लेकर अंगमंदिर उद्यान में पहुँचा । वहाँ से सब रजतवालुका नदी के किनारे आये । मरुभूति ने नदी में उतर कर चारुदत्त से कहा—तुम क्यों नहीं आते ? क्यों विलंब कर रहे हो ? गोमुख ने उत्तर दिया-वैद्यों का कहना है कि रास्ता चलकर एकदम नदी के जल में प्रवेश नहीं करना चाहिए । सब लोग कमलपत्रों को तोड़कर स्वच्छन्द भाव से पत्रच्छेद्य से क्रीड़ा करने लगे । क्रीड़ा करते-करते दूसरे नदी स्त्रोत पर १. वसुदेवहिंडी में 'भुत्तसेसे मोदके' पाठ है । २. १०. ३८-२७४ ३. ऐस. ऐन. दासगुप्ता ने मदनमंजुका के प्रेम को उत्कृष्ट कोटिका बताते हुए उसकी तुलना मृच्छकटिक की वसन्तसेना के साथ की है। हिस्ट्री ऑफ संस्कृत लिटरेचर, क्लासिक पीरियड, पृ० १०० ५. बृहत्कथा लोकसंग्रह १८-४-१० के अनुसार, सानुदास चंपा निवासी मित्रवर्मा नामक वणिक और उसकी भार्या मित्रवती का पुत्र था । एक दिन सानु नामक दिगम्बरमुनि भिक्षा के लिए आये । उन्होंने ऋषभभाषित धर्म का उपदेश दिया। भावी पुत्र के उत्पन्न होने की उन्होंने भविष्यवाणी की । सानु मुनि के आदेश से पुत्रोत्पत्ति होने के कारण पुत्र का नाम सानुदास रखा । वसुदेवहिंडी पृ० १३३-३४ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३३ पहुँच गये । गोमुख ने दोने के आकार के पद्मपत्र को जल में तैरा दिया। इसमें थोड़ी रेत डाली, और यह नाव की भाँति तैरने लगा । मरुभूति ने दूसरा पद्मपत्र लिया और उसमें बहुत-सा रेत भर दिया । भारी होने से पद्मपत्र की यह नाव डूब गयी। सब मित्र हंसने लगे। उसने दूसरा पद्मपत्र जल में डाला । लेकिन प्रवाह की शीघ्रता के कारण नाव के जल्दी चलने से गोमुख जीत गया । पनपत्र की नाव बहुत दूर चली गयी। पुलिनतट पर, महावर से रंगे किसी युवती के पदचिह्न देखकर मरुभूति को आश्चर्य हुआ। गोमुख-इसमें आश्चर्य की कौन बात ? ऐसे जलप्रदेश अनेक हो सकते हैं ? मरुभूति--अरे, यह देखो, दो पैरों के निशान ! । गोमुख—इसमें क्या हुआ ? हमारे चलने-फिरने से भी तो पैरों के सैकड़ों निशान बन जाते हैं ! . मरुभूति -लेकिन भई, हमारे पैरों के निशान तो आगे-पीछे पैरों के रखने से बनते हैं, और ये निशान बीच-बीच में टूटे हैं ! पता नहीं लगता, कहाँ से शुरू हुए हैं और कहाँ इनका अंत हुआ है ! जरा ध्यान से देखो ! हरिशिख—इसमें क्या ? कोई पुरुष नदी तट पर खड़े हुए वृक्ष पर चढ़, एक शाखा से दूसरी शाखा पर पहुँच गया और जब उसने देखा कि वह शाखा कोमल हैं, तो उसपर से वह कूद पड़ा और फिर से वृक्ष पर चढ़ गया। गोमुख-(कुछ विचार कर) यह नहीं हो सकता । यदि वह वृक्ष के ऊपर से कूदा होता तो उसके हाथ-पैर के संघर्ष के कारण नीचे गिरे हुए फूल और पत्ते नदीतट पर और जल में बिखर जाते । हरिशिख--तो फिर ये पैर किसके होने चाहिए ? गोमुख-किसके क्या ? किसी आकाशगामी के होंगे। हरिशिख-आकाशगामी के किसके ? किसी देव के ? किसी राक्षस के ? चारण मुनि के ? या फिर किसी ऋद्विधारी ऋषि के ? गोमुख-देवों के तो इसलिए नहीं हो सकते कि वे भूमि से चार अंगुल ऊपर विहार करते हैं । राक्षसों का शरीर स्थूल होने के कारण उनके पैर भी Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ G बड़े होते हैं । पिशाच जलमय प्रदेश से डरते हैं ।' ऋद्धिधारी ऋषियों के कृशगात्र होने के कारण उनके पैरों का मध्यभाग उठा हुआ होता है । चारण मुनि जलचर जीवों की रक्षा के लिए जलवाले प्रदेश में परिभ्रमण करते नहीं । हरिशिख - तो ये फिर किसके हैं ? किसी के तो होंगे ? गोमुख --- किसी विद्याधर के । हरिशिख – विद्याधरी के क्यों नहीं ? गोमुख -- पुरुष बलवान होता है, वह उत्साह से गमन करता है । उसका वक्षस्थल विशाल होने के कारण जब वह चलता है तो उसके पैर आगे से कुछ दबे होते हैं । स्त्रियों के नितंब भारी होने से चलते समय उनके पैर पीछे से दबे होते हैं । इसलिए ये पैर विद्याधरी के नहीं हो सकते । 1 गोमुख — लगता है, वह विद्याधर कोई बोझ लिये हुए था । हरिशिख -कौनसा बोझ ? किसी पर्वत का ? वृक्ष का ? अथवा पकड़कर लाये हुए अपराधी शत्रु का ? गोमुख – यदि यह भार पर्वत का होता तो पर्वत के बोझ के कारण उसके पैर रेत में धंस गये होते । यदि वृक्ष का होता तो नदी तट पर दूर तक फैली हुई शाखाओं के चिह्न बने होते । और फिर ऐसे रमणीक स्थान पर किसी शत्रु को कोई लायेगा ही क्यों ? हरिशिख- - तो फिर यह बोझ किसका हो सकता है ? गोमुख —— किसी स्त्री का ? हरिशिख - लेकिन स्त्री का इसलिए संभव नहीं कि विद्याधरियाँ आकाशगामिनी होती हैं । गोमुख - विद्याधर की यह प्रिया भूमिगोचरी थी । उसके साथ वह रममी स्थानों में विहार किया करता था । हरिशिख-यदि वह उसकी प्रिया थी तो उसने उसे विद्याएँ क्यों नहीं सिखायीं ? गोमुख- - वह ईर्ष्यालु था । सन्देहशील होने के कारण वह सोचता था कि विद्याएँ प्राप्त कर कहीं वह स्वच्छन्दाचारी न हो जाये । हरिशिख- - कैसे जानते हो कि वह विद्याधरी नहीं थी ? १. यक्ष. राक्षस और पिशाचों का प्रभाव दिन में सूर्य के तेज से पराभूत हो जाता है । जहाँ देवताओं और ब्राह्मणों का समुचित रूप से पूजन नहीं किया जाता और भ्रष्ट रूप से भोजन किया जाता है, वहाँ ये प्रबल हो जाते हैं । जहाँ निरामिष भोजी अथवा सती-साध्वी स्त्री रहती है, वहाँ वे नहीं जाते, तथा पवित्र, शूर और प्रबुद्ध व्यक्तियों को नहीं छेड़ते । कथासरित्सागर (१. ७. ३२-७ ) Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोमुख-स्त्रियों का अधोभाग भारी होता है और बायें हस्त से प्रणय चेष्टा करने में वे दक्ष होती हैं। इससे उसका बायाँ पैर कुछ ऊपर उठ गया हैं। हरिशिख ... यदि स्त्री उसके साथ थी तो उसके साथ रमण किये बिना वह कैसे चला गया ? गोमुख-प्रकाश होने के कारण जल से घिरे हुए इस प्रदेश को उसने रति के योग्य नहीं समझा । और पैरों के अविकीर्ण होने से लगता है कि वह कहीं पास में ही होना चाहिए । यह प्रदेश अत्यन्त रमणीय है, इसे छोड़कर भला वह कहाँ जा सकता है। चलो, उसके पदचिह्नों से उसका पता लगायें । कुछ दूर चलने पर चार पैर दिखायीं देते हैं । गोमुख-देखो, पायल के अग्रभाग से चिह्नित ये पैर किसी स्त्री के जान पड़ते हैं । पुरुष के पैर अलग दिखायी दे रहे हैं । कुछ दूर चलने पर उन्हें भ्रमरों से आच्छन्न सप्तपर्ण का वृक्ष दिखायी दिया । गोमुख-देखो, यहाँ आकर स्त्री ने वृक्ष की शाखा पर लगा हुआ पुष्प गुच्छ देखा । उसे न पा सकने के कारण उसने अपने प्रियतम से गुच्छे को तोड़कर देने का अनुरोध किया । चारुदत्त-यह तुमने कैसे जाना ? गोमुख--यह देखो, पुष्पगुच्छ की इच्छा करती हुई, एड़ी बिना, स्त्री के पैर दिखायी दे रहे हैं । और जानते हो विद्याधर लंबा था, इसलिए बिना विशेष प्रयत्न के ही उसने पुष्पगुच्छ को तोड़ लिया । तट पर उसके अभिन्न रेखावाले ये पैर दिखायी दे रहे हैं। लेकिन इस गुच्छे को उसने अपनी प्रिया को नहीं दिया। और लगता है, उन्हें यहाँ से गये हुए बहुत समय नहीं हुआ है। क्योंकि पुष्पगुच्छ के अभी हाल में तोड़े हुए होने के कारण, पुष्प की डंठल में रस टपक रहा है। हरिशिख-ठीक है, पुष्पगुच्छ को अभी तोड़ा गया होगा। लेकिन यह कैसे जाना कि उसे विद्याधर ने अपनी प्रिया को नहीं दिया । प्रिया के मांगमे पर तो देना ही चाहिए था। मोमुख-काम प्रणय से चंचल हो उठता है । लगता है कि उस स्त्री ने अपने प्रियतम से पहले किसी चीज की याचना नहीं की । अतएव अपनी प्रिया को याचना से चंचल देख, विद्याधर को बड़ा अच्छा लगा । वह भी 'दो ना, प्रिय दो ना' कहती हुई उसके चारों ओर फिरकी की भाँति फिरने लगी। यह Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ देखो, विद्याधर के पैरों के चारों ओर उसके पैर दिखायी दे रहे हैं । चारुस्वामी ! इससे वह अविद्याधरी कुपित हो गयी । हरिशिख --- इस बात का पता कैसे लगा ? गोमुख — यह देखो, क्रोध के आवेश में उठे हुए उसके अस्तव्यस्त पैर । और देखो इसके पास ही ये पैर विद्याधर के हैं जो उसके पीछे-पीछे चल रहा है । यह देखो, जल्दी-जल्दी रक्खी हुई उसकी पदपंक्ति उसका मार्ग रोक रही है । और देखो, वह अविद्याधरी अपनी हँसी रोककर इधर से गयी और उधर से वापिस लौटी । उसके गुस्सा हो जाने पर विद्याधर ने वह पुष्पगुच्छ उसे दे दिया । लेकिन उसने पुष्पगुच्छ को फेंककर विद्याधर की छाती पर मारा | और जानते हो उसके क्रोध के साथ ही वह गुच्छ भी बिखर गया ! यह देखकर विद्याधर अपनी प्रिया के पैरों में गिर पड़ा । यहाँ उसके पैरों के समीप विद्याधर के मुकुट से दबा हुआ रेत दिखायी दे रहा है । बस फिर क्या था ? सुकुमार गुस्से वाली उसकी प्रिया जल्दी ही प्रसन्न हो गयी । यह देखो, नदीतट पर भ्रमण करते हुए उन दोनों के पैर ! चारुस्वामी ! और सुनिए, जब वह विद्याधर के मुख पर अपनी दृष्टि गड़ायी हुई थी तो उसके पैर में कंकड़ी चुभ गयी । विद्याधर ने जल्दी से उसका पैर ऊपर उठा लिया । वेदना के कारण उसने विद्याधर के कन्धे का सहारा लिया । यह देखो, यह एक पैर अविद्याधरी का है और ये दो विद्याधर के । विद्याधर ने उसके पैर में से खून से गीला हुआ रेत निकाल कर फेंक दिया । हरिशिख --- जिसे तुम खून कह रहे हो, कहीं वह महावर तो नहीं ? गोमुख- -भई, महावर का रस कड़वा होता है; उस पर मक्खियाँ नहीं बैठती । यह तो हाल के लगे हुए घाव में से दुर्गंधि-युक्त, मधुर और माँस में से टपकने वाला खून है, इसलिए इस पर मक्खियाँ भिनभिना रही हैं । चारुस्वामी ! और फिर वह विद्याधर उसे अपनी बाहुओं में भरकर ले गया । हरिशिख --- यह कैसे पता चला ? गोमुख — देखो, स्त्री के पैर यहाँ दिखायी नहीं देते जबकि पुरुष के पैर साफ दिखायी दे रहे हैं । तथा चारुस्वामी ! मेरा ख्याल है कि वह विद्याधर अपनी प्रेमिका के साथ सामने के लताघर में होगा। आइए, हम यहीं ठहर जायें । एकांत वास करते हुए उन्हें देखना ठीक नहीं । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुछ समय पश्चात् लतागृह में से अपनी सहचरी के साथ एक मो र बाहर निकला। गोमुख-चारुस्वामी ! देखिए, इस लतागृह में विद्याधर नहीं है । हरिशिख-अब तक तो कहते आ रहे थे कि अपनी प्रिया के साथ विद्याधर इस लतागृह के अन्दर है, अब कहने लगे नहीं है । गोमुख-देखो, यह मोर निःशंक होकर अन्दर से निकला है। यदि कोई मनुष्य अन्दर होता तो वह ऐसा नहीं करता । गोमुख के वचन को प्रमाण मान, चारुदत्त ने अपने मित्रों के साथ लतागृह में प्रवेश किया तो वहाँ थोड़ी देर पहले उपर्युक्त कुसुमों की शैया देखी । गोमुख-विद्याधर को यहाँ से गये हुए बहुत समय नहीं हुआ है । ये उसके जाने के पैर दिखायी दे रहे हैं । वह यहाँ अवश्य लौटकर आयेगा । यह देखो, वृक्ष की शाखा में लटका हुआ चीते के चमड़े से बना हुआ उसका कोशरत्न (थैली) और खड्ग दिखाई दे रहे हैं । इन्हें लेने वह अवश्य आयेगा । विद्याधर के पदचिह्नों को देखते हुए गोमुख ने कहा-~-चारुस्वामी! यह विद्याधर किसी महान् संकट में पड़ गया मालूम होता है । पता नहीं वह जीता भी है या नहीं ? चारुस्वामी--क्यों ? गोमुख-क्या तुम इन दो और पैरों को नहीं देखते ? पता नहीं लगता कि ये पैर कहाँ से आये हैं, तथा पृथ्वी पर से आकाश में उड़ जाने के कारण रेत उड़ी हुई जान पड़ती है । लगता है यहाँ इस विद्याधर को किसी ने गिरा दिया है। यह देखो, उसे खींचकर नीचे डालने से उसके शरीर की आकृति बनी हुई है । यहाँ स्त्री के पैर भी नीचे पड़े हुए दिखायी दे रहे हैं। आइए, हम लोग इन पदचिह्नों का अनुकरण करते हुए आगे बढ़ें। ____ आगे चलने पर इधर-उधर बिखरे हुए आभूषण तथा वायु से प्रकंपित पीले रंग का क्षौम वस्त्र दिखायी दिया । गोमुख-चारस्वामी ! जब यह विद्याधर निश्चित भाव से बैठा हुआ था तो किसी शत्रु ने उसपर आक्रमण किया। भूमिगोचरी होने के कारण उसकी भार्या किसी प्रकार का प्रतिकार करने में असमर्थ थी । चारुदत्त ने मरुभूति को क्षौम वस्त्र, आभूषण, चर्मरत्न और खड्ग उठाकर ले चलने को कहा जिससे कि विद्याधर की वस्तुएँ उसे वापिस लौटाई जा सकें। १८ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ आगे चलने पर सही के बिल में लटकते हुए बाल दिखायी पड़े । गोमुख ने हरिशिख से उन्हें सूंघने को कहा । सूंघने पर पता लगा कि उनकी गंध स्थिर है और गर्मी में रहने के कारण उनमें से सुगंध की मानो वर्षा हो रही है। गोमुख –—–—चारुस्वामी जो कोई दीर्घायु होता है, उसके केशों और वस्त्रों में ऐसी सुगंध होती है । यह विद्याधर दीर्घायु और उत्तम जान पड़ता है । यह राज्याभिषेक का अधिकारी होना चाहिए । आगे बढ़ने पर देखा कि वह विद्याधर कदंब वृक्ष पर पाँच लोहे की कीलों से बंधा हुआ पड़ा है— एक कील उसके कपाल में, दो हाथों में और दो उसके पैरों में । लेकिन फिर भी उसके मुख की कांति में कोई अंतर नहीं दिखायी पड़ा, उसके शरीर की छवि सौम्य थी, हाथों और पैरों में से रक्त नहीं बह रहा था, और तीव्र वेदना होने पर भी उसका श्वासोच्छ्वास मंद नहीं पड़ा था । उसके चर्मरत्न को खोलकर देखा तो उसमें चार औषधियाँ मौजूद थीं । एक से शल्यों को निकाला (विशल्यकरणी ) दूसरी से जिलाया (संजीवनी) और तीसरी से घावों को अच्छा किया (संरोहणी ) । विशल्यकरणी औषधि को उसके कपाल में चुपड़ने से कपाल में ठोकी हुई कील बाहर निकलकर गिर पड़ी । फिर उसके दोनों हाथ और पैरों को छुडाया । पीताम्बर युक्त कदलीदल के पत्र पर उसे सुलाया । उसके घावों में संरोहणी छिड़की । कदलीपत्रों की वायु और जलकणों द्वारा उसे होश में लाया गया । होश में आते ही विद्याधर एकदम दौड़कर चिल्लाने लगा- - अरे दुराचारी धूमसिंह ! ठहर ! तू भागकर कहाँ जायगा ? लेकिन वहाँ कोई न था, इसलिए व्यर्थ ही गर्जना करने के कारण वह लज्जित होकर बैठ गया । तत्पश्चात् सरोवर मैं स्नान कर उसने वस्त्राभूषण धारण किये । चारुदत्त और उसके साथियों के समीप आकर वह कहने लगा- अरे ! मुझे मेरे शत्रु ने बांध दिया था, मुझे किसने छुड़ाया ? गोमुख ने उत्तर दिया - हमार मित्र इभ्यपुत्र चारुस्वामी ने । तत्पश्चात विद्याधर ने अपनी रामकहानी सुनाई. -- Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरा नाम अमितगति है—शिवमंदिर नगर का निवासी, पिता महेंद्र विक्रम, माता सुयशा । एक बार धूमसिंह और गौरीपुंड नामक अपने मित्रों के साथ वैताढ्य पर्वत की तलहटी में सुमुख नामक आश्रम में गया । वहाँ मेरा मामा क्षत्रिय ऋषि हिरण्यलोम तापस रहता था। उसके अनुरोध पर उसकी रूपवती कन्या सुकुमालिका के साथ मैंने विवाह कर लिया । वह कभी स्वच्छंदाचारी न बन जाये, इसलिए मैंने उसे विद्याओं की शिक्षा नहीं दी। धूमसिंह मेरी अनुपस्थिति में सुकुमालिका को बहकाने का प्रयत्न करता । वह मुझसे सब बात कहती लेकिन मैं विश्वास न करता, यद्यपि मेरा मन शंकित हो गया था। एक बार की बात है, स्नान आदि करने के पश्चात् मेरी पत्नी और धूमसिंह मेरे केश संवार रहे थे। मेरे हाथ में दर्पण था। धूमसिंह हाथ जोड़कर मेरी पत्नी से अनुनय-विनय कर रहा था । दर्पण सामने होने से मुझे पता चल गया। क्रोध में आकर मैंने धूमसिंह को ललकारा—यही तेरी मित्रता है ! यहाँ से भाग जा नहीं तो मार डालूँगा । धूमसिंह वहाँ से चला गया । उसे फिर मैंने नहीं देखा । आज मैं अपनी पत्नी के साथ इस सुन्दर नदी तट पर आया । नीचे उतरने पर इस स्थान को मैंने रति के योग्य नहीं समझा, इसलिए वहाँ से चला आया। तत्पश्चात् प्रणयकोप और प्रसादन के रमणीय प्रसंगों से लगाकर लतागृह से बाहर आने तक सारी कहानी सुना दी। विद्यारहित स्थिति में, मेरे शत्रु धूमसिंह ने मुझे बांध लिया और विलाप करती हुई सुकुमालिका को वह उठाकर ले गया । अब तुम लोगों ने अपनी बुद्धि और औषधि के प्रभाव से मुझे जीवित किया है । अतएव चारुस्वामी ! आप मेरे बंधु हैं । आज्ञा दीजिए, आप लोगों की क्या सेवा करूँ ? मुझे शीघ्र ही जाने की आज्ञा दें । मैं जाकर अपनी पत्नी की रक्षा करूँगा, कहीं वह मेरे जीवन की निराशा से अपने प्राणों को त्याग न दे। इतना कहकर अमितगति वहाँ से चला गया।' (आ) बृहत्कथाश्लोकसंग्रह : सानुदास की कथाः गोमुख सरोजपत्र को अपने नाखूनों से छेदने लगा। पत्रच्छेद्य को नदी के जल में तैरा दिया। तत्पश्चात् गोमुख ने पत्रच्छेद्य के लक्षण प्रतिपादित किये (व्यस्त्र, चतुरस्त्र, दीर्घ और वृत्त । १. पृ० १३३-४० Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० मरूभूतिक ने एकदम आकर कहा-आर्यपुत्र ! कितना बड़ा आश्चर्य है ? देखा आपने ? हरिशिख--कूप के कच्छप के समान मोटी बुद्धि वाले तुम जैसों को सब जगह आश्चर्य ही-आश्चर्य दिखायी देता है । इसपर मरुभूतिक ने उंचे पुलिन के दर्शन कराये। हरिशिख ने हँस कर कहा- उस चक्षुवान् पुरुष को नमस्कार है जिसे पुलिन भी आश्चर्यकारी लगता है! जल नीचे से बहता है और जो रेतीला स्थान है, वह पुलिन बन जाता है यदि इसमें कोई आश्चर्य लगता है तो हे मूर्ख ! तेरे जल में कौनसा दोष हुआ ? मरूभूति--अरे भई ! पुलिन को कौन आश्चर्यकारी कहता है। पुलिन पर जो आश्चर्यकारी है, उसे भी तो जरा देखो। हरिशिख-पुलिन पर रेत है, और क्या ? क्या रेत का होना भी आश्चर्य है ? यह सुनकर गोमुख बोला-अरे ! भद्रमुख मरूभूतिक का क्यों मजाक उड़ाते हो ? पुलिन पर मैंने भी दो पैर देखे हैं। हरिशिख-यदि दो पैरों का देखना आश्चर्य कहा जा सकता है तो चतुर्दश कोटि पदों का देखना तो और भी आश्चर्य की बात होगी । गोमुख-एक के पीछे एक पड़े हुए कोटि पदों का देखना कोई आश्चर्य की बात नहीं, लेकिन इन दोनों पैरों में अनुक्रम नहीं है, यही आश्चर्य है। __ हरिशिख- हो सकता है कि पैरों के शेष चिह्नों को हाथ से मिटा दिया गया हो । नदी तट पर खड़े हुए वृक्ष की जो शाखा पुलिन तक आ रही है, संभवतः उसे पकड़ कोई नागरक ऊपर चढ़कर फिर नीचे उतर आया हो । उसी के ये पैर होंगे। गोमुख--लेकिन दूर तक फैले हुए पत्तों वाली शाखा को पड़कर यदि वह ऊपर चढ़कर नीचे उतरा होता तो पृथवी पत्तों से आकीर्ण हो जाती । हरिशिख---तो फिर ये पैर किसके होंगे ? गोमुख-किसी दिव्य पुरुष के होने चाहिए ? हरिशिख--दिव्य पुरुष के किसके ? गोमुख-देखो, किसी देव के तो इसलिए नहीं हो सकते कि वे पृथिवी का स्पर्श नहीं करते । यक्ष और राक्षस स्थूल शरीर होते हैं, यदि ये पैर उनके Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४१ होते तो पुलिन पर अन्दर तक धंस जाते । तप के कारण कृश शरीर वाले सिद्धों और ऋषियों के पैरों की उंगलियां स्पष्ट दिखायी नहीं पड़तीं । अतएव ये पैर किसी मनुष्य के ही हो सकते हैं। पुरुषों के पैर आगे से और स्त्रियों के पीछे से दबे हुए होते हैं । और देखो लगता है कि जिस पुरुष के ये पैर हैं वह कोई भार उठाये हुआ था । हरिशिख -- वह कौनसा भार उठाये था ? किसी शिला का ? वृक्ष का ? अथवा किसी शत्रु का वह भार था ? गोमुख -- देखो, यदि वह भार शिला का होता तो उसके पैर अंदर तक धँस गये होते । यदि वृक्ष का होता तो पृथ्वी पर पत्ते फैल गये होते । शत्रु का भार इसलिए नहीं कि इतने रमणीय स्थान पर कौन शत्रु को लेकर आयेगा । अतएव असिद्ध विद्यावाली विद्याधरी का ही यह भार है । विद्याधर ने उसके जघन पर अपना दक्षिण हाथ रक्खा जिससे उस कामी विद्याधर का दक्षिण पैर अन्दर चला गया । तुम उसके सिर से गिरे हुए मालती के पुष्पों से अवकीर्ण स्थान को नहीं देख रहे हो ? इधर-उधर देखने से जल के समीप अन्यत्र भी स्त्री-पुरुष के पैर दिखायी दिये । गोमुख ने कहा- - वह नागरक यहीं कहीं होना चाहिए | हरिशिख – क्यों ? गोमुख -- दूसरे के चित्तानुवृत्ति और अपने चित्त के निग्रह को नागरकता कहा गया है । अतएव मंथर गति से गमन करती हुई कामिनी का अतिक्रमण करके वह नहीं जा सकता । उनके पादचिह्नों का अनुगमन करते हुए वे आगे बढ़े । भ्रमरों से गुंजायमान सप्तपर्ण को उन्होंने देखा । इस वृक्ष के नीचे उन दोनों के एकान्त विहार करते समय जो कुछ बीता उसका वर्णन गोमुख ने किया । गोमुख -- यहाँ विद्याधर की पत्नी जब कुपित हो गयी तो विद्याधर ने उसे प्रसन्न किया । कुसुमवाले पल्लवों द्वारा निर्मित इस बिस्तर को देखो । श्रान्त होकर वह यहाँ बैठ गयी । उसके जघन के संचरण से पल्लव जर्जरित हो गये । विद्याधर ने गुरुत्रिक हाथ में ले जघन में स्थापित किया और उसे लगा कि मानो यह पृथ्वी उसके चरणों में लौट रही है ! Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ वहाँ से वह उठकर चली गयी। आइए, उन दोनों के पदचिह्नों का अनुगमन करते हुए आगे बढ़ें। उन दोनों ने कामिनियों के रम्य स्थान, चन्द्र, सूर्य, अग्नि और वायु से अस्पृष्ट माधवी लता के कुंज में प्रवेश किया । प्रच्छन्न एवं रमणीय इस स्थान को छोड़कर वह कैसे जा सकता था ? सुखपूर्वक आसीन उनका दर्शन करना उचित नहीं, इसलिए आइए, हम लोग यहीं ठहर जायें । तत्पश्चात् लतागृह को देखकर सिर हिलाकर गोमुख ने कहा-वह कामी यहाँ नहीं है। हरिशिख-अभी तो कहते थे वह है, अब कहते हो नहीं ! गोमुख-क्या तुम अन्धे हो जो माधवी लतागृह से निर्भयतापूर्वक मूक भाव से निकलते हुए शिखण्डिमिथुन को तुमने नहीं देखा ? यदि कोई अन्दर होता तो वह आर्तस्वर करता हुआ उड़कर वृक्षों के कुञ्ज में छिप जाता । देखो, यह पल्लवों का बिस्तर बिछा हुआ है। वृक्ष की शाखा पर हार, नुपूर, मेखला, अन्यत्र अरुण वर्ण का क्षौमवस्त्र और कहीं उसका चर्मरत्न दिखाई दे रहा है । ये सब चीजें उन लोगों ने उठा ली जिससे कि विद्याधर के मिलने पर उसे दी जा सकें। गोमुख अवश्य ही किसी शत्रु ने उसको कान्ता का अपहरण कर लिया है। परवशता के कारण उन दोनों को अपने आभूषण आदि छोड़कर जाना पड़ा। वह विद्याधर दीर्घायु है क्योंकि उसके केश स्निग्ध हैं और वृक्ष की शाखा पर लटके रहने पर भी उनमें सुगन्ध आ रही है । तत्पश्चात् कुछ दूर चलने पर किसी कदंब वृक्ष के स्कंध में लोहे के पांच कीलों से बिंधे हुए विद्याधर को उन्होंने देखा । उसके चर्मरत्न में पांच औषधियां दिखाई दीं-विशल्यकरणी, मांसविवर्धनी, व्रणरोहणी, वर्णप्रसादनी और मृतसंजीवनी । इतने में गोमुख ने आकर सूचना दी कि आर्यपुत्र (नरवाहनदत्त) के प्रसाद से विद्याधर जी उठा है। औषधियों के प्रभाव से स्वस्थ होकर विद्याधर बोला-बंधन में बंधे हुए मुझको किसने जिलाया है ? गोमुख ने उत्तर दिया-हमारे आर्यपुत्र ने । विद्याधर ने मुक्तकण्ठ से कृतज्ञता का भाव प्रदर्शित किया । तत्पश्चात् उसने अपनी रामकहानी सुनाई - मैं कौशिक मुनि का पुत्र अमितगति नाम का विद्याधर हूँ। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४३ हिमालय पर्वत के शिखर पर कौशिक नाम का मुनि रहता था । नन्दन वन का त्याग करने वाली बिन्दुमती ने बहुत काल तक उसकी आराधना की । कौशिक मुनि ने प्रसन्न होकर उसे वरदान दिया । उसके दो संतानें हुई- एक मैं और दूसरी मेरी बहन मत्सनामिका । ___ अंगारक और व्यालक नामक अपने मित्रों के साथ मैं समय व्यतीत करने लगा। काश्यपस्थलक नामक नगर में मैंने कुसुमालिका कन्या को देखा । सुन्दर होने के कारण वह मेरे मन में बस गयी। अपने मित्रों के साथ कुसुमालिका को लेकर नदी किनारे पर्वत के वृक्षकुंज में रति के लिए गया । मैंने देखा कि अंगारक टेढ़ी गर्दन करके ताक रहा था । अंगारक ताड़ गया और वह चुपके से भाग खड़ा हुआ। __ मेरी समझ में नहीं आया कि अपनी कान्ता को लेकर मैं कहाँ जाऊँ । वहां से मैं पर्वत से बहनेवाली इस नदी के पुलिन पर आया । वहाँ से सुरत के योग्य लतागृह में प्रवेश किया । उसके आगे का वृत्तान्त आप लोगों को ज्ञात आप लोग मुझे संकट के समय स्मरण करें यह कहकर प्रणामपूर्वक वह विद्याधर अंगारक का पीछा करने के लिए आकाश में उड़ गया।' ५ गंधर्वदत्ता का विवाह (अ) वसुदेवहिंडी : वसुदेव और चारुदत्त की कन्या गंधर्वदत्ता का विवाह : वसुदेव ने कहा—मैं मगध का निवासी गौतम गोत्रीय स्कंदिल नाम का ब्राह्मण हूँ। यक्षिणियों से मेरा प्रेम है। एक यक्षिणी मुझे अपने इष्ट प्रदेश में ले गयी । इतने में दूसरी ने ईर्ष्यावश उसे पकड़ लिया। दोनों में कलह होने लगी, मैं गिर पड़ा। इसलिए मैं नहीं जानता कि यह प्रदेश कौनसा है। अधेड़ उम्र के मनुष्य ने उत्तर दिया-इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं कि यक्षिणियाँ तुमसे प्रेम करती हैं। पता चला कि नगरी का नाम चम्पा है। वहाँ एक मन्दिर था । पादपीठ पर नामांकित वासुपूज्य भगवान् की मूर्ति प्रतिष्ठित थी। आगे चलने पर उसे हाथ में वीणा लिये हुए सपरिवार एक पुरुष दिखाई दिया । वीणाओं को बेचने के लिए लोग वीणाओं को गाड़ी में भरकर लिये जा १. ९. १-१०८ (पुलिन दर्शन सर्ग), पृ० ९९-१०९ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहे थे। स्कंदिल ने किसी आदमी से पूछा-क्या यह इस देश का रिवाज है कि सभी लोग वीणा का व्यापार करते हैं। . ____ उसने उत्तर दिया-चारुदत्त श्रेष्ठी की परम रूपवती कन्या गंधर्वदत्ता गंधर्ववेद में पारंगत है। गंधर्वविद्या में अनुरक्त ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य उसे प्राप्त करने के लिए जी-जान से प्रयत्नशील हैं। इस विद्या में जो विजयी होगा, वह उसे पायेगा । प्रत्येक महीने विद्वत्सभा में प्रतियोगिता आयोजित की जाती है । कल प्रतियोगिता का दिन था, अब फिर से एक महीने बाद होगी। पता लगा कि सुग्रीव और जयग्रीव नामक गंधर्वविद्या के महान् पंडित वहाँ रहते हैं। सुग्रीव के घर पहुँच, स्कंदिल मूर्ख की भाँति विलाप करने लगा। उसने अपना परिचय देते हुए निवेदन किया कि वह गंधर्वविद्या सीखने के लिए आया है। उपाध्याय ने उसे मूर्ख कहकर उसकी अवज्ञा की। स्कंदिल ने ब्राह्मणी को प्रसन्न करने के लिए उसे रत्नों के कड़े भेट किये। ब्राह्मणी ने आश्वासन दिया कि उसे भोजन, वस्त्र और रहने-सोने की चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं। स्कंदिल ने गंधर्वविद्या सीखने की बात दोहरायी। __ब्राह्मणी ने अपने पति से उसे विद्या सिखाने की सिफारिश की । उपाध्याय ने कहा—वह वज्रमूर्ख है, विद्या क्या सीखेगा ? ब्राह्मणी ने उत्तर दिया-हमें मेधावियों से क्या लेना-देना । यह देखों, यह कडा ! __तुम्बुरन और नारद की पूजा की गयी और विद्यार्थी को एक वीणा दे दी गयी। उसे बजाने को कहा गया । किन्तु उसके करस्पर्श से आहात होकर वह टूट गयी। उपाध्याय ब्राह्मणी से कहने लगा--देख ली अपने पुत्र की कला ! ब्राह्मणी ने कहा-इसकी तंत्रियां पुरानी और कमजोर थीं, दूसरी स्थूल तंत्रियों वाली वीणी मंगाकर दो। धीरे-धीरे सब सीख जायेगा । शिष्यों ने वीणा में स्थूल तंत्रियां लगाई । उपाध्याय ने धीरे-धीरे बजाने को कहा । उसे एक गीत बजाने को दिया। शिष्यों से स्कंदिल ने पूछा --- क्या वह इभ्यकन्या इस गीत को जानती है ? उत्तर मिला ---नहीं । वसुदेव ने कहा -- तो इस गीत से मैं उसे जीत लूंगा । शिष्य हँसने लगे। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्सव का समय आ पहुँचा। उपाध्याय अपने शिष्यों को लेकर चले । स्कंदिल से फिर कभी जाने को कहा। स्कंदिल ने निवेदन किया-गुरुजी ! यदि इस प्रतियोगिता में कन्या को अन्य किसी ने जीत लिया तो फिर मेरा विद्या सीखना ही व्यर्थं जायेगा । मैं भी जाना जाहता हूँ। लेकिन गुरुजी ने जाने नहीं दिया । शिक्षार्थी ने दूसरा कडा ब्राह्मणी को भेंट किया । ब्राह्मणी ने कहा-चिंता मत कर; तू उत्सव में सम्मिलित हो और विजयी बनकर लौट । वस्त्राभूषणों से अलंकृत हो स्कंदिल चारुदत्त की सभा में पहुँचा । सभा में विद्वान् आसनों पर विराजमान थे और शेष जन भूमि पर बैठे हुए थे । शिष्यों समेत बैठे हुए उपाध्याय ने शंकित मन से उसपर दृष्टिपात किया । स्कंदिल ने सभा में प्रवेश किया । सभागार देखकर उसने कहा-विद्याधर लोक में ही ऐसा सभागार हो सकता है, इस लोक में तो संभव नहीं ! यह सुनकर उसे भी बैठने के लिए आसन दिया गया । लोग आश्चर्यचकित नयनों से उसे देखने लगे। भित्ति पर चित्रित हस्तियुगल देखकर उसने चारुदत्त श्रेष्ठी से कहा-श्रेष्ठी ! चित्रकारों ने इसे अल्पायु क्यों चित्रित किया ? श्रेष्ठी-क्या तुम चित्र देखकर चित्र की आयु की भी परीक्षा कर सकते हो ? उसने परीक्षा करके अपनी बात प्रमाणित की। सभा के लोग आश्चर्यचकित रह गये। उपाध्याय भी विस्मित हुए बिना न रहा। गंधर्वदत्ता यवनिका के पीछे बैठी। वीणा बजाने के लिए कोई आगे नहीं आ रहा था। चारुदत्त ने घोषणा की यदि कोई गायन के लिए तैयार नहीं तो गंधर्वदत्ता वापिस जा रही है। कुछ देर प्रतीक्षा करने के बाद विद्वानों ने कहा-ठीक, जा सकती है। इस समय शिक्षार्थी ने उठकर कहा- नहीं, उसे जाने की आवश्यकता नहीं। उसकी कला की परीक्षा की जाये। दर्शकों ने उसपर दृष्टिपात किया। वे कहने लगे - यह कोई भूमिगोचर नहीं, कोई देव अथवा अति प्रगल्भ तेजस्वी रूपवान विद्याधर प्रतीत होता है। श्रेष्ठी के आदेश से वीणा मंगवाई गई। उसे स्कंदिल के हाथ में दी। स्कंदिल ने कहा-इसके गर्भ में कुछ है, बजाने के योग्य यह नहीं है। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसने वीणा पानी में भिगोई और उसमें से बाल निकालकर दिखा दिया । दूसरी मंगवाई गई। उसने कहा-जंगल की अग्नि से जले हुए काष्ठ से यह तैयार की हुई है, अतः इसे बजाने से इसमें से कर्कश आवाज निकलेगी। तीसरी लाई गई । वह जल में डूबे हुए काष्ठ से तैयार की गयी थी, अतः वीणावादक ने कहा कि उसमें से गंभीर आवाज निकलेगी। उसे भी अस्वीकार कर दिया गया। परिषद् आश्चर्यचकित रह गयी। ___ तत्पश्चात् चंदन से चर्चित सुगंधित पुष्पों की माला से अलंकृत सप्त स्वर वाली तंत्री मंगवाई गई । वीणावादक ने उसकी प्रशंसा की । उसने कहा कि यह आसन मेरे योग्य नहीं।। __ बहुमूल्य आसन बिछाया गया। श्रेष्ठी ने विष्णुगीतिका बजाने का अनुरोध किया। उसने साधुओं के गुणकीर्तन में गायाजाने वाला विष्णुमाहात्म्य गीत सुनाना आरंभ किया। विष्णुगीतिका की उत्पत्ति-हस्तिनापुर में राजा पद्मरथ और रानी लक्ष्मीमती के विष्णु और महापद्म नामक दो कुमार । विष्णुकुमार की प्रव्रज्या । महापद्म राजा का पुरोहित नमुचि । वह जैन साधुओं द्वारा वाद में पराजित । मन-ही-मन साधुओं से प्रद्वेष । राजा को प्रसन्न कर राजपद की प्राप्ति । हस्तिनापुर में साधुओं का चातुर्मास । नमुचि द्वारा उन्हें राज्य से बाहर चले जाने का आदेश । विष्णुकुमार को आकाशगामी विद्या की सिद्धि। संघ पर उपद्रव होने के कारण उन्हें आमंत्रित किया गया । विष्णुकुमार ने नमुचि पुरोहित को बहुत समझाया, लेकिन उसने एक न सुनी। __विष्णुकुमार ने नमुचि से एकांत स्थल में तीन विक्रम ( पैर ) भूमि माँगी । उन्होंने कहा कि साधु इस प्रदेश में रह कर प्राणत्याग कर देंगे, क्योंकि उनके लिए वर्षाकाल में गमन करना निषिद्ध है । इससे साधुओं के वध करने की नमुचि की प्रतिज्ञा भी पूरी हो जायेगी । नमुचि ने तीन पैर भूमि प्रदान करने की स्वीकृति दे दी। रोष से प्रज्वलित विष्णुकुमार मुनि का शरीर बढ़ने लगा । उन्होंने अपना एक चरण उठाया । नमुचि पैरों में गिर पड़ा । वह अपने अपराधों की क्षमायाचना करने लगा। विष्णुकुमार ने ध्रुपद पढ़ा और क्षण भर में दिव्य रूप धारण कर लिया । पृथ्वी कंपित हो उठी। विष्णु ने अपना दाहिना पग मंदर पर्वत पर स्थापित किया । इसे उठाते समय समुद्र का जल क्षुब्ध हो उठा । इन्द्र का Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसन चलायमान हो गया। देवों को सम्बोधित कर के इन्द्र ने कहा-सुनो, नमुचि पुरोहित के अनाचरण के कारण प्रकुपित विष्णु मुनि त्रैलोक्य को भी निगल जाने में समर्थ हैं, अतएव इन्हें अनुनय-विनयपूर्वक गीत और नृत्य के उपहार से शीघ्र ही शान्त करना चाहिए । तुंबरू और नारदजी ने विद्याधरों पर अनुग्रह करके उन्हें गंधर्वकला की ओर प्रेरित किया । विष्णु-गीतिका से उपनिबद्ध, सप्तस्वर तंत्री से निःसृत और मनुष्य लोक में दुर्लभ गांधार स्वरसमूह को उन्हें धारण कराया---- "हे साधुओं में श्रेष्ठ ! आप शान्ति धरें । जिनेन्द्र भगवान् ने क्रोध का निषेध किया है । जो क्रोधशील होते हैं, उन्हें बहुत समय तक संसार में परिभ्रमण करना होता है।" इस गीतिका को विद्याधरों ने ग्रहण किया । गंधर्वदत्ता और वीणावादक ने वीणा बजाकर गांधार ग्राम की मूर्छना से, एकचित्त होकर, तीन स्थान और क्रिया से शुद्ध, ताल, लय और ग्रह की समतापूर्वक विष्णुगीतिका का गान किया । नागरकों ने भूरि-भूरि प्रशंसा की । श्रेष्ठी ने प्रसन्न मन से इस कार्य के लिए नियुक्त आचार्यों से निर्णय सुनाने का अनुरोध किया । उन्होंने कहा--जो इस बिटिया ने गाया है, वही इस ब्राह्मण ने बजाया है, और जो इस ब्राह्मण ने गाया है वही बिटिया ने बजाया है । यवनिका हटा दी गयी ।' नागरकों ने उत्सव समाप्त होने की घोषणा की । प्रतियोगिता समाप्त हो गयी। गंधर्वदत्ता को पति की प्राप्ति हुई । श्रेष्ठी ने नागरकों का सम्मान कर उन्हें विसर्जित किया । चारुदत्त श्रेष्ठी ने स्कंदिल से प्रार्थना की-आपने अपने दिव्य पुरुषार्थ के बल से गंधर्वदत्ता को प्राप्त किया है, अब इसका पाणिग्रहण कर अनुगृहीत करें । लोकश्रुति है - ब्राह्मण की चार भार्याएँ हो सकती हैं-ब्राह्मणी, क्षत्रियाणी, वैश्या और शूद्री । यह आपके अनुरूप है और कुछ बातों में विशिष्ट भी हो सकती है । १. उवसम साहुवरिया ! न हु कोवो वण्णिओ जिणिदेहिं । हुति हु कोवणसीलया, पावंति बहूणि जाइयव्वाई ।। चित-संभूत नामक मातंग मुनियों की कथा में उच्चवर्गीय लोगों से अपमानित हुए संभूत की क्रोधाग्नि को शांत करने के लिए चित्त उसके पास पहुँचता है। उत्तराध्ययन टीका, १३, पृ० १८६ अ । २. तुलनीय, उदयन और वासवदत्ता के आख्यान से । ३. बृहत्कथाश्लोकसंग्रह में यहाँ मनुस्मृति का प्रमाण उद्धृत है । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्कंदिल का खूब आदर-सत्कार किया गया। राजा के अनुरूप बहुमूल्य वस्त्राभूषणों से उसे अलंकृत किया गया। गंधर्वदत्ता शृङ्गार-प्रसाधन से सज्जित हुई । जैसे लक्ष्मी को कुबेर के समीप बैठाया जाता है, वैसे ही कुल वृद्धाओं ने गंधर्वदत्ता को उसके समीप लाकर बैठाया । श्रेष्ठी ने निवेदन किया-स्वामी ! कुल-गोत्र जान कर आप क्या करेंगे ? या तो आप अग्नि में हवन करें या मेरी पुत्री को करने दें। पाणिग्रहण की क्रिया संपन्न हुई। दोनोंने गर्भगृह में प्रवेश कर रात्रि व्यतीत की।' ( आ ) बृहत्कथाश्लोक संग्रह : नरवाहनदत्त और सानुदास की कन्या गंधर्वदत्ता का विवाह : नरवाहनदत्त किसी अज्ञात देश में आया, जहाँ उसने घंटियों की आवाज करते हुए गोमंडल को देखा । पूर्व दिशा में सूर्य का उदय हो रहा था और भ्रमरों का गुंजारव सुनाई पड़ रहा था । वह एक उद्यान में आया । उद्यान में उच्च शिखरवाला एक मंदिर था । द्वारपाल ने अन्दर जाने से उसे रोका । वीणा बजाते हुए उसने मंदिर में प्रवेश किया। वहाँ बैठा हुआ नागरकों का अधिपति, अमितगति के वीणावादन के श्रवण में अनुरक्त था। उसने उठकर अमितगति को अपने शिलासन पर बैठाया । उसके पैरों का संवाहन किया और पाद प्रक्षालन पूर्वक अर्घ्य प्रदान किया । नरवाहनदत्त ने अपना परिचय देते हुए कहा-वह वत्सदेश निवासी ब्राह्मण है। मंत्रवादियों के मुख से सुन कर उसने किसी यक्षी की साधना की । यक्षी के साथ वह पर्वत और वनों में भ्रमण कर रमण करने लगा । एक बार उसके मन में विचार आया कि पातालमंत्र की आराधना कर असुरी के साथ रमण करना चाहिए। यक्षी को इस बात का पता लगा तो ईर्ष्यावश उसने उसे भूमि पर ला पटका । नागरकेश्वर ने कहा-यह प्रदेश अंग जन-पद की राजधानी चंपा है। मेरा नाम दत्तक है और वीणा प्रिय होने से मैं वीणादत्तक नाम से प्रख्यात हूँ। वत्सदेशवासी ब्राह्मण ने वीणादत्तक के साथ प्रवहण में सवार हो चंपा के लिए प्रस्थान किया । मार्ग में वीणावादन में अनुरक्त हलवाहों को देखा। वटवृक्ष के नीचे बैठे हुए ग्वाले बेसुरी वीणा बजा रहे थे । दोनों वणिक्पथ पर पहुँचे । नगरद्वार के पास वीणा के विभिन्न अवयवों से भरी हुई गाड़ियों को देखा। ये गाड़ियाँ वीणा३. पृ० १२६-३३ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४९ अवयवों की बिक्री के लिए लायी गयी थीं। बढ़ई, लुहार, कुम्हार और वरुड वीणावादन में व्यस्त थे। यान से उतरकर ब्राह्मण ने वीणादत्तक के गृह में प्रवेश किया । वहाँ मर्दनशास्त्र के विशेषज्ञों और सूदशास्त्र में निष्णात रसोइयों ने उसकी सेवा-सुश्रूषा की। दत्तक के परिवार के साथ आनन्दपूर्वक उसने भोजन किया । ताम्बूल आदि से मुखशुद्धि की गयी। _ब्राह्मण ने दत्तक से पूछा-इस नगरी में वीणा के इतने अधिक रसिक लोग क्यों दिखाई देते हैं ? वीणादत्तक-यहाँ समस्त गुणों की खान त्रैलोक्यसुंदरी गंधर्वदत्ता रहती है। उसका पिता सानुदास वणिक्पति उसे किसी को नहीं देना चाहता । उसने घोषणा की है कि जो कोई उसे वीणावादन में पराजित करेगा, वही उसके पाणिग्रहण का अधिकारी हो सकता है। चंपा में कोई भी ऐसा नगरवासी न मिलेगा जो उसका पाणिग्रहण न करना चाहता हो । ६४ विद्वानों के समक्ष छह छह महीने बाद, नागरिकों की गायन प्रतियोगिता होती है। बहुत समय व्यतीत हो जाने पर भी अभी तक कोई उसे वीणावादन में पराजित नहीं कर सका। ये बातें हो ही रही थीं कि वेत्रधारी दो वृद्ध पुरुषों ने आकर निवेदन किया कि श्रेष्ठी ने कहलवाया है कि यदि मित्रों की गोष्ठी तैयार हो तो उत्सव का आयोजन किया जाये। उत्सव की तैयारी शुरू हो गयी।' वत्सदेशवासी ब्राह्मण ने जानना चाहा कि क्या वह गंधर्वदत्ता के दर्शन कर सकता है ? उत्तर में कहा गया है कि कोई अगान्धर्व उसे नहीं देख सकता और यदि देखना ही हो तो गांधर्व विद्या की शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए। कठोर स्वरवाले श्रुतिस्वरज्ञान से हीन भूतिक नामक दुर्भग वीणाचार्य को बुलाया गया, लेकिन इस विकृत नर-वानर के दर्शन कर ब्राह्मण को लगा कि न उसे गंधर्वविद्या की शिक्षा प्राप्त करना है और न गन्धर्वदत्ता ही लेना है । इतना ही नहीं, इस प्रकार का शिष्यत्व प्राप्त कर सारे राज्य का लाभ भी निंद्य है । रैखर, वीणादत्तक ने वीणाचार्य को आसन पर बैठाकर निवेदन किया-महाराज ! इस यक्षीपति ब्राह्मण को नारदीय (गांधर्व) विद्या सिखाने का अनुग्रह करें । वीणाचार्य ने उत्तर दिया --- यह अभिमानी है, मेरी अवज्ञा करता है और फिर दरिद्र होने के १. १६. १-९३, पृ० १९१-९९ ( गन्धर्वदत्तालामे चम्पाप्रवेश नामक सर्ग) । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० कारण एक कौड़ी तक देने को इसके पास नहीं है । विद्या या तो गुरु की सुश्रूषा से सीखी जाती है या फिर धन खर्च करने से । इन दोनों में से इसके पास एक भी नहीं । दत्तवाहक ने आचार्य से निवेदन किया कि यक्षीकामुक को कोई दरिद्र नहीं कह सकता । वह स्वयं यक्षीकामुक का दास है, और चाहिए तो सुवर्णशत दिए जा सकते हैं। तत्पश्चात् सरस्वती की अर्चना कर दुर्व्यवस्थित तंत्रीयुक्तवीणा उसे दी गयी। उसने उसे उलटी तरफ से गोद में रक्खी । यह देखकर आचार्य ने दत्तक की ओर देखकर कहा कि यह आदमी यह भी नहीं जानता कि वीणा कैसी पकड़नी चाहिए, फिर इस मंदबुद्धि को कैसे शिक्षा दी जा सकती है। दूसरा वाद्य उसे दिया गया बजाते हुए उसकी चार-पाँच तंत्रियाँ टूट गई । आचार्य ने दत्तक से कहा कि वीणा सीखकर यह क्या करेगा। लेकिन तंत्री के छिन्न हो जाने पर भी यक्षीकामुक कोमल स्वर से वीणा बजाने लगा। दत्तक आदि को आश्चर्य हुआ । आचार्य भय, क्रोध, लज्जा और विस्मय के कारण निष्प्रभ होकर देखते रह गये । आचार्य दक्षिणा लेकर वहाँ से चले गये। एक दिन रात्रि के समय सोते हुए यक्षीकामुक की नजर वीणादत्तक की खूटी पर लटकी हुई वीणा पर गई । यक्षीकामुक उसे बजाने लगा । उसका मधुर स्वर सुनकर लोग आश्चर्यचकित हो गये और कहने लगे कि जान पड़ता है कि वीणादत्तक के घर में स्वयं सरस्वती वीणा बजाने के लिए अवतरित हुई है। - प्रातःकाल नमस्कार कर दत्तक ने यक्षीकामुक को सूचना दी कि नागरक अपनेअपने यानों पर उपस्थित हैं, उनके साथ उसे भी उत्सव में चलना चाहिए । यक्षीकामुक आगे-आगे तथा उसके पीछे दत्तक और नागरकों ने पैदल ही प्रस्थान किया। उन्होंने गृहपति सानुदास के गृह में प्रवेश किया। पहले कक्ष में महापटोर्ण से वेष्टित दत्तक आदि ६४ नागरकों के लिए ६४ आसन बिछे हुए थे। यक्षीकामुक के लिए आसन नहीं था । दत्तक ने अपना आसन उसे दे दिया । दत्तक को अन्य आसन दिया गया । गणिकाओं का आगमन हुआ। स्त्रियाँ परस्पर वार्तालाप कर रही थीं कि सानुदास ने अपनी कन्या के लिए वीणावादन में विजयी होने की शर्त रखकर बड़ा अनर्थ कर दिया है, क्योंकि यदि रूप की होड़ लगती तो निश्चय ही यक्षीकामुक उसे प्राप्त कर लेता । सबने सभा में प्रवेश किया । श्रेष्ठी द्वारा नागरकों का स्वागत किया गया । कंचुकी ने नागरकों को गंधर्वदत्ता Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५१ को निर्देश देने का अनुरोध किया। किसी से कोई उत्तर न पाकर जब वह वापिस जाने लगा तो यक्षीकामुक ने उसे बुलाकर कहा कि श्रेष्ठीकन्या सभा में उपस्थित हो । दत्तक का म्लान मुख खिल उठा । यक्षीकामुक की ओर देखकर उसने प्रसन्नता व्यक्त की। यवनिका को हटाकर, कंचुकियों से आवृत्त गंधर्वदत्ता (वर्णन ) ने सभागृह में प्रवेश किया । कंचुकी ने दक्षिण हाथ उठाकर श्रेष्ठीवचन की घोषणा की कि जो कोई वीणा बजा सकता हो, वह आगे आये । वीणादत्तक से अनुरोध किया गया लेकिन उसने सिर हिलाकर अनिच्छा प्रकट की। किसी अन्य नागरक ने वीणावादन किया जिसे सुनकर 'साधु-साधु' की आवाज सुनाई दी । लेकिन जब गंधर्वदत्ता ने सभाजनों के समक्ष सुमधुर गान किया तो सब रंग फीका पड़ गया । विष्णुगीतिका पूर्वकाल में वामन रूप धारण कर बलि को छलते समय विष्णु भगवान् ने इस लोक को तीन पदों से आक्रान्त कर लिया था । गंधर्व जनों से सेवित विश्वावसु नामक गंधर्व ने आकाश में विहार करते समय उसकी प्रदक्षिणा की । उसने स्वयं गरुड़ध्वज विष्णु की स्तुति करते हुए नारायणस्तुति नामक अद्भुत गीत गाया। इस गंधर्व से नारद ने, नारद से, वृत्रासुर इन्द्र ने, इन्द्र से अर्जुन ने, अर्जुन से विराहसुता उत्तरा ने, उत्तरा से परीक्षित ने, और परीक्षित से जनमेजय ने इसे सीखा । जनमेजय से यक्षीकामुक के पिता ने और अपने पिता से यक्षीकामुक ने इस गांधारग्राम की शिक्षा प्राप्त की। यक्षीकामुक ने गोष्ठी में प्रवेश किया । गन्धर्व दत्ता का आगमन । कंचुकी द्वारा लायी हुई वीणा को देखकर यक्षीकामुक ने कहा—इसके उदरभाग में लूतातन्तु मौजूद है इससे यह जड़ हो गयी है । दूसरी वीणा लायी गयी, लेकिन वह केशदूषित तंत्री से युक्त थी। तत्पश्चात् सुगन्धित कुसुमों से अर्चित कच्छपाकार फलक वाली वीणा लेकर सानुदास स्वयं उपस्थित हुआ। यक्षीकामुक की प्रदक्षिणा कर उसे वीणा दी गयी । एक अन्य वीणा गंधर्वदत्ता को दी। दोनों ने वीणावादन किया । यक्षीकामुक ने मन्द-मन्द एक दिव्य गीत बजाया । गन्धर्वदत्ता के कोमल गीत को श्रवण कर सभाजन मानों मूर्छित हो गये । चेतना प्राप्त करने के पश्चात् कंचुकी ने उनसे प्रश्न किया-आप लोग निष्पक्ष होकर निर्णय सुनायें कि जो गन्धर्वदत्ता ने गाया है, वही यक्षीकामुक ने बजाया है या नहीं ? इसपर ऊपर हाथ उठाकर, उच्च स्वर से सभासदों ने घोषणा की कि वीणावादक कन्या को प्राप्त करने का अधिकारी है । Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ सभाविसर्जित हो गयी । सानुदास वीणादत्तक के साथ यक्षीकामुक को घर के भीतर लिवा ले गया । यक्षीकामुक को संबोधन करके उसने कहा-हे यक्षीकामुक ! हम सब आपके दास हैं । आपने कठिन विपत्ति से हमारा उद्धार किया है । फिर वह कहने लगा-आज का दिन शुभ दिन है, गन्धर्वदत्ता का पाणिग्रहण करने का अनुग्रह करें । यक्षीकामुक ने उत्तर दिया-मैं पवित्र ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुआ हूँ, असवर्ण कन्या से कैसे विवाह कर सकता हूँ ? । सानुदास-यह कन्या सवर्णा है, सवर्णा ही नहीं, उत्कृष्ट भी हो सकती है। आप विश्वस्त होकर पाणिग्रहण करें। मनु महाराजने कहा है-अपने से निम्न वर्ण की भार्या को स्वीकार करता हुआ ब्राह्मण दोष का भागी नहीं होता। पाणिग्रहण संस्कार सम्पन्न हुआ ।' ६ पुष्करमधु का पान (अ) वसुदेवहिंडीः चारुदत्त की माँ के भाई सर्वार्थ की कन्या मित्रवती का चारुदत्त के साथ पाणिग्रहण ।' चारुदत्त का अपने मित्रों के साथ उद्यान-गमन । प्यास लगने के कारण एक वृक्ष के नीचे विश्राम । चारुदत्त का मित्र हरिशिख पास के पोखर में उतरा। कोई आश्चर्यकारी वस्तु देखने के लिए उसने चारुदत्त को बुलाया । उसने पोखर में लगे हुए सुंदर कमलों के अपूर्व रस की ओर चारुदत्त का ध्यान आकर्षित किया । गोमुख ने बताया कि देवों द्वारा उपभोग्य वह पुष्करमधु है । उसे कमलिनी के पत्तों में ग्रहण कर लिया गया। प्रश्न हुआ कि मनुष्यलोक में दुर्लभ वह पुष्करमधु किसे दिया जाये ? क्या राजा को दिया जाये ? राजा प्रसन्न होकर शायद आजीविका का प्रबंध कर सके । लेकिन राजा के दर्शन दुर्लभ होते हैं और वह जल्दी प्रसन्न नहीं होता । तत्पश्चात् अमात्य और नगररक्षक का नाम सुझाया गया । अंत में समस्त कार्यों के साधक चारुदत्त को प्रदान करने का निश्चय किया गया । चारुदत्त ने कहा कि क्या वे नहीं जानते कि वह मधु, मांस और मद्य का सेवन न करने वाले कुल में उत्पन्न हुआ है ? गोमुख ने उत्तर दिया-मित्र ! हम जानते हैं, लेकिन यह मद्य नहीं, देवों के योग्य अमृत है । पुष्करमधु का पान करने से चारुस्वामी की तृप्ति १. वही, गन्धर्वदत्ताविवाह, १७ वां सर्ग, पृ० २००-२.१७ २. वसुदेवहिंडी पृ० १४० Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५३ हुई । मित्रों ने चारुदत्त को विश्राम करने के लिए कहा और वे पुष्पों का चयन करने चल दिये। चारुदत्त को मधुरस का नशा चढ़ने लगा । अशोक वृक्ष के नीचे उसे एक सुन्दर युवती दिखायी दी । वह कोई अप्सरा थी और देवाधिपति इन्द्र ने चारुदत्त की सेवा में उपस्थित रहने के लिए उसे भेजा था । अप्सरा ने बताया कि देवता लोग सबको दर्शन नहीं देते, लेकिन वे सबको देख सकते हैं । अतः चारुदत्त के मित्र अप्सरा को नहीं देख सकते और अप्सरा के प्रभाव से चारुदत्त को भी देखने में असमर्थ हैं। मद के कारण चारुदत्त के पैर लड़खड़ाने लगे । अप्सरा ने अपने दाहिने हाथ से चारुदत्त की भुजाएँ और उसका सिर थाम लिया। चारुदत्त लड़खड़ाता हुआ उसके कण्ठ का अवलंबन लेकर चला । देव-अप्सरा के स्पर्श से उसका शरीर रोमांचित हो उठा । अप्सरा अपने विमान में बैठाकर उसे अपने भवन में ले गयी । अपनी उम्र वाली तरुणियों से वह परिवेष्टित थी। विषयसुख भोगने के लिए उसने चारुदत्त को आमंत्रित किया । रतिपरायण चारुदत्त निद्रादेवी की गोद में सो गया। नशा उतरने पर आँख खुली तो उसे वसंततिलका का भवन दिखायी दिया । वसंततिलका ने कहा-मैं गणिका पुत्री वसंततिलका हूँ, कलाओं की शिक्षा मैंने प्राप्त की है। धन का मुझे लोभ नहीं, गुण मुझे प्रिय हैं । मैंने हृदय से तुम्हें वरण किया है । तुम्हारी माता की अनुमति से गोमुख आदि तुम्हारे मित्रों ने उद्यान में पहुँच, किसी युक्ति से तुम्हें मुझे सौंप दिया था। उसके बाद वह वस्त्र बदलकर आई और हाथों की अंजलि-पूर्वक चारुदत्त से विनयपूर्वक कहने लगी"मैं तुम्हारी सेविका हूँ, मुझे भार्या रूप में स्वीकार करो । ये देखिए, ये मेर क्षौमवस्त्र जो मेरे कन्यापन को सूचित करते हैं। मैं तुम्हारी जीवनपर्यंत उपकारिणी बनकर रहूँगी।" चारुदत्त ने वसंततिलका को भार्या रूप में स्वीकार किया। उसके साथ रहकर वह स्वच्छन्द विहार करने लगा । उसकी माँ कुछ-न-कुछ उपहार आदि उनके लिए हमेशा भेजती रहती । इस प्रकार विषयसुख का उपभोग करते हुए १२ वर्ष व्यतीत हो गये ।' १. वही. पृ. १४२-४३ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (आ) बृहत्कथाश्लोकसंग्रहः एक उपवन में पहुँच ध्रुवक ने सानुदास के लिए माधवी और आम्र वृक्ष के पल्लवों से उच्च आसन तैयार किया । अपनी प्रियाओं के हाथों से मधुपान करते हुए मित्रगण उपस्थित थे । वसंतराग गाया जा रहा था, वेणुतंत्री का मधुर शब्द सुनाई दे रहा था, तथा भौरौं का गुंजार और कोकिल की मधुर ध्वनि सुनाई पड़ रही थी । कर्दम और शैवाल से लिपटा हुआ कोई पुरुष कमलपत्र में पुष्करमधु लिये हुए सरोवर से निकला । एक मित्र ने कहा---अरे मूर्ख ! यह पुष्करमधु क्या, तू अनर्थ की जड़ ले आया है । यदि सब मित्र इसका पान करने लगे तो एक-एक बून्द भी उनके हिस्से में न आये । उन्होंने सोचा कि राजाओं के लिए दुर्लभ इस पुष्करमधु को राजा को क्यों न दे दिया जाय । लेकिन राजा से और कोई माँग लेगा, वे रत्न के लोभी जो होते हैं । पाप भावना से प्रोत्साहित हुआ राजा हमारा सर्वस्व हरण कर सकता है, अतः उसे देना ठीक नहीं ! इसमें अधिक रस वाला स्वाद है, मद्य यह नहीं है, इसलिए मानुदास ही क्यों न इसका पान करे ? तत्पश्चात् मित्रों के अनुरोध पर, सानुदास ने पुष्करमधु का पान कर लिया । यह मधु अत्यन्त स्वादिष्ट था, मानों कोई अपूर्व रस हो; अमृत भी उसके सामने फीका जान पड़ता था। रस की गंध से सानुदास को प्यास लगी। उसके पान करने से उसे चक्कर आने लगा। इतने में सानुदास को किसी प्रमदा के आक्रन्दन की ध्वनि सुनाई दी। आख्यायिका, कथा, काव्य और नाटकों में ऐसी प्रमदा का वर्णन सुनने में महीं आया था । सानुदास ने उससे दुख का कारण पूछा । प्रमदा ने बताया-आप ही मेरे दुख के कारण हैं । सानुदास ने उसे ढाढ़स बंधाया । प्रमदा ने कहा कि वह उसके शरीर की कामना करती है। उसका नाम गंगदत्ता था । वह उसे खींचकर अपने भवन में ले गयी । सानुदास को विश्राम करने के लिए कहा गया; उसके पीने के लिए पुष्करमधु मंगवाया । सानुदास ने सोचा कि अवश्य ही गंगदत्ता यक्षी होनी चाहिए, अन्यथा मनुष्यलोक में दुर्लभ पुष्करमधु उसके पास कहाँ से आया ? सानुदास ने पुष्करमधु की गंध से अधिवासित वासमंदिर में प्रवेश किया । एक दूसरे को शरीर का प्रदान । तत्पश्चात् दोनों सुहृद्गोष्ठी में सम्मिलित हुए । गंगदत्ता अपने हाथ का सहारा देकर सानुदास को ले गयी । जब अपने मित्रों को सानुदास दिखायी न दिया तो वे लोग आश्चर्य में पड़ गये । एक ने कहा कि उसे कोई यक्षकन्या सिद्ध हो गयी है, इसलिए वह अदृश्य हो गया है। किसी ने ताली बजाकर हँसते हुए अदृश्य यक्षीभर्ता को नमस्कार किया। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५५ उन्होंने सानुदास को निश्चित होकर गंगदत्ता के घर जाने को कहा, और वे स्वयं अपने स्थान को लौट गये । सानुदास अपने मित्रों द्वारा पुष्करमधु का पान कराकर ठगा गया था, लेकिन कान्ता और आसव के रसास्वाद के आनन्द के कारण वह उनपर नाराज नहीं हुआ। सूर्य के अस्ताचल की ओर गमन करने पर सानुदास ने गंगदत्ता के गृह में प्रवेश किया ।' __दोनों का आनन्दपूर्वक समय व्यतीत होने लगा । एक दिन दारिका सानुदास को उसके घर लेकर गयी। सानुदास ने अपनी माता से पिताजी के स्वर्गवास का समाचार सुना । गम्भीर शोक से पीडित जान राजा ने उसे बुलाया । आभूषण, वस्त्र, और चंदन आदि से उसका सत्कार कर परंपरागत श्रेष्ठीपद की रक्षा करने के लिए उससे अनुरोध किया .। कुछ समय बाद ध्रुवक ने उपस्थित होकर सानुदास से निवेदन किया कि वह शोक-पीड़ित गंगदत्ता को आश्वासन प्रदान करे । सानुदास ने उत्तर दिया-उसकी बाल्यावस्था गुजर चुकी है, इसलिए अपनी माता और मातामही के मार्ग का सेवन करना ही उसके लिए श्रेयस्कर है । तथा चिरकाल तक सतीधर्म का पालन करते हुए भी आखिर तो वह वेश्या ही है । कुटुम्बियों के लिए गणिकाओं में आसक्ति रखना और उनके शोक से संतप्त होने पर शिष्टाचार प्रदर्शित करना ठीक नहीं । लेकिन ध्रुवक के बहुत कहने-सुनने पर सानुदास उसे आश्वासन देने के लिए उसके घर पहुँचा । सानुदास के वियोग में गंगदत्ता अत्यन्त कृश हो गयी थी। सानुदास को देखकर वह क्रंदन करने लगी। सानुदास ने उसे ढाढ़स बंधाया । दोनों ने एक साथ स्नान किया, जल की अञ्जलि प्रदान की। मदिरा से पूर्ण चषक मंगाया गया । गङ्गदत्ता की माता ने दुखनाश करने के लिए तर्पण करने का अनुरोध किया । गणिका की माता के अनुरोध पर सानुदास ने त्रिफला का स्वादयुक्त मदिरा का पान किया । मदिरा के नशे के कारण पितृशोक विस्मृति के गर्भ में पहुंच गया । सानुदास के आदेश पर परिचारिकाओं द्वारा मदिरा उपस्थित की गयी । मदिरा और काम के वशीभूत हो समय व्यतीत होने लगा। ( मित्रों ने एक चाल चली । ) एक दिन गणिका की माता ने एक गणिका द्वारा सानुदास को कहलवाया--"तेरी सास कहती है कि तू रूक्ष है इसलिय तेरे १. सानुदासकथानामक १८ वें सर्ग का प्रथम भाग १-९२), पृ. २१९-२६ । Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ शरीर में अभ्यंग लगाने की आवश्यकता है। अभ्यंग के अभाव में गंगदत्ता भी परुष हो गयी है । अतः तुम्हें शरीर में तेल का मर्दन करना चाहिए।" सानुदास के वस्त्र उतारकर उसके शरीर पर कटु तेल का मर्दन किया गया फिर उसे कहा गया कि थोड़ी देर दारिका का अभ्यंग किया जायेगा, इसलिए वह नीचे चला जाये। छठी मंजिल पर उसे रत्न संस्कार करने वाले दिखाई दिये। उन्होंने हाथ जोड़कर कहा कि सर्वकलाओं में निष्णात होने के कारण उसके सामने उन्हें लज्जा आती है । उन्होंने उसे अलङ्कारकर्म के लिए पाँचवीं मंजिल पर जाने की प्रार्थना की। पाँचवीं मंजिल पर से चित्रकारों ने चौथी पर भेज दिया । तत्पश्चात् घटदासियों ने उसके ऊपर गोबर का पानी डाल उसे बाहर निकाल दिया । प्रासाद पर बंदिजनों की ब्वनि सुनाई पड़ी।' __ श्रेष्ठीपुत्र की देशविदेशयात्रा (अ) वसुदेवहिंडी : चारुदत्त की देशविदेशयात्रा : वसंततिलका गणिका के घर से चलकर देशविदेश की यात्रा के पश्चात् अपनी माता और पत्नी से पुनर्मिलन की कथा के लिए देखिए पोछे (पृ० ३१- ३७) । (आ) बृहत्कथाश्लोकसंग्रह : सानुदास की देशविदेश यात्रा : सानुदास ने अपने घर की ओर गमन किया । पुरवासी उसे धिक्कार रहे थे । जो भी कोई मित्र उसे सामने देखता, वही घृणा से मुँह मोड़ लेता । जिस घर के आँगन में वह जाता, वहीं लोग उसके ऊपर गोबर का पानी फेंकते । इस प्रकार लोगों से तिरस्कृत हो, वह अपने गृहद्वार पर पहुँचा । घर में प्रवेश करते हुए सानुदास को द्वारपाल ने रोक दिया । सानुदास ने प्रश्न किया कि क्या माता मित्रवती अब नहीं रही ? द्वारपाल ने उत्तर दिया-उसकी अनाथ माता घर बेचकर अपने पौत्र और वधू के साथ अन्यत्र चली गयी है । प्रथम कक्ष में जहाँ बढ़ई काम कर रहा है, वहाँ जाकर पूछो । ज्ञात हुआ कि दरिद्रता के कारण वह अपनी पुत्रवधू के साथ दरिद्रवाटक (दरिद्रों की बस्ती में जाकर रहने लगी है । वहाँ पहुँचकर सानुदास ने अनेक बालकों से घिरे हुए, नीम के नीचे बैठे अपने पुत्र दत्तक को देखा । वह उनका राजा बना हुआ था । सानुदास दत्तक के पीछे-पीछे चलकर जीर्णशीर्ण फटी-टूटी चटाइयों को जोड़कर बनाई हुई कुटिका के आँगन में पहुँचा । दासी १. वही, दूसरा भाग, ९३-१३२ पृ. २२७-३० । २. वसुदेवहिंडी में मित्रवती चारुदत्त की पत्नी का नाम है। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने उसे पहचानकर मित्रवती को खबर दी । माँ ने, जिस अवस्था में वह बैठी थी उसी अवस्था में बाहर निकलकर सानुदास का आलिंगन किया । ऐसा लगा कि वह गाढ़ निद्रा में सोयी हुई है । न वह कंपित हुई और न उसने श्वास ही लिया। उसके नेत्रों से अविरल जल की धारा बह रही थी। दरिद्रता की मूर्ति के समान वह जान पड़ी । सानुदास के स्नान के लिए पड़ौस से, लाख से बन्द किये हुए छेदवाला और ओठ-टूटा पानी का घड़ा लाया गया । लेकिन वह घड़ा फूट गया और सानुदास को पुष्करिणी में जाकर स्नान करना पड़ा । कांजी और कोदों को वह बडे मुश्किल से गले उतार सका । एक रात एक लाख वर्ष की भाँति बितायी। इस परिस्थिति में सानुदास को बहुत वैराग्य हुआ । प्रातःकाल होने पर उसने अपनी माँ के सामने प्रतिज्ञा की कि प्रक्षपित द्रव्य का चौगुना धन कमाकर ही वह घर में पाँव रक्खेगा । उसकी माता ने उसे परदेश जाने से रोकते हुए कहा कि वह किसी-न-किसी तरह उसकी और उसकी स्त्री की आजीविका चलायेगी। लेकिन सानुदास ने एक न सुनी । माता को प्रणाम करके नरक के समान उस दरिद्रवाटक से निकल कर वह चल दिया । माता कुछ दूर तक उसके साथ आई । उसने ताम्रलिप्ति में उसके मामा के घर जाने का अनुरोध किया। पितृबंधुओं की अपेक्षा मातृबंधुओं की ही उसने प्रशंसा की। सानुदास ने पूर्व दिशा की ओर प्रस्थान किया । मार्ग में फटी पुरानी छतरी और जूते लिये, कंधों पर पुराना चर्म और भोजन-पात्र ले जाते हुए यात्री दिखाई पड़े । सानुदास के परिचारक बन, उसे रम्य कथाएँ सुनाते हुए वे आगे बढ़े। सानुदास सिद्धकच्छप ग्राम में पहुँचा । वहाँ सानुदास अपने पिता मित्रवर्मा के भृत्य सिद्धार्थक नाम के वणिक् के घर में गया । उसने सानुदास को धन देना चाहा । सानुदास ने सार्थ के साथ ताम्रलिप्ति के लिए प्रस्थान किया । खण्डचर्म नामक पाशुपत का समागम । अटवी में प्रवेश । गंभीर गुफा वाली नदी । कालरात्रि के समान पुलिंदसेना का आक्रमण | संभ्रम के कारण दिग्भ्रांत होकर सानुदास का पलायन । सार्थ से भ्रष्ट होकर गहन वन में प्रवेश । ताम्रलिप्ति के लिए गमन । वहाँ पहुँचकर अपने मामा गंगदत्त के घर की तलाश । एक वणिक ने कहा कि गंगदत्त के घर को कौन नहीं जानता ? जो पूर्णमासी के चन्द्रमण्डल को नहीं जानता, वह गंगदत्त के घर को भी नहीं जानता । वह वणिक् स्वयं सानुदास को उसके घर ले गया । सानुदास का स्वागत । मामा ने भाणजे से कहा कि उसके अपने पास जो अतुल धन की राशि है, वह मित्रवर्मा की Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ धनराशि से ही अर्जित की गयी है, अतः जितना धन कमाकर लाने की उसने प्रतिज्ञा की है, उससे चौगुना धन लेकर वह अपनी माँ के पास लौटकर जा सकता है । सानुदास ने उत्तर में , कहा-मामाजी ! अर्थोपार्जन के लिए मैंने जो दृढ़ प्रतिज्ञा की है, उसमें आप विघ्न उपस्थित न करें । तत्पश्चात् समुद्र यात्रा के लिए गमन करने वाले किसी सांयात्रिक के साथ, प्रशस्त तिथि और नक्षत्र में, देव-द्विज और गुरु की पूजापूर्वक, उसने अपनी यात्रा प्रारंभ की ।' जहाज का टूटना । समुद्र तट पर पहुँच एक अंगना को देखा। जहाज फट जाने के कारण वह भी उस तट पर आ लगी थी। राजगृह के निवासी सागर सार्थवाह और यवन देशोत्पन्न यावनी नाम की उसकी भार्या की वह पुत्री थी । उसका नाम था सागरदिन्ना । चंपानिवासी मित्रवर्मा के सकल कलाविद् सानुदास नामक पुत्र के गुणों की प्रशंसा सुनकर उसके साथ अपनी पुत्री का विवाह करने का सागर ने संकल्प किया था। दोनों ने परस्पर अपना परिचय दिया । समुद्र अपनी गंभीर ध्वनि से सूर्य का वादन कर रहा था, शिलीमुख श्रुतिमधुर गान गा रहे थे, और उन्मत्त मयूर नृत्य कर रहे थे । ऐसे सुहावने समय में नायिका के स्वेदयुक्त आगे बढ़ते हुए दक्षिण कर को नायक ने थाम, उसे आलिंगनपाश में बांध लिया । दोनों प्रीतिपूर्वक रहने लगे । उन्होंने वृक्ष पर ध्वजा फहरा दी, रात्रि में अग्नि प्रज्वलित की, जिससे कोई नाविक उन दोनों को वहां से ले जाकर स्वदेश पहुँचा दे। यानपात्र में प्रस्थान । पूर्व की भाँति यानपात्र विपन्नावस्था को प्राप्त । समुद्रदिन्ना का जल के प्रवाह में बह जाना । सानुदास एक ग्राम में पहुँचा । जिस किसी से वह कुछ पूछता, उसे उत्तर मिलता-"तुम्हारी बात समझ में नहीं आती। किसी दुभाषिये की सहायता से वह अपने एक रिश्तेदार के घर गया । पता लगा कि वह पांड्यदेश में पहुँच गया है । प्रातःकाल किसी सत्रमंडप (धर्मशाला) में गया, जहाँ विदेशियों का क्षौरकर्म हो रहा था; कहीं मालिश की जा रही थी। पांड्यमथुराके जौहरी-बाजार में पहुँचा । किसी आभूषण का दाम कूतने के कारण उसे कुछ द्रव्य की प्राप्ति हुई । सानुदास की ख्याति सुनकर राजा ने उसे अपना रत्न-परीक्षक नियुक्त कर लिया । तत्पश्चात् थोड़ी पूंजी से अधिक धन कमाने के १. वही, भाग ३, १३३-२५२ पृ. २३४-४२ २. वही, भाग ४, २५३-३६, पृ० २४२-४७ । ३. मूल पाठ है 'घन्निनु चोल्लिति'-तमिल भाषा में । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिए उसने कपास का व्यपार किया। उसकी सात ढेरियाँ लगाई, किन्तु दुर्भाग्य से मूषक दीपक की जलती हुई बत्ती लेकर भागा और सारी कपास जलकर खाक हो गयी। पांड्यमथुरा से उत्तर दिशा की ओर चला । वटवृक्ष के नीचे विश्राम किया । गौड़भाषा में बातचीत करने वालों से मुलाकात हुई । सानुदास शिविका में सवार हो ताम्रलिप्ति पहुँच अपने मामा से मिला ।' घर लौट जाने के बाद मामा ने उपदेश दिया । आचेर नामक वणिक् की अनेक वणिकों के साथ सुवर्णभूमि जाने की तैयारी । सानुदास भी साथ चल दिया । सुवर्णभूमि पहुँच जहाज ने लंगर डाला । प्रातःकाल सार्थवाह का आदेश पा, कमर में भोजन का सामान बांध और गले में तेल के कुप्पे लटका कोमलस्थूल और शोष-दोष आदि से रहित वेत्रलताका सहारा लेकर यात्रियों ने पर्वत पर चढ़ना आरंभ किया । पर्वत की चोटी पर पहुँच कर रात्रि व्यतीत की। वहाँ एक नदी दिखायी दी जहाँ विविध आकार के पाषाण पड़े हुए थे । आचेर ने इन पाषाणों को स्पर्श करने की मनाही की । दूसरे तट पर बांसों का झुरमुट खड़ा था । उस पार हवा के चलने से बांस* इस पार झुक जाते थे। इनपर आरूढ़ होकर यात्री नदी के उस पार उतर गये । इस विभीषण पथ को वेणुपथ कहा गया है । यहाँ से दो योजन चलकर एक पतला रास्ता आया जिसके दोनों ओर अंधकार से पूर्ण एक भीम खड्ड दिखाई दिया । आचेर ने गीली और सूखी लकड़ियाँ, पत्ते और तृण आदि एकत्र कर धुआँ करने का आदेश दिया । धुएँ को देख जीन और चीतों के चमड़ों के बने बख्तर-लदे बकरों की बिक्री के लिए किरात वहाँ आये । इन बकरों को यात्रियों ने कुसुंभ, नीले और शाकलिका वस्त्र, खाण्ड, चावल, सिंदूर, नमक और तेल के बदले खरीद लिया। हाथ में लम्बे बांस ले, बकरों पर सवार होकर वे विकट मार्ग से आगे बढ़े। रास्ता इतना संकरा था कि यात्रियों का पीछे लौटना दुष्कर था, इसलिए सब लोग पंक्तिबद्ध होकर आगे ही चलते चले गये । इस पथ का नाम अजपथ है जो बहुत भयंकर है । यात्री आगे बढ़ ही रहे थे कि इतने में बड़े-बड़े धनुष लिए म्लेच्छों की सेना दिखायी दी। क्रय-विक्रय करके वे लोग वापिस लौट गये । बकरों की पंक्ति आगे बढ़ी। पंक्ति में आचेर का छठा और सानुदास का सातवां स्थान था । १. बही, भाग ५, ३०७-४२२, पृ० २४७-५८ २. यहाँ बांस के लिए मस्कर शब्द' का प्रयोग है । Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० इस समय आचेर ने व्यापारियों को अपने-अपने बकरे मार डालने का आदेश दिया । सानुदास ने कहा कि ऐसे सुवर्ण को धिक्कार है जो प्राणिवध से प्राप्त किया जाये (इस चर्चा के लिए देखिए, पीछे, पृ० ३५-३६)। सानुदास ने अपने बकरे का वध न कर, दूसरे के बकरे को ताड़ित किया । दुर्गम मार्ग पर चलने के कारण कुछ ही साथी शेष रह गये थे । व्यापारियों का दल विष्णुपदी गंगा पर पहुँचा । सबको भूख लग आई थी । नायक ने आदेश दिया कि बकरों को मारकर उनका मांस भक्षण किया जाय और फिर उनकी खाल को उलट, उसे सीं कर ओढ़ लिया जाये । उसे इस तरह ओढ़ा जाये कि खून से तर हुआ अन्दर का भाग ऊपर दिखायी पड़ने लगे । तत्पश्चात् यहाँ हेमभूमि' से आने वाले पक्षी उन्हें मांसपिण्ड समझ आकाश-मार्ग से रत्नद्वीप को लेकर चल १. वसुदेवहिंडी में रत्नद्वीप । जब चारुदत्त के साथी बकरों को मारने के लिए उतारू हो गये तो चारुदत्त ने रुद्रदत्त से कहा--यदि मुझे ऐसा मालूम होता कि इस व्यापार में यह सब करना होता है तो मैं तुम लोगों के साथ कभी न आता । इस बकरे ने तो जंगल पार करने में कितनी सहायता की है ! रुद्रदत्त ने उत्तर दिया--तुम अकेले क्या कर सकते हो ? चारुदत्त-मैं अपनी देह का त्याग कर दूंगा। तत्पश्चात् चारुदत्त के मरणभय से अपने साथियों के साथ वह उस बकरे को मारने लगा। चारुदत्त उसे न रोक सका । चारुदत्त ने बकरे को धर्म का उपदेश दिया और णमोकार मन्त्र पढ़ा। रुद्रदत्त और उसके साथियों ने बकरे को मार दिया। बृहत्कथाश्लोकसंग्रह (१८.४६९-४८२, पृ० २६३-४) में इस प्रसंग पर सानुदास कहता है--ऐसे सुवर्ण को धिक्कार है जिसके लिए प्राणिवध करना पड़े । यह बकरा मुझे ही क्यों न मार दे ! यह सुनकर रोष और विषाद के कारण निष्प्रभ हुआ आचेर गुनगुनाते हुए (मूल में 'अम्बूकृत' शब्द है जिसका अर्थ होता है होठ बन्द कर गुनगुनाना) बोला-अरे बैल ! तू समय और असमय को नहीं समझता। कहाँ कृपाण का प्रयोग करना चाहिए और कहाँ कृपणों पर कृपा करना उचित है-यह तू नहीं जानता । अरे सिद्धांत के पंडित ! तेरी करुणा स्पष्ट है कि एक जरासी बात के लिए तू सोलह आदमियों का बध करना चाहता है? तुझे पता है कि इस बकरे के मार देने पर -: चौदह प्राणियों को जीवन मिलेगा और न मारने पर इसके साथ तुम और हम सब रसातल को पहुँच जायेंगे ! क्षुद्र प्राणी की रक्षा के लिए दुस्त्याज्य अपनी आत्मा का त्याग कभी नहीं करना चाहिए । अपनी आत्मा की तो दारा और धन से सदा रक्षा ही करनी चाहिए । अपने कथन के समर्थन में उसने भगवद्गीता का श्लोक पढा, और जैसे कृष्ण ने अर्जुन को कर कर्म करने के लिए प्रेरित किया, वैसे ही सानुदास से भी यह क्रर कर्म कराया । तथा देखिये ४९३-९७, पृ. २६५) Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिये । यह मार्ग समुद्रमार्ग को अपेक्षा भी भीषण था। मार्ग में मांसपिंड को अपनी चोंचों से पकड़कर ले जाने वाले इन गीधों में युद्ध होने लगा । अपनी चोंचे मार-मारकर उन्होंने मांसपिंड की खाल को चलनी बना दिया। इस झगड़े में जिस मांसपिंड में सानुदास बंद था. वह गीध की चोंच से छूटकर एक तालाब में गिर पड़ा । सानुदास ने अपने शरीर को कमलपत्रों से घर्षित किया । तट पर वेत्रपथ, वेणुपथ और अजपथ का उल्लेख बृहत्कथाश्लोकसंग्रह (१८... ४३२-५१८) में कुछ विस्तार के साथ उपलब्ध है। महानिद्देस (१. ७, ५५, पृ० १३०) में जण्णुपथ, अजपथ, मेण्डपथ, संकुपथ, छतपथ, वंसपथ, सकुणपथ, मूसिकपथ, दरिपथ और वेतपथ (वेत्ताचार) का उल्लेख है । सद्धम्मपज्जोतिकाटीका (पालि टैक्स्ट सोसायटी) में इन पथों को व्याख्या दी गयी है। वसुदेवहिंडी के चारुदत्त की यात्रा प्रियंगुपट्टन से आरंभ होती है । बृहत्कथाश्लोकसंग्रह का सानुदास सुवर्णभूमि पहुँचकर वेत्रपथ के सहारे पर्वत पर आरोहण करता है । वसुदेवहिंडी में यात्रा का मार्ग मध्य एशिया और बृहत्कथाश्लोकसंग्रह में मलयएशिया जान पड़ता है। सानदास की कहानी के कछ अंशों से-जैसे शैलोदा नदी पार करना, बकरों और भेड़ों का विनिमय आदि-जान पड़ता है कि सानुदास का मार्ग भी मध्य एशिया का ही मार्ग रहा होगा । किन्तु गुप्तकाल में सुवर्णद्वीप का महत्त्व बढ़ जाने से कहानी का घटना स्थल मध्य एशिया के स्थान पर सुवर्णभूमि कर दिया गया। देखिए, सार्थवाह, पृ० १३९ २. अन्यत्र (५०९ लोक में भारूण्ड का उल्लेख है जैसा कि वसुदेवहिंडी में है। ३. उत्तराध्ययन की नेमिन्द्रीय वृत्ति (१८, पृ० २५१ अ-२५२) में पंचशैल द्वीप से आने वाले भारुड पक्षियों का उल्लेख है । पंचशैल प्रस्थान करने वाले यात्री, समुद्र तट पर स्थित वट वृक्ष की शाखा को पकड़ कर वृक्ष पर पहुँच जाते । वहाँ तीन पैर वाले सोये हुए पक्षि युगल के बीच के पैर को पकड़, उसमें अपने आपको एक कपड़े से बांध लेते । गरुड़ पक्षी को विष्णु का वाहन कहा गया है। इसका आधा भाग मनुष्य का है और आधा पक्षी का । महाभारत (१. १६) में इसकी कथा दी है। Pseudo Callisthenes पुस्तक १.४१ में कच्चे मांस का भक्षण करने वाले बृहत्काय पक्षियों का वर्णन हैं। सिकन्दर ने उसपर सवारी कर आकाश की यात्रा की और फिर वापिस लौट आया । बुद्धघोष की कथाओं में इसे हथिलिंग कहा है; इसमें पाँच हाथियों जितनी ताकत होती है। धम्मपद अट्ठकथा के अनुसार रानी सामवती के गर्भवती होने पर राजा ने उसे पहनने के लिए लाल चोगा दिया । हथिलिंग रानी को मांसखण्ड समझकर उसे आकाश में उड़ा ले गया । कथासरित्सागर (२.१. ४६-४८) भी देखिए । मडागास्कर, न्यूजीलैंड आदि प्रदेशों में इन बृहत्काय पक्षियों की हड्डियों और अण्डों के जीवावशेष पाये गये हैं, जो इन पक्षियों के अस्तित्व को सिद्ध करते हैं । देखिए. एन. एम० पेंजर, द ओशन आफ स्टोरी, जिल्द १, पृ० १०३-५, तथा १४१ फुटनोट । Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ पहुँचकर कुछ देर विश्राम किया, फिर तपोवन में प्रवेश किया । वहाँ पिशांग जटा - धारी एक मुनि के दर्शन किये ।' चंपानगरी केवल पाँच कोस रह गयी थी । वहाँ पहुँचकर सानुदास ने अपने उन्हीं धूर्त मित्रों से घिरे हुए ध्रुवक को देखा । सानुदास मित्रों से गले मिला । जिन्होंने उस पर गोबर का पानी फेंककर उसे तिरस्कृत किया था; उनका दरिद्रता से उद्धार किया । ध्रुवक सलाह दी कि माँ को दरिद्रवाटक में से लाकर अपने निज के घर में रक्खा जाये । जैसे कुबेर अलकानगरी में प्रवेश करता है, वैसे ही सानुदास ने चंपा में प्रवेश किया । राजा के दर्शन किये । परस्पर दर्शन स्पर्शन के बाद राजा ने आभूषण आदि प्रदान कर सानुदास का सत्कार किया । वह अपनी माँ से मिलने गया । माँ ने अर्ध प्रदान किया । सानुदास ने सिर से अपनी माँ के चरणों का स्पर्श कर वंदन किया । अपने बेटे को हाथ से पकड़कर वह घर के अंदर ले गयी । वहाँ पहली पत्नी को बैठे हुए देखा । सानुदास ने गंगदत्ता, समुद्रदिन्ना, सिद्धार्थक वणिकू, और आचेर आदि के वृत्तान्त सुनाये, तथा मामा गंगदत्त द्वारा सत्कार किये जाने, समुद्र यात्रा करने और यात्रा करते समय जहाज के फटने आदि की कथा सुनाई । सानुदास परिवार के साथ आनन्दपूर्वक रहने लगा । इस प्रकार हम देखते हैं कि वसुदेवहिंडी और बृहत्कथाश्लोकसंग्रह में केवल कथाओं, कथा-प्रसंगों, चरित्रों, चरित्रगत विवरणों, अध्यायों के नामों और वातावरण का ही साम्य नहीं, भाषा और शब्दावलि का भी साम्य देखने में आता "है; यद्यपि एक रचना गद्य में है और दूसरी पद्य में । बृहत्कथाश्लोकसंग्रह में कितने ही शब्द ऐसे है जो प्राकृत भाषा से ज्यों-के-त्यों ले लिये गये हैं । ऐसे भी अनेक शब्दों का प्रयोग यहाँ हुआ है जो अप्रसिद्ध हैं और संस्कृत साहित्य में प्रायः अन्यत्र नहीं मिलते । वसुदेवहिंडी और बृहत्कथाश्लोकसंग्रह की समान विशेषताओं का अध्ययन करने से प्रतीत होता है कि दोनों ग्रंथकर्ताओं के सामने कोई ऐसी कथा संबंधी कृति रही होगी जिसको आधार मानकर उन्होंने अपनी कृतियों की रचना की । गुणाढ्य की बहत्कथा के अनुपलब्ध होने से यह अत्यन्त निश्चयपूर्वक कहना कठिन है १. छठा भाग ४२३-५१८, पृ० २९८- ६८ । ७ वां भाग, ५९२-६१३, पृ० २७४-७६ ८ वां भाग, ६१४–७०२, पृ० २७६-८४ २. ३. Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६३ कि इन कृतियों का आधार यही बृहत्कथा थी। फिर भी इस संबंध में प्रोफेसर एफ० लाकोत और डाक्टर एल० आल्सडोर्फ जिन निष्कर्षों पर पहुँचे हैं, उनसे पता लगता है कि वसुदेवहिंडी बृहत्कथा का रूपान्तर होना चाहिये । अवश्य ही वसुदेवहिंडी की अपेक्षा बृहत्कथाश्लोकसंग्रह काव्य सौष्ठव की शैली में लिखा हुआ अधिक सरस काव्यग्रंथ है जिसमें काव्य छटा के साथ-साथ हास-परिहास और व्यंग्य का पुट देखने में आता है। घटना चक्र यहाँ अधिक विस्तृत, व्यवस्थित और पूर्ण दिखाई देता है । काम प्रसंगों का वर्ण अधिक उद्दामता से किया हुआ जान पड़ता है । वसुदेवहिंडी में कितने ही प्रसंग बहुत संक्षिप्त हैं और कहीं तो अस्पष्ट रह जाते हैं। ग्रन्थ के संपादन में उपयोगी किसी शुद्ध प्रति का उपलब्ध न होना भी इसका कारण हो सकता है । जिन प्रतियों का संपादन में उपयोग हुआ है वे अनेक स्थलों पर त्रुटित हैं । फिर, धर्मप्रधान कथा-ग्रन्थ होने से धामिकता की रक्षा करना भी आवश्यक हो जाता है । Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन कथा-साहित्य : कहानियों का अनुपम भंडार Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथाओं में वैविध्य उपर्युक्त कथन से स्पष्ट है कि प्राकृत जैन कथा साहित्य लौकिक कथा-कहानियों का अक्षय भंडार है। कितनी ही रोचक और मनोरंजक लोककथाएँ, लोकगाथाएँ, नीतिकथाएँ, दंतकथाएँ (लीजेंड्स), परीकथाएँ, प्राणिकथाएँ, कल्पितकथाएँ, दृष्टान्तकथाएँ, लघुकथाएँ, आख्यान और वार्ताएँ, आदि यहाँ उपलब्ध हैं जो भारतीय संस्कृति की अक्षय निधि हैं । डा० विंटरनित्स के शब्दों में, इस साहित्य में प्राचीन भारतीय कथा साहित्य के अनेक उज्ज्वल रत्न विद्यमान हैं। सुप्रसिद्ध डाक्टर हर्टल ने जैन कथाकारों की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए लिखा है कि इन विद्वानों ने हमें कितनी ऐसी अनुपम भारतीय कथाओं का परिचय कराया है जो हमें अन्य किसी स्रोत से उपलब्ध न हो पातीं। जैन विद्वानों को कहानी कहने का शौक था । वह इसलिए कि जनसाधारण में अपने धर्म का प्रचार करने की उनमें लगन थी। विशुद्ध धार्मिक सिद्धान्तों का उपदेश लोगों को रुचिकर होता नहीं, इसलिए वे उसमें किसी मनोरंजक वार्ता, आख्यान अथवा दृष्टांत का समावेश कर उसे प्रभावकारी बनाने के लिए प्रयत्नशील रहते थे।' हम कोई भी जैनों का धार्मिक ग्रंथ उठाकर देखे, कोई-न-कोई कथा अवश्य मिळेगी-दान की, पूजा की, भक्ति की, परोपकार की, सत्य की, अहिंसा अथवा सांसारिक विषय-भोगों में तृष्णा कम करने की । ___ अनुपलब्ध कथा-साहित्य णायाधम्मकहाओ ( ज्ञातृधर्मकथा ) जैन कथा-साहित्य का सर्वप्रथम ग्रन्थ है जिसमें १९ अध्ययनों में ज्ञातृपुत्र महावीर की धर्मकथाओं का संग्रह है। प्राचीन परम्परा के अनुसार इस ग्रन्थ में साढे तीन करोड़ कथाएँ और उतनी ही उपकथाओं १. मलधारी राजशेखरसूरि के विनोदात्मक कथासंग्रह (१) में कमल श्रेष्ठी की कहानी आती है । धर्माचरण से हीन होने के कारण उसके पिता ने उसे शिक्षा प्राप्त करने के लिए जैन गुरुओं के पास मेजा । प्रथम गुरु के निकट पहुँच, उपदेश देते समय ऊपर-नीचे जानेवाली उनकी गळे की घंटी को वह गिनता रहा। दूसरे गुरु का उपदेश श्रवण करते समय, बिल में से निकलकर बाहर जाने वाली चींटियों की गिनती करता रहा । अन्त में तीसरे गुरु ने कामशास्त्र के रहस्य का प्ररूपण कर उसे धर्म की ओर उन्मुख किया । धर्मकथा के जो आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेदनी और निवेदनी नामके चार प्रकार कहे गये हैं उनका तात्पर्य यही है कि पहले तो श्रोता को अनुकूल लाने वाली कथायें सुनाकर उसे आकृष्ट किया जाता है, फिर प्रतिकूल लगने वाली कथाएँ सुनाकर अमुकूल कथाओं की ओर से उसका मन हटाया जाता है, फिर यह धार्मिक विचारों को ग्रहण करने लगता है, और अन्त में सांसारिक विषयभोगों से निवृत्त हो वैराग्य धारण करता है। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ के होने का उल्लेख मिलता है । कदाचित् इस संख्या में कुछ अत्युक्ति हो, लेकिन इससे इतना तो पता लगता है कि इस ग्रन्थ में महावीर की कही हुई अनेक प्राचीन कथाएँ विद्यमान थीं, जिनमें से बहुत-सो संभवतः आज उपलब्ध नहीं हैं। कितनी ही कथाएँ ऐसी हैं जो पूर्व परंपरा से चली आती हैं और जिन्हें 'वृद्धसंप्रदाय',' 'पूर्वप्रबंध', 'सम्प्रदायगम्य', 'अनुश्रुतिगम्य' आदि रूप से उल्लिखित किया गया है । वसुदेवहिण्डीकार संघदासगणि वाचक ने अपनी रचना को गुरुपरम्परागत ही स्वीकार किया है । कितनी ही रचनाएँ नष्ट हो गयी हैं और संभवतः उनके उपलब्ध होने की अब आशा भी नहीं है। भगवान् महावीर की समकालीन कही जाने वाली साध्वी तरंगवती के प्रेमाख्यान का वर्णन करने वाली पादलिप्त की तरंगवईकहा, तथा मलयवती, मगधसेना, मलयसुंदरी, आदि कितने ही प्रेमाख्यान उपलब्ध नहीं है । प्राकृत जैन कथा-साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन करने से पता चलता है कि विभिन्न कथा-ग्रंथों में वर्णित एक ही कथा के पात्रों के नामों तथा घटनाओं आदि में विभिन्नता पायी जाती है । इससे कथा-साहित्य के विपुल स्रोत के विद्यमान होने का अनुमान किया जा सकता है । ____ आगम साहित्य और उत्तरकालीन कथाग्रंथों की शैली आगमों और आगमबाह्य कथाग्रंथों की वर्णन शैली में पर्याप्त भेद दिखायी देता है । आगम ग्रंथों की कथावस्तु का, बिना किसी साहित्यिक सौष्ठव के, एक ही जैसी संक्षिप्त शैली में वर्णन किया गया है । कभी तो बिना टीका-टिप्पणी के इन कथाओं का बोधगम्य होना कठिन हो जाता है । यूरोपीय विद्वानों द्वारा जैन आगमग्रंथों को 'शुष्क और नीरस' प्रतिपादन किये जाने का यही कारण हो सकता है। इस प्रसंग में वसुदेवहिंडी की वर्णनशैली विशेष रूप से हमारा ध्यान आकर्षित करती है । आगमगतकथा-साहित्य के विपरीत यहाँ नगर, राजा तथा विशेषकर राजकन्या, गणिका आदि नायिकाओं के समासाँत पदावलि युक्त नख-शिख की शैली वाले शृङ्गारप्रधान वर्णन मिलते हैं । वसुदेवहिंडी के मध्यम खण्ड के रचयिता धर्मसेन गणि ने लौकिक शृङ्गार कथाओं के अत्यधिक प्रशंसित हो जाने के कारण अपनी १. उदाहरण के लिए, राजगृह के अर्जुनक माली और मोग्गरपाणि यक्ष की कथा, जे . अंतकृद्दशांग सूत्र में आती है, उसे शान्त्याचार्यकृत उत्तराध्ययन टीका में 'वृद्धसंप्रदाय के नाम से उल्लिखित किया है। २. आल्सडोर्फ ने इसे 'तार की शैली' (टेलीग्राफिक स्टाइल) कहा है। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृति प्रस्तुत की। प्राकृत जैन कथा-साहित्य को समझने के लिये जैन कथाओं के विकास का एक विहंगावलोकन कर लेना आवश्यक है । प्राकृत जैन कथाओं का विकास आगमबाह्य कथा-साहित्य में वसुदेवहिंडी का स्थान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं, भाषा और विषय आदि की दृष्टि से भी यह प्राचीन है । इस कृति में उल्लिखित कथाओं का उत्तरकालीन प्राकृत कथा साहित्य पर गहरा प्रभाव है । अतएव इस महत्त्वपूर्ण कृति की कतिपय कथाओं की चर्चा कर देना उपयोगी होगा। १. अगड़दत्त की कथा अगड़दत्त का उपाख्यान पहले आ चुका है । वसुदेवहिंडी की यह कथा उत्तराध्ययन की वादिवेताल शांतिसूरि (मृत्यु १०४० ई०) कृत शिष्यहिता पाइयटीका और नेमिचन्द्रसूरि (पूर्वनाम देवेन्द्रगणि) कृत सुखबोधा टीका (१०७३ ई. में समाप्त) में भी आती है। वसुदेवहिंडी (पृ० ३५-४९) के अनुसार, अगडदत्त उज्जैनी के राजा जितशत्रु के सारथि अमोधरथ और उसकी भार्या यशोमती का पुत्र था । अपने पिता का देहान्त हो जाने पर वह अपने पिता के परम मित्र कौशाम्बी के दृढ़प्रहारी नामक आचार्य के पास शस्त्रविद्या ग्रहण करने जाता है । वहाँ पहुँचकर गृहपति यक्षादत्त की पुत्री मामदत्ता से उसका प्रेम हो जाता है । परिव्राजक का वेष बनाकर रहने वाले चोर का पता लगाकर वह उसका वध कर देता है । भूमिगृह में जाकर उसकी भगिनी से मिलता है । वह उससे भातृवध का बदला लेने का प्रयत्न करती है । अगड़दत्त उसे पकड़कर राजकुल में ले जाता है । सामदत्ता को लेकर वह स्वदेश लौटता है । अटवी में धनंजय नाम के चोर से उसका सामना होता है। उसका वध कर वह उन्जैनी वापिस लौटता है। अगदत्त सामदत्ता के साथ उद्यान यात्रा के लिए जाता है। सामदत्ता को सर्प डस लेता है। विद्याधर युगल के स्पर्श से वह चेतना प्राप्त करती है। देवकुल में पहुँचकर सामदत्ता अगड़दत्त के वध का प्रयत्न करती है। स्त्री निन्दा और संसार-वैराग्य के रूप में कहानी का अंत होता है। सामदत्ता के नखशिख का वर्णन शृङ्गारयुक्त समासांत शैली में किया गया है । अगड़दत्त स्वयं अपने चरित्र का वर्णन प्रथम पुरुष में करता है। शान्तिसूरि कृत उत्तराध्ययन की बृहद्वृत्ति (४, पृ० २१३-१६) में भी अगड़दत्त की कथा आती है । 'वृद्धवाद' का उल्लेख कर कथा को परम्परागत २२ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० घोषित किया गया है । वसुदेवहिंडी की कथा का यह संक्षिप्तीकरण है। सामदत्ता का कथानक यहाँ नहीं है। अगड़त्त चोर की भगिनी को पकड़कर राजकुल में ले जाता है यहीं पर कथा का अन्त हो जाता है । कथा अन्य पुरुष में कही गयी है। नेमिचन्द्रसूरि की उत्तराध्ययनवृत्ति (४, ८३अ-९३) में प्रतिबुद्धजीवी के दृष्टांत रूप में अगड़दत्त की कथा आती है। यहाँ भी 'वृद्धवाद' का उल्लेख है । कथा ३२९ गाथाओं में है । अगड़दत्त शंखपुर नगर के सुंदर राजा की सुलसा भार्या का पुत्र था । वह धर्म और दया से रहित, मद्य, मांस और मधु का सेवी था। पुरवासियों ने राजकुमार के दुराचरण की राजा से शिकायत की जिससे राजा ने उसे देश छोड़कर चले जाने का आदेश दिया । अगड़दत्त ने वाराणसी पहुँचकर पवनचंड नामक आचार्य से शस्त्रविद्या की शिक्षा प्राप्त की। उद्यान के पास बंधुदत्त श्रेष्ठी की विवाहिता कन्या मदनमंजरी उसकी ओर आकृष्ट हुई। कुमार ने मदनमंजरी को वचन दिया कि जिस दिन वह स्वदेश के लिए प्रस्थान करेगा, उसे भी साथ ले चलेगा। अगड़दत्त परिव्राजक बनकर रहने वाले भुजंगम चोर का पता लगाता है और उसका वधकर, वट वृक्ष के नीचे स्थित भूमिगृह में रहने वाली उसकी भगिनी वीरमती से मिलता है। वीरमती राजकुल में ले जायी जाती है और राजा भूमिगृह के समस्त धन को जब्त कर नागरिकों में बाँट देता है। अगड़दत्त के पौरुष से प्रसन्न हो, वह उसके साथ अपनी राजकुमारी कमलसेना का विवाह कर देता है। कुमार मदनमंजरी को साथ ले, रथ में सवार हो, शंखपुर के लिए प्रस्थान करता है। एक भयानक अटवी में दुर्योधन चोर के साथ होने वाले संग्राम में चोर मारा जाता है । मरते समय चोर जयश्री नाम की अपनी भार्या का पता कुमार को बताता है । वनगज, व्याघ्र और सर्प पर विजय प्राप्त कर अगड़दत्त शंखपुर पहुँचता है। कुमार मदनमंजरी के साथ वसंतक्रीड़ा के लिए उद्यान में जाता है। मदनमंजरी को सर्प डस लेता है। अभिमंत्रित जल से विद्याधरयुगल उसे स्वस्थ करता है । देवकुल में मदनमंजरी अगड़दत्त की हत्या का प्रयत्न करती है। चारण मुनि का उपदेश सुनकर अगड़दत्त प्रतिबोध प्राप्त करता है । स्पष्ट है कि अगड़दत्त कथानक के तीनों रूपांतरों में शांतिसूरि का कथानक अत्यन्त संक्षिप्त है, जो कि वसुदेवहिंडी पर आधारित है । नेमिचंद्रसूरि का कथानक Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७१ वसुदेवहिंडी से कितनी ही बातों में भिन्न है, लेकिन पद्यात्मक होने से वसुदेवहिंडी जितना यह प्राचीन नहीं जान पड़ता। नेमिचन्द्रसूरि की उत्तराध्ययन की वृत्ति की अपेक्षा वसुदेवहिंडी के कथानक की भाषा मौलिक होने के कारण अधिक सरल और स्वाभाविक प्रतीत होती है । दोनों कथानकों में पात्रों आदि के नाम एवं घटनाओं में जो विभिन्नता पायी जाती है, इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि पूर्वकाल में अगड़दत्तचरित नामक कोई स्वतंत्र रचना रही होगी, जिसके आधार से वसुदेवहिंडीकार ने अपना कथानक रचा । शांतिसूरि ने 'विस्तार-भय के कारण' इसे संक्षिप्त रूप में स्वीकार कर लिया । नेमिचन्द्रसूरि का स्रोत संभवतः वसुदेवहिंडी के स्रोत से भिन्न रहा हो। अपने कथानकों की रचना उन्होंने “पूर्व प्रबन्धों का अवलोकन करके" की है।' २ कोक्कास बढ़ई की कहानी वसुदेवहिंडो और बुद्धस्वामी के बृहत्कथाश्लोकसंग्रह दोनों में यह कथानक वर्णित है । इस कथानक की तुलना की जा चुकी है । बृहत्कथाश्लोकसंग्रह में कोक्कास की जगह पुक्कसक नाम आता है । दोनों रूपान्तरों में कोक्कास यवन देशवासियों से आकाशयंत्र विद्या की शिक्षा ग्रहण करता है । कोक्कास की कन्या रत्नावली और उसके कुशल शिल्पी दामाद विश्विल का उल्लेख वसुदेवहिंडी में नहीं है । बृहत्कथाश्लोकसंग्रह में विश्विल आकाशयंत्र का निर्माण करता है । यंत्र तैयार हो जाने पर वह राजा से निवेदन करता है कि वह यंत्र समस्त नागरिकों का भार वहन करने में सक्षम है। विश्विल राजा आदि को गरुडाकार यंत्र में बैठाकर, सारी पृथ्वी की सैर कराकर वापिस ले आता है। वसुदेवहिंडी के शिल्पी कोक्कास का राजा से कहना था कि उसके यंत्र में केवल दो व्यक्ति ही बैठ सकते हैं, तीसरे व्यक्ति का भार वह वहन नहीं कर सकता । लेकिन महारानी ने यंत्र में सवार हो, आकाश-भ्रमण की ज़िद की । परिणाम यह हुआ कि यंत्र पृथ्वी पर आ गिरा । कोक्कास ने दो घोटक-यंत्रों का निर्माण किया, राजकुमार घोटकयंत्र को लेकर आकाश में उड़ गये । लेकिन यंत्र को लौटाने की कील उनके पास नहीं थी, इसलिए वे लौटकर वापिस न आ सके । परिणामस्वरूप कोक्कास के वध की आज्ञा दे दी गयी ।। डाक्टर आल्सडोर्फ ने अगड़दत्त कथानक के तीनों रूपान्तरों का विश्लेषण करते हुए, अगदत्त (कुएँ द्वारा प्रदान किया हुआ), भुजङ्गम (सर्प) आदि कथानक के व्यक्ति वाचक नामों के ऊपर से इसे हजारों वर्ष प्राचीन कथानकों की श्रेणी में रक्खा है । देखिए, ए न्यू वर्जन आफ अगदत्तस्टोरी, न्यू इंडियन ऐंटीक्वेरी, जिल्द १, १९३८-३९ । Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ उक्त दोनों रूपान्तरों का कोई सामान्य स्रोत होना चाहिए और यह स्रोत गुणाढ्य की बृहत्कथा हो सकता है । संभव है कि अगडदत्त कथानक की भाँति प्रस्तुत कथानक की भी एक से अधिक परम्पराएँ रही हों जिनका उपयोग वसुदेवहिंडीकार और बृहत्कथाश्लोकसंग्रहकार ने अपनी-अपनी रचनाओं में किया हो । इस कथानक के अन्य जैन रूपान्तर भी उपलब्ध हैं । आवश्यक नियुक्ति (९२४) में शिल्प सिद्धि के उदाहरण में कोक्कास का नामोल्लेख है । जिनदासगणि महत्तर ने अपनी आवश्यकचूर्णी ( पृ० ५४१ ) में कोक्कास की कथा विस्तार से दी है । हारिभद्रीय आवश्यकवृत्ति, ( पृ० ४०९अ - ४१०) में भी यही कथा है । वसुदेवहिंडी का कोक्कास ताम्रलिप्ति का निवासी था, लेकिन यहाँ उसे शूर्पारक का निवासी बताया है जो उज्जैनी में आकर रहने लगा था । यवनदेश में जाकर शिल्पविद्या सीखने की बात का यहाँ उल्लेख नहीं है । कोक्कास द्वारा निर्मित गरुड़यंत्र में राजा अपनी महारानी के साथ बैठकर आकाश की सैर किया करता । जो राजा उसकी आज्ञा में चलने से इन्कार करते, वह उन्हें आकाश मार्ग से मार डालने की धमकी देता । राजा की अन्य रानियाँ, महारानी से ईर्ष्या करने लगीं । एक बार जब राजा अपनी महारानी के साथ यंत्र में सवार होकर जा रहा था तो उन्होंने यंत्र की कील छिपा दी जिससे यंत्र पीछे न लौट सका और वह पृथ्वी पर गिर पड़ा । विमान कलिंग देश की भूमि पर गिरा । कलिंगराज ने राजा और रानी को गिरफ्तार कर लिया । उज्जैनी के राजकुमार ने कलिंग पर चढ़ाई कर, अपने माता-पिता को मुक्त किया । शकुनयंत्र द्वारा समाचार भेजने का भी यहाँ उल्लेख है । हरिषेणाचार्यकृत बृहत्कथाकोश (५५, एक दिव्य वर्धकी बताया है जो स्त्रीरूप से युक्त कुशल था । मनुष्य के मनमोहक स्त्रीरूप यंत्र का दिव्य चित्रकारों को नीचा दिखा दिया था । कोक्कास की कथा की भी एक से अधिक परम्परा रही होंगी, तथा कालान्तर में यवन देश का उल्लेख अनावश्यक समझकर विस्मृत कर दिया गया होगा । ३ विष्णुकुमार की कथा यह कथा-प्रसंग भी वसुदेवहिंडी और बहत्कथाश्लोकसंग्रह दोनों में पाया जाता है | यह कथानक पहले आ चुका है । जैन कथा के अनुसार, विष्णुकुमार १७४, पृ० ८३ ) में कोकाश को शतयंत्रों का निर्माण करने में निर्माण कर उसने कितने ही Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने जैन श्रमणों के प्रद्वेष्टा नमुचि को दण्ड देने के लिए उससे तीन पैर (विक्रम) भूमि की याचना की । विष्णुकुमार के शरीर को बढ़ता हुआ देख भय से संत्रस्त हुआ नमुचि उनके चरणों में गिर पड़ा । ब्राह्मण परंपरा में इससे मिलती-जुलती कथा विष्णु भगवान् की आती है जिन्होंने वामन अवतार धारण कर बलि नाम के दैत्य को दंडित किया । बलि देवताओं को बहुत कष्ट देता था । कष्टों से त्राण पाने के लिए देवताओं ने विष्णु भगवान् का आह्वान किया । भगवान् ने वामन का रूप धारण कर उससे तीन पग भूमि मांगी। पहला पग उन्होंने पृथ्वी पर, दूसरा आकाश में और अन्य कोई स्थान न मिलने पर तीसरा पग बलि के सिर पर रख, उसे पाताल लोक में पहुँचा दिया। इस कथा का उल्लेख बृहत्कथाश्लोकसंग्रह में पाया जाता है । ब्राह्मणों की इस पौराणिक कथा का उल्लेख गुणाढ्य की बृहत्कथा में रहा होगा। आगे चलकर जैन परम्परा में विष्णु भगवान् के स्थान. पर विष्णुकुमार मुनि और देवताओं को कष्ट देने वाले बलि के स्थान पर जैन श्रमणों के प्रदेष्टा पुरोहित नमुचि की कल्पना कर, कथा को जैनधर्म के ढांचे में ढाल दिया गया। नेमिचन्द्रसूरि की उत्तराध्ययन-लघुवृत्ति (पृ०२४५अ-२४९अ) में यह कथा कुछ परिवर्तन के साथ आती है। यहाँ विष्णुकुमार को राजा पद्मरथ और रानी लक्ष्मीमति के स्थान पर ऋषभस्वामी के वंशोत्पन्न राजा पद्मोत्तर और महादेवी जाला का पुत्र बताया है । नमुचि को यहाँ उज्जैनी के राजा श्रीधर्म का मंत्री कहा है जिसने जैन सूरि सुव्रत से पराजित हो, हस्तिनापुर पहुँच राजमंत्री पद प्राप्त कर लिया । विष्णुकुमार मुनि को नमुचि ने तीन पग रखने के लिए भूमि दे दी लेकिन साथ ही यह भी कहा कि यदि तीन पग से बाहर की जमीन पर कहीं पैर रक्खा तो वह उसके सीर के बाल नोंच डालेगा। विष्णुकुमार का शरीर क्रोधाग्नि से बढ़ने लगा। इस कोप को शान्त करने के लिए इन्द्र ने देवांगनाएँ भेजी जिन्होंने अपनी गीतिका से मुनि का क्रोध शान्त किया।' इस समय से विष्णुकुमार मुनि त्रिविक्रम नाम से प्रख्यात हो गये । वसुदेवहिंडी की कथा की अपेक्षा नेमिचन्द्रसूरि की कथा कुछ विस्तार-पूर्वक कही गयी है । हरिषेणाचार्यकृत बृहत्कथाकोश में भी विष्णुकुमार का कथानक आता है । बहुत-सी बातों में उत्तराध्ययनवृत्ति से इसका साम्य है । राजा श्रीधर के १. सपरसंतावो धम्मवणविहावसू । दुग्गइगमणहेऊ कोवो ता उवसमं करेसु भयवं ।। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ बलि, बृहस्पति, प्रह्लाद और नमुचि नामक चार मंत्री हैं। मंत्रियों ने जैन श्रमण श्रुतसागर के वध का प्रयत्न किया । राजा ने चारों को देश से बहिष्कृत कर दिया । हस्तिनापुर पहुँचकर उन्होंने राजा महापद्म का मंत्रित्व प्राप्त कर लिया । स्वदेश पर आक्रमण करने वाले राजा सिंहबल को पराजित करने के कारण महापद्म ने बलि को वर प्रदान किया । बली ने सात दिन पर्यन्त राज्य करने का वर माँगा । नगर तुरत ही यज्ञशालाएँ स्थापित कर दी गईं और बेरोकटोक महिष, अजा आदि पशुओं का वध किया जाने लगा । जैन श्रमण प्रत्याख्यान का अवलंबन ग्रहण कर कायोत्सर्ग में स्थित हो गये । विष्णुकुमार संघ की रक्षा के लिए मिथिला से हस्तिनापुर पहुँचे । वामन का रूप धारण कर सभा में स्थित बलि के समक्ष वे वेदध्वनि का उच्चारण करने लगे । उन्होंने तीन पग भूमि की याचना की । एक पैर उन्होने मेरु पर्वत पर, दूसरा मानुषोत्तर पर्वत पर रक्खा और जब तीसरा पैर रखने का स्थान न मिला तो उसे घुमाकर कहने लगे कि बताओ इसे कहाँ रखा जाये ? भय से संत्रस्त हुए किन्नरों और विद्याधरो ने उस चरण की पूजा की। शासन देवताओं ने बलि को बंधन में बांध लिया और उसे गधे पर चढ़ाकर नगर में घुमाया । किन्नरों और विद्याधरों ने विष्णु मुनि से अपने चरण को सिकोड़ लेने की प्रार्थना की । विद्याधरों को वीणाएँ प्रदान की गयीं । वसुदेवहिंडी के मूल कथानक में कितना परिवर्तन कर दिया गया । बलि दैत्य के स्थान पर बलि नामक मंत्री और वामन अवतार की कल्पना कर जैन कथाकारों ने ब्राह्मण परम्परा को अक्षरशः मान्य कर लिया । ४. चारुदत्त की कथा नाम चारुदत्त की कथा की तुलना की जा चुकी है । वसुदेवहिंडी का चारुदत्त श्रेष्ठ बृहत्कथाश्लोकसंग्रह का सानुदास वणिक् है । चारु नामक मुनि के संबंध से चारुदत्त और सानु नामक दिगंबर मुनि के संबंध से सानुदास रक्खा गया । चारुदत्त और सानुदास दोनों के मित्रों की नामावली में कोई अंतर नहीं है । दोनों पुलिनतट पर पत्रच्छेद्य में समय व्यतीत करते हैं। दोनों कथानकों में पुलिनतट पर बने हुए पदचिह्नों को देखकर विद्याधर और उसकी प्रिया का पता लगाते हैं। दोनों में पत्रों से आकीर्ण लतागृह में पहुँचते हैं । लोहे की कीलों से बंधे हुए विद्याधर को बंधन से मुक्त करते हैं । दोनों जगह विद्याधर का नाम अमितगति है और वह अपना समस्त वृत्तान्त सुनाता है । वसुदेवडिंडी में उसकी प्रिया का Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७५ नाम सुकुमालिका और बृहत्कथाश्लोकसंग्रह में कुसुमालिका है । एक में धूमसिंह और दूसरे में अंगारक उसका अपहरण करके ले जाता है ।। आगे चलकर पुष्कर मधुपान, गणिका के घर रहना, वहाँ से निष्कासित किये जाना, धनार्जन कर घर लौटकर आने की प्रतिज्ञा, वेत्रपथ, शंकुपथ, अजपथ पारकर देश-विदेश की यात्रा, भारुण्ड पक्षियों द्वारा रत्नद्वीप में ले जाया जाना; तथा वीणावादन की शिक्षा, गंधर्वदत्ता के साथ विवाह, और विष्णु गीतिका आदि कथा-प्रसंगों में वसुदेवहिंडी और बृहत्कथाश्लोकसंग्रह में इतनी अधिक साम्यता है कि कितने ही स्थलों पर अर्थ के स्पष्टीकरण के लिए एक दूसरे का अवलंबन लिया जा सकता है । दोनों की भाषा भिन्न होने पर भी समान भाषा की अभिव्यक्ति और समान शब्दों का प्रयोग देखने में आता है। चारुदत्त (बृहत्कथाश्लोकसंग्रह के सानुदास) के कथानक को देखकर यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि इस कथानक का स्रोत कोई गुणाढ्य की बृहत्कथा जैसी सुप्रसिद्ध रचना रही होगी। हरिषेण के बृहत्कथाकोश (९३) में चारुदत्त का कथानक सामान्य हेरफेर के साथ वर्णित है । पुलिनतट पर पदचिह्नों की घटना का यहाँ अत्यन्त संक्षिप्त उल्लेख है । अमितगति के मित्र का नाम गोरमुंड है, गौरीपुंड नहीं । कदली वृक्ष में विद्याधर को कीलित करने का उल्लेख है, कदम्ब वृक्ष में नहीं । चारुदत्त वसंतसेना गणिका के घर से निष्कासित होकर वस्त्र से मुँह ढंककर अपने घर जाता है। व्यापार के लिए खरीदी हुई कपास वन की अग्नि से भस्म होती है, चूहे के द्वारा ले जाई गई दीये की बत्ती से नहीं । समुद्रयात्रा के समय छह बार जहाज के टूटने का उल्लेख है । इषुवेगा की जगह कांडवेगा नदी का और टंकण देश की जगह टंकण पर्वत का नाम आता है । केवल चारुदत्त और रुद्रदत्त ही बकरों पर सवार होकर यात्रा करते हैं । कथा के अंत में चारुदत्त जैनी दीक्षा ग्रहण कर लेता है । सुलसा और याज्ञवल्क्य की कथा भी इस कथानक के साथ जोड़ दी गयी है। जिससे पता लगता है कि संघदास गणि वाचक कृत वसुदेवहिंडी ग्रन्थकार के सामने था । प्राचीन कथानकों में समयानुसार किस गति से संशोधन-परिवर्तन होता चलता है, यह कथा-साहित्य के विकास के अध्ययन के लिए आवश्यक है । जिनसेन के हरिवंश पुराण (७८३ ई० में समाप्त) में भी चारुदत्त की कथा आती है। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ प्रसन्नचन्द्र और वल्कलचीरी की कथा ___ वसुदेवहिंडी (पृ० १६-२०) की राजा प्रसन्नचन्द्र और ऋषिकुमार वल्कलचीरी संबंधी कथा को वसुदेवहिंडी के उल्लेखपूर्वक जिनदासगणि महत्तर ने आवश्यकचूर्णी (पृ० ४५६-६०) प्रायः अक्षरशः उद्धृत किया है । आवश्यकनियुक्ति में भी इसका उल्लेख है । वसुदेवहिंडी के कर्ता संघदासगणि को यह कथा गुरुपरम्परा से प्राप्त हुई होगी । उल्लेखनीय है कि ऋषिभाषित में नारद, वल्कलचीरी, भारद्वाज, याज्ञवल्क्य आदि ऋषियों को अजिनसिद्ध (जिनबाह्य-सिद्ध) माना गया है।' वाल्मीकि रामायण के आदिकाण्ड में ऋष्यशृङ्ग की कथा से इस की तुलना की जा सकती है। ऋष्यशृङ्ग का अपने पिता के द्वारा वन में पालन-पोषण हुआ था। प्रौढ़ावस्था को प्राप्त होने तक उसने अन्य किसी मनुष्य के दर्शन नहीं किये थे। अंग के राजा लोमपाद ने ब्राह्मणों की सलाह से अनेक युवतियों की सहायता द्वारा उसे अपने पास मंगवाकर अपनी कन्या का विवाह उससे कर दिया । बौद्धों की उदान-अट्ठकथा और धम्मपद-अट्ठकथा (२, पृ० २०९ आदि) में भी यह कथा कुछ रूपान्तर के साथ उपलब्ध है । इस प्रकार का तुलनात्मक अध्ययन निश्चय ही प्राकृत जैन कथा साहित्य के विकास में उपयोगी हो सकता है। ६ ललितांग की कथा सार्थवाह पुत्र ललितांग की कथा का उल्लेख किया जा चुका है। वसुदेवहिंडी (पृ० ९-१०) में ललितांग के दृष्टांत द्वारा गर्भावास के दुखों की ओर लक्ष्य किया है । हरिभद्रसूरि ने अपनी समराइच्च-कहा में ललितांग, अशोक और कामांकुर को उज्जैनी के राजकुमार समरादित्य का मित्र बताया है जो एक साथ बैठकर कामशास्त्र की चर्चा में समय व्यतीत करते हैं । हेमचन्द्र के परिशिष्ट पर्व (३. १९. २१५-७५) में भी यह कथा आती है । जो बहुत कुछ वसुदेवहिंडी की कथा पर आधारित है। कथा का उपसंहार दोनों में एक जैसा है। आगे चलकर सोमप्रभसूरि के कुमारपालप्रतिबोध में शीलवती-कथानक के अन्तर्गत ललितांग, अशोक, रतिकेलि और कामांकुर को नंदिपुर के राजा का मित्र कहा है। राजा शीलवती के पति की अनुपस्थिति में अपने मित्रों को शीलवती के शील की परीक्षा के लिए भेजता है। १. तथा देखिए सूत्रकृतांग ३, ४, २, ३, ४, पृ० ९४ अ-९५; चतुःशरणटीका ६४ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७७ ७ मधुबिन्दु दृष्टांत मधुबिंदु दृष्टांत का उल्लेख किया जा चुका है। वसुदेवहिंडी में सांसारिक विषयभोगों की क्षणभंगुरता सिद्ध करने के लिए यह दृष्टांत दिया है । तत्पश्चात् हरिभद्रसूरि की समराइच्चकहा, अमितगति की धर्म-परीक्षा और हेमचन्द्राचार्य की स्थविरावलि में इस दृष्टांत का उपयोग किया गया है। महाभारत और बौद्धों के अवदान साहित्य में यह उपलब्ध है। इस प्रकार के कथानकों की गणना 'श्रमण काव्य' के अन्तर्गत की गयी है । विश्वकथासाहित्य में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है । इन सब दृष्टियों को ध्यान में रखकर प्राकृत जैन कथा साहित्य का अध्ययन अवश्य ही उपयोगी सिद्ध होगा। सौभाग्य से प्राकृत साहित्य के अध्ययन की ओर विद्वानों की रुचि बढ़ती जा रही है, लेकिन अध्ययन की सामग्री जैसी चाहिए, वैसी हम अभी तक नहीं तैयार कर सके हैं। प्राकृत कथाओं के एक विश्वकोष (एन्साइक्लोपीडिया) की आवश्यकता है जिसमें प्राकृत कथाओं का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया जा सके । प्राकृत के एक सर्वांगीण कोश की नितान्त आवश्यकता है, अभी तक ४२ वर्ष पुराने पाइयसद्दमहण्णवो से ही हम काम चलाते आ रहे हैं । प्राकृत कथा-ग्रन्थों के आलोचनात्मक वैज्ञानिक ढंग से सुसंपादित संस्करणों की आवश्यकता है जिससे कथा साहित्य का वैज्ञानिक अध्ययन किया जा सके । प्राकृत कथा-साहित्य का अध्ययन अनेक दृष्टियों से उपयोगी है। सर्वप्रथम इसमें लोकजीवन का जैसा यथार्थवादी लौकिक चित्रण मिलता है, वैसा वैदिक संस्कृत साहित्य अथवा बौद्ध पालि साहित्य में नहीं मिलता । वैदिक साहित्य की कहानियाँ प्रायः पौराणिक हैं जिनका प्राइवेट तौर पर ही पठन-पाठन होता रहा है, अतएव लोकजीवन के निकट वे नहीं आ सकीं । वैदिक कथाओं के नमूने महाभारत, कथासरित्सागर, दशकुमारचरित, तंत्राख्यायिका, हितोपदेश आदि रचनाओं में देखे जा सकते हैं । बौद्ध कथा-साहित्य ने अवश्य इस दिशा में प्रगति की । लोकजीवन संबंधी कथा-कहानियों ने यायावर बौद्ध भिक्षुओं के हाथ में पड़कर लोकतांत्रिक रूप धारण किया । फिर भी, जैन कथा-कहानियों जैसी व्यापकता इन कहानियों में न आ सकी । इसका कारण बताते हुए डाक्टर हर्टल ने लिखा है कि जैन कथाकार बौद्ध कथाकारों की भाँति न तो बुद्ध के अतीत जीवन की कहानी को प्रमुखता देते थे और न बोधिसत्व के रूप में उनके भविष्य जीवन की कहानी को; बौद्ध कथाओं की २३ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाँति सीधा उपदेश भी उनकी कथाओं में नहीं रहता था । वस्तुतः धर्मोपदेश जैन कथा-कहानियों का अंग रहा है जसा कि कहा जा चुका है, लेकिन प्रायः कहानी के अंत में ही ऐसा होता है, जबकि केवली अपनी धर्मदेशना सुनाते हैं और नायकनायिका श्रमण-दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं । इसके अतिरिक्त, धर्म, अर्थ और काम नामक पुरुषार्थों की पोषक तथा धर्मकथा के अन्तर्गत नीतिकथा में गर्भित की जाने वाली धूर्ती, मूों, विटों और कुट्टिनियों की कथाए भी यहाँ पाई जाती हैं । बनिज-व्यापार के लिए समुद्र यात्रा पर जाने वाले सार्थवाहों की कहानियाँ विशेष रूप से हमारा ध्यान आकर्षित करती है । प्राकृत जैन कथा-साहित्य की इन विशेषताओं का पालि साहित्य में प्रायः अभाव दिखायी देता है। कथानक रूढियाँ और लोकजीवन कथानक-रूढ़ियों (मोटिफ) का जितना उपयोग प्राकृत साहित्य में हुआ है, उतना संस्कृत साहित्य में नहीं हुआ । प्राकृत साहित्य में विविध आनुषंगिक प्रसंगों की योजना किसी-न-किसी 'मोटिफ' के लिए की गयी है । कारण कि ये कथाएँ लोक-प्रचलित कथाओं पर आधारित हैं और लोक-कथाओं में कथानक रूढ़ियाँ भरपूर मात्रा में पाई जाती हैं, जो इन कथाओं की समृद्धि का कारण है । लोककथाओं में पुरानी कथानक रूढ़ियाँ अप्रचलित होती जाती हैं और नयी रूढ़ियाँ जुड़ती जातीहैं । इस दृष्टि से प्राकृत जैन कथा साहित्य का अध्ययन लोककथा के अध्येताओं के लिए उपयोगी है। इससे कथाओं के क्रमिक विकास तथा कथाओं के अन्तर्राष्ट्रीय संबंधों पर प्रकाश पड़ता है और इस बात का पता लगाया जा सकता है कि कौनसी कहानी ने किस काल में भारत छोडकर विदेशयात्रा की और कौनसी कहानी विदेश से चलकर भारतीय कहानियों का अभिन्न अंग बन गई । मानवतावाद के सिद्धांत का इससे यथोचित समर्थन होता है ।। भाषाविज्ञान की दृष्टि से महत्त्व सांस्कृतिक महत्त्व के अतिरिक्त, प्राकृत जैन-कथा साहित्य का भाषा वैज्ञानिक महत्त्व भी कम नहीं । प्राकृत के पश्चात् अपभ्रंश, हिन्दी, गुजराती, और राजस्थानी भाषाओं में जैन विद्वानों ने कथा-साहित्य की रचना जारी रक्खी । परिणामस्वरूप इन भाषाओं की शब्दावलि, शब्द-रचना, मुहावरे, व्याकरण, छन्द आदि पर प्राकृत का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था । इस दृष्टि से खासकर जूनी गुजराती और राजस्थानी भाषाओं का अध्ययन बहुत उपयोगी है । Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७९ इस संबंध में कलिकालसर्वज्ञ कहे जाने वाले तथा गुजरात में जैन संस्कृति के परम प्रतिष्ठाता आचार्य हेमचन्द्रकृत, भारत-यूरोपीय आर्य भाषाओं के साहित्य की अमूल्य निधि देशीनाममाला का उल्लेख आवश्यक है । देशी शब्दों का बड़ा से बड़ा यह संकलन प्राकृत, अपभ्रंश, एवं उत्तरभारतीय आधुनिक भाषाओं में पाये जाने वाले देशी शब्दों के अध्ययन की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । हेमचन्द्र के शब्दों में, महाराष्ट्र, विदर्भ, और आभीर आदि देशों में प्रसिद्ध शब्दों का ही यहाँ संकलन किया गया है; किन्तु ऐसे शब्दों की संख्या अनन्त होने से जीवन-भर भी उनका संकलन संभव नहीं, अतएव अनादिकाल से प्रचलित प्राकृत भाषा के विशेष शब्दों को ही यहाँ लिया गया है । मनोरंजक साहित्यिक कथानकों की अपेक्षा लोककथाओं का विशेष महत्त्व है । इनमें लोकजीवन संबंधी सुख-दुखों का प्रतिबिंब देखने को मिलता है । वस्तुतः भारतीय कथा - साहित्य का इतिहास अधिकांश रूप में भारतीय चिन्तन, धर्म और रीति-रिवाज का ही इतिहास है-लाकोत का यह कथन निस्सन्देह सत्य है । भारतीय कथा साहित्य के अध्येता विंटरनित्स ने भारतीय कथा-कहानियों को भारतीय मस्तिष्क की सर्वश्रेष्ठ उपज कहा है; इन कथा-कहानियों ने वास्तविक साहित्य के पद को प्राप्त किया है और ये अधिकांश रूप में अन्य सभ्य देशों की अपेक्षा अधिक प्राचीन हैं । भारत की भूमि को उन्होंने कथा - कहानी और पशु-पक्षियों की कथा-कहानियों के अविष्कार के लिए विशेष रूप से अनुकूल बताया है । पुनर्जन्म के सिद्धान्त में विश्वास रखने के कारण, मनुष्यों और पशुओं में भेद होने से भारतीय कथाओं में पशु-पक्षियों को भी कथा के नायक होने का अवसर प्राप्त हो सका है। इसके सिवाय, भारतीय कल्पनाशक्ति के अतिशय प्राचुर्य को संतुष्ट करने के लिए कथाकारों को अमानवीय लोकों की कल्पना करनी पड़ी । फिर, भारत हमेशा से साधु-संतों और तीर्थस्थानों के यात्रियों का देश रहा है; ऐसी हालत में दूसरों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए, तथा धर्म और नीति का उपदेश देने के लिए कथा-कहानियों का आश्रय ग्रहण किया गया । परस्पर मनोरंजन के लिए भी कथा-कहानियों का जीवन में प्रमुख स्थान रहा, यद्यपि ये कहानियाँ हमेशा धार्मिक नहीं हुआ करती थीं । लौकिक कथाएँ पौराणिक कथाओं एवं पशु-पक्षियों आदि की काल्पनिक कथाओं (फेबल्स) से भिन्न हैं । पौराणिक कथाओं में ज्ञान की पिपासा Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० शान्त करने अथवा धार्मिक आवश्यकता की प्रवृत्ति देखी जाती है, जबकि काल्प निक कथाओं में उपदेशात्मक प्रवृत्ति की प्रधानता रहती है। यही कारण है कि लौकिक कथा-कहानियों का अस्तित्त्व लोगों में तभी से चला आता है जबकि साहित्य में उनका प्रवेश भी नहीं हुआ था । सर्वप्रथम प्राकृत साहित्य में उन्हें स्थान प्राप्त हुआ जबकि काल्पनिक कथाओं का उद्भव साहित्य में हुआ और इन्हें संस्कृत साहित्य में स्थान मिला ।' _प्राकृत जैन कथा-साहित्य के अध्येता प्रोफेसर हर्मन जैकोबी (१८८४ में सेक्रेड बुक्स आफ द ईष्ट सीरीज़ में जैन सूत्रों का प्रथम भाग प्रकाशित), डाक्टर मौरिस विंटरनित्स 'भारतीय साहित्य का इतिहास' के क्रमशः १९०४, १९०८, १९१३ और १९२० में चार भाग प्रकाशित) तथा डा० जे० हर्टल (१९२२ में 'आन द लिटरेचर आफ श्वेतांबर जैन्स आफ गुजरात' नामक लघु किन्तु महत्त्व पूर्ण पुस्तिका प्रकाशित) आदि अनेक विदेशी विद्वानों ने प्राकृत कथा-साहित्य के क्षेत्र में अनुपम योगदान दिया है । क्या इनसे प्रेरित होकर हमारे विद्वान् प्राकृत कथा-सागर के बहुमूल्य मुक्ताओं को ढूंढ़ निकालने में प्रयत्नशील न होंगे ? । १० विटरनित्स; हिस्ट्री आफ इंडियन लिटरेचर; जिल्द ३; भाग १; पृ० ३०१, ३३१,३०३ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंग १७६ अंग जनपद १४८ अंगमन्दिर १३२ अंगारक १४३, १७५ अंगुत्तरनिकाय ८, ८ (टि.) अंजनासुन्दरीकथा १०७ अंडक (अ.) १०४ अंधकवृष्णि ११९ अंशुमान ४९, ५६ (टि.) अगडदत्त १३, १४, १६८, १७० अग्निशर्मा पुरोहित १०५ अजपथ ३६ अजितसेन ४७ अनंगवली (मन्धुली) १० (टि.) २८ अनन्तकीर्तिकथा १०७ अनुयोगद्वारसूत्र २७ अन्तकृद्दशा ५४ अन्तर्राष्ट्रीय प्राच्य विद्या परिषद् रोम ११७ (टि.) अन्तर्वेदी ४३ अपभ्रंश ११२ (टि.) अफ्रीका ५० (टि.), ८४ (टि.) अब्धिमन्थन १० (टि.) अभयकुमार ७१ (टि.) अमरशक्ति ७५ अमितगति १७, ९८ (टि.), १३९. १४२, १४८, १७५ अमेरिकन ओरिएंटल सीसायटी (जर्नल) ७२ (टि.) अमोघरथ १३, १६९ अरब ५० (टि.) अरबी ७६ (टि.) सूची अरिष्टनेमि १०७ अरेबियन नाइट्स ८९ (टि.) अर्जुन १५१, १६० अर्थदीपिकावृत्ति (श्रावक प्रतिक्रमणसूत्र पर) ११२ (टि. ) अर्धमागधी ७ भर्नेस्ट लायमान २७ (टि.) अवंतिराज ५३ अशोक २०, २० (टि. १७६ आंध्र ४३ आंध्रदेश ४४ टि.) आख्यानकमणिकोष ३९ (टि.) आचारांगचूर्णी आचारांगनिर्युक्ति १११ (टि.) आचार्य वीरभद्र २७ 6 ू आचेर १५९, १६०, १६२ आजकल ५७ (टि.) आत्मानन्द जैन ग्रन्थमाला २८ ( टि . ) आन द लिटरेचर आफ द श्वेताम्बर जैन्स ऑफ गुजरात ७७ (टि.) १८० (टि.) ९४ आभीर १७९ आर. सी. टैम्पल १७ (टि.) आरक्षित १०८ आवत ४५ (टि.) आवश्यकचूर्णी ४ (टि.), ६ (टि.), ५९ (टि.), ६० (टि.), ६२ (टि.), ६३ (टि.) ७२ (टि.), ७७, ८१ (टि.', ८४ (टि.), ८५ (टि.), ८६ (टि.), ८९ (टि.), ९० (टि.), ९१ (टि.), १०२ (टि.), १०८ (टि.), १०९ (टि.), ११९ १२२ (टि.), आवश्यक नियुक्ति ६० (टि.), ६७ (टि), ७१ (टि.), ७२ (टि.) ८४ (टि.), ८५ (टि.), १०२ (टि.), १०३ (टि.), १२२ (टि.), १७२, १७६ आवश्यकवृत्ति ७३ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यक हारिभद्रीय ६० (टि.), ६७ टि) ७१ (टि.), ८४ (टि.), ८५ (टि.), ९० (टि.), आसड १०७ इण्डियन कल्चर ८९ (टि.) इण्डोचीन ७७ sushan ७७ इन्द्र ७२ (टि.), १५१ इन्दुमती १० (टि.) इन्दुलेखा २८ इषुवेगा ३५, १७५ इस्लाम ९८ (टि.) ईश्वरदत्त ६३ (टि.). ईसा ११९ ईसाई ९८ (टि.) उम्बरावती ३४ उग्रसेन १७ (टि.) उच्चस्थल ४० उज्जयिनी ७१, १२२ (टि.) उज्जैनी १३, ४६, ५९ (टि.), १०९, १६९, १७२, १७६ उत्तराध्ययन १४ (टि.), ५४, ९४ (टि.), ९४, ९६ (टि.), १०० (टि.), १०४ ११४ (टि.), १६१ (टि.), - टीका १४७ (टि.), - नियुक्ति १०० (टि.), - वृत्ति १६९, १७०, १७१, १७३ उत्तरा १५१ उत्तरापथ ४२ उदयन ( वत्सराज ) ११९, १२०, १२३ १४७ (टि.) उदान अट्ठकथा १७६ उदुम्बरिकसीहनाद ११ (टि.), उद्योतनसूरि ( दाक्षिण्यचिह्न) १०, १५, २७ १०८, ११०, ११२ (टि.) ११२ उपकोशा ४६ (टि.) उपदेशकंदलि १०७ ૮૨ उपदेशपद ५९ (टि.), ७१ (टि.), ७२ (टि.), ७३, ७३ (टि.), ७४ (टि.), १०३ (टि.) १०४ (टि.) १०७, ११० ११३ उपदेशमाला १०७, ११० उपदेशमालाप्रकरण (पुष्पमाला प्रकरण ) १०७ उपदेशरत्नाकर १०७ उपासकदशा ५४ ऋग्वेद ७२ (टि.) ऋषभ १०७, १०८ - देव ११९ ऋषिभाषित १७६ ऋष्यश्रृंग १७६ एणीपुत्र १८, १९, ११९ (टि.) एन. एम. पेंजर ५० (टि.) १६१ (टि ) ए न्यू वर्जन आफ अगडदत्तस्टोरी १७१ टि. ) न्यू इण्डियन ऐंटीक्वेरी एफ. लाकोत ११७ ए. बी. कीथ ११८ (टि.) एम. ब्लूमफील्ड ७२ एम. विन्टरनित्स ५० (टि.) एम. वी. एमेनियन ८४ (टि.) १०० (टि.) एलाषाढ १०९ एलासाढ १०९ (टि०.) एशिया ५० (टि.) १६१ (टि.) एसेटिक लिटरेचर इन एंशियंट इण्डिया ९६ (टि.) ९८ (टि.), ऐस. एन. दासगुप्ता १३२ (टि.) औपपातिक सूत्र ३ (टि.), औरश्रीय (अध्ययन) १०४ कंचनपुर १२६ कंडरीक ५८, ५९, १०९, कंडिगशाला १२१ कंस १८ कथामणिकोष ५५ कथाकोष प्रकरण ४७ (टि.) कथामणिकोष (आख्यानमणिकोष) १०६ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथामुख ११९ कथासरित्सागर ३ (टि.), ४६, ५९ (टि.) ६२ (टि.), ६५, ७६ (टि.) ७७, ७८, ८१ (टि.), ८३ (टि., ८४ (टि.), ९१ (टि.), ९७ (टि.), ११७, ११७, (टि.), ११८, ११८ (टि.), १२०, १२१ (टि.), १२३ (टि.), १३४ (टि.) १६१ (टि.), १७७ कथोत्पत्ति ११९ कनकमंजरी ३, ४, १४ (टि.), कनकरथ १६, कमलपुर ३४ कमलश्रेष्ठी १६७ (टि.) कमलसेना ५६, १७० कमलामेला १७ (टि.), करणानुयोग , कर्णाटक ७, ४३, ४४ कलकत्ता ९६ (टि.) कलाविलास ५७ (टि.) कलिंगदेश १७२ कलिंगराज १७२ कलिंगसेना १२०, १२८, १२९, १२९ (टि.), १३१ कल्पसूत्र १०५, १०७ कहाणयकोस ५५, १०६, ११० कहारयणकोस (कथारत्नकोष) ५५, १०६, ११०, ११३ कहावलि ५५, ११० कांडवेगा १७५ काकजंघ १२२ कादंबरी ४ (टि.) १० (टि.) ११२ (टि.) कापिलीय ९४ कामांकुर २०, २०, (टि.) १७६ कालकाचार्य १०६ कालिक १०८ कालिकायरियकहाणय १०६, ११० कालिंदसेना १२०, १२६, १२८, १२९ (टि.) कालीयद्वीपवासीअश्व (अ.) १०४ काव्यादर्श ११२ (टि.) काव्यानुशासन १. (टि.), १११ टि.), ११३ (टि.), काशी १२३ काश्मीर ४ (टि.), काश्मीरी ५८, १२० काश्यपस्थलक १४३ कोर्तिविजयगणि ७७ (टि.) कोर (कुल्लू कांगड़ा) ४३ कुडंगद्वीप ९८ कुक्कस १२१, १२१ (टि.), कुक्कास १२१ (टि.) कुक्कुस १२१ (टि.) कुमारपाल १०६ कुमारपालप्रतिबोध २० (टि.), ४८ (टि.) ४६ (टि.) १०६. १७६, कुमारवालपडिबोह ११० कुम्मापुत्तचरिय १०८ कुवलयचंद्र २३, २५ १०६, कुवलयमाला १० (टि.), १५, १५ (टि.), २३, २४, २५ (टि.), २६ (टि.), २७, २७ (टि.), ३८ ३९ (टि.), ४३, ४४, ५३, ५५, ६१ (टि.), ६१, ९९ (टि.), १०० (टि.), १०३ (टि.), १०६, ११०, ११२, १२१ (टि.', कुवलयावली २५, २६, कुसुमालिका १४३, १७५ कुसुमावली २१, २२, कुस्तुनतुनिया ५० (टि.) कूटवाणिज जातक ६२ (टि.) कूटिदूसक जातक ८४ (टि.) कूर्म (अध्ययन) १०४ कृष्ण १६, ३७, १०५, १०८, १२४, १२६, १२८, १६०, कृष्णचरित १०८ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कैतुमती १४ (टि.), गंधर्वदत्तालामेकेम्ब्रिज ८३ (टि) चम्पाप्रवेशसर्ग १४९ (टि.) कैकयी १९ गंधर्वदत्ताविवाह ११९ कोकस १२१ (टि.) गंधर्ववेद १४४ कोकास १२१ (टि.) गांधारग्राम १५१ कोक्कस १२१ (टि.) गाथाकोष ११४ कोक्कास १२१ (टि.) १२१, १२२, १७१, गाथासप्तशती १२ (टि.), १७२, गुजरात ६३ (टि.) ११० १७८ कोक्कोस १२१ (टि.) गुजराती १७८ गुणचन्द्रगणि (देवभद्रसूरि) ५५ कोरमंगल १०० (टि.) गुणचन्द्रगणि १०६, १०८, कोशल ४१, ४३, गुणपालमुनि १०८ कोशलदेस ४४ गुणसेन १०५ कौतुहल ४, ४ (टि.), १०, १० (टि.), २५ गुणाढ्य १९ (टि), २७, २८, ७१ टि.), कौरव १४, ७६ (टि.) ७७, ११०, ११७, ११८ कौशाम्बी १३, ४६, १२३, १६९ (टि.),१२० १६२, १७२, १७३ १७५, गुप्तकाल १६१ (टि.) कौशिकमुनि १४२, १४३ क्वार्टी जनरल आफ द मिथिक गुर्जर ४३, ४४, गुहिलोत ११० सोसायटी पंगलूर ११८ (टि. गोकपिलीय अध्ययन ९६ (टि.) क्षेमेन्द्र ५६, ५७ (टि), ५८ (टि.), ६३ (टि.), गोदावरी २६ ७६ (टि.) ११७. ११८ गोमुख ६५ १२०, १२५, १२५ (टि.), १२६, खण्डचर्म १५७ १२९, १३१, १३२, १३३, १३४, खंडपाणा १०९ १३५, १३६, १३७, १३८, १३९ खंडा १०९ (टि.) १४०, १४१, १४२, १५२, १५३, खट्वाघटनविज्ञान १२३ (टि.) गोरमुंड १७५ खस ३५ गोरोचना १० (टि.), खुहकनिकाय ८ गंगदत्त १५७, १६२ गंगदत्ता १५४, १५५, १५६, १६२ गौतमगोत्र १४३ गंगा १०५ गौतमबुद्ध ११, गंधर्व १५१ गौरपुण्ड १७५ गन्धर्वकुमार १५ चउपन्नमहापुरिसचरिय १०८, ११०, गंधर्वदत्ता १४. (टि.); १७, १९, १४३, चंडसोम ९९ (टि.) १४४, १४५, १४६, १४७, १४८, चंपा, ३६, ३९, ४५, ५६, १४३, १४८, १४९, १५०, १५१, १७५ १४९, १५८, १६२, गंधर्वदत्तालभक ११९ चंपाप्रवेश ११९ गंधर्वदत्तालाभ ११९ - चतुःशरणटीका १७६ (टि.) गोल्ल ४३, Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८५ चन्दन ६० चन्दनबाला १०८ चन्द्र ४८ चन्द्रद्वीप ४० चन्द्रपुरी ७४ (टि.) चन्द्रप्रभ महत्तर १०८ चंद्राभा १६, चरणानुयोग ८ चाणक्य ७५ चारु १३२ चाम्दत्त १७, ३३, ३१, ३५, ३६, १३२, १३५, १३, १३८, १४३, १४४, १४५, १४७, १५२, १५३, १५६, - १६० (टि.), १६१ (टि.), १७४, १७५ चारुमती २८ चारुमुनि १७४ चारुस्वामी १३७, १३८, १३९, चालुक्य ११० चाहमान ११० चित्त १४७ (टि.) चित्रांगद २५, २६, चीन ३४, ४२, ४६, चीनी ३५ चेटक (प्रवहिका) १० (टि.) चेटककथा २६ चैस्टिटी टैस्ट ९२ (टि.) जंबू १०८ जम्बूचरित १०८ जम्बूस्वामी १०८ (टि.) जगदीशचन्द्र जैन १६, (टि.) ३८, ४७ (टि.), ५७, (टि.) ५९ (टि.), ८५ (टि.) जटिल ११० अनमेजय १४, १५१, जमदग्नि ५ जयकीर्ति १०७ जयग्रीव १४४ जयन्ती चरित्र १०८ जयश्री ४० जयसिंहसूरि १०७ जयसेन १२४, १२५, १२६, जरनल आफ अमेरिकन ओरिएंटल सोसाइटी ८४ (टि.) १०० (टि.) जरासंध १८ जातक ४ (टि.), ७८, ९२, ९३ जावा ३४ जितशत्रु १६९ जिनचन्द्रसूरि १०७ जिनदत्त ४५ (टि.) जिनदत्ताख्यान ४५, ११०, ११३, ११४, जिनदास ६ जिनदासगणि महत्तर ६ १०५, ११९, १७६, जिनपालित ४५, १०४, जिनभद्रगणि (क्षमाश्रमण) २८ जिनमाणिक्य १०८ जिनरक्षित ४५, १०४, जिनविजयगणि ७७ (टि.) जिनहर्षगणि १६ (टि.) जिनेश्वरसूरि ४७ (टि.) ५५ १०६, ११४, जीमूतवाहन १२१ (टि.) जीर्णधन ६२ (टि.) जैन ११, ७७, ९२ (टि.) ९३, ९६, ९५, १०० (टि.), १७४, जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज ८५ (टि.) १२१ (टि.) जैन प्राकृत साहित्य का इतिहास १६ (टि.) जैनरामायण १९, १०८ जैन साहित्य संशोधक२७ (टि.) जैनाज इन इण्डियन लिटरेचर८९ (टि.) ज्ञातृधर्मकथा ५४, १०४ ज्ञातृपुत्र महावीर १६८ झुटनक (पशु) १०३ टंकणदेश ३५, १७५ टंकणपर्वत १७५ २४ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टोप्प ४६ डब्ल्यू० स्कीट ८३ (टि.) डॉ. ए. एन. उपाध्ये ३९ (टि.), ५५ (टि.) डॉ. एल. आल्सडोर्फ ११७, १६३, १६८ (टि.) १७१, डिक्सनरी आफ फोकलोर ९२ (टि.) ढक्क ४३ ढोढ शिवा १०९ (टि.) णाणपंचमीकहा (ज्ञानपंचमी कथा ) ११०, ११४ (टि.) णायाधम्मक हाओ ४५ (टि.) १६८ तंत्राख्यान ७५ तन्त्राख्यायिका ७६, ७६ (टि.), १७७, तक्षशिला ४० तत्त्वार्थसूत्र २६ (टि.) तथागत ८ तपंतक १२५, १२५, (टि.), १३०, १३२ तरंगलोला २७ तरंगवईकहा २७, २७ (टि.) ५५. ११०, १६८ १५७, १५९, १७२, तरंगवती २६, २७. १०८, ११०, १६८ ताजिक ४३, ४४ ताम्रलिप्ति ३३, ३३ (टि.), १२१, १२२, तारा ४८, ४८ (टि.) तिलकमंजरी ४ (टि.), २७ तुंबरू १४७ तुम्बरुचूर्ण ३५ तुम्बुरन १४४ तुलाधारजाजलिसंवाद ९६ (टि.) त्रिपुरुषचरित्र ११० त्रिविक्रम ४ (टि.), १८६ थाणु ३८, ३९, ६१, द औशन ऑफ स्टोरी १७ (टि.), ५० (टि.) १६१ (टि.) दंतवक्र १८ १०६ दक्षिणापथ ४० दण्डी ( महाकवि ) ५८ (टि.) ११२ (टि.), दत्तक १४८, १४९, १५०, १५१, १५६, दत्तवाहक १५० दद्दभजातक ८१ (टि.) दमघोष १८, द लाइफ इण्डेक्स ९२ (टि.) द वसुदेवहिंडी ए स्पेसिमैन आफ आर्किक जैनमहाराष्ट्री ११७ (टि.) दशकुमारचरित ५८ (टि.) १७७ दशरथ १९ दशवेकालिकचूर्ण १२ (टि.), २८, ७७, ७९ (टि.), ९२ (टि.), १०९ (टि.) - निर्युक्ति १०, ११, ११ (टि), १३ (टि.) ५३, वृत्ति ७३ द हिस्ट्री आफ इण्डियन लिटरेचर ७७ (टि.), ८९ (टि.) दामोदरगुप्त ५८ दावद्दव (अ.) १०४ दाविय १० (टि. ) . दीघनिकाय दृढप्रहारी १३, १६९ दृष्टिवाद ८ देवचन्द्र २८, १०८ देवगुप्त ११० देवदत्ता ५९ (टि.) देवेन्द्रगणि ( नेमिचन्द्रसूरि ) १०५ देवेन्द्रसूरि ११ (टि.) १०५, १०८ देशीनाममाला १७९ द्रविड ७ द्रव्यानुयोग ८ द्राविड १० (टि.) ११ (टि.) द्रुपद १८ द्वात्रिंशिका ६३ (टि.) द्वारका १७ टि. ४२, १२७ द्वारकादहन १०५ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८७ द्वीपायनऋषि १०५ धन ४५ (टि) ९८, धनंजय १६९ धनदत्त ४६ धनदेव (टि.), १७ (टि.), २७, ४६, ८६ (टि.) धनपति १२१ धनपद १२१ धनपाल (कवि) २७ धनवसू १२१ धनश्री ४५ (टि.) धन्यसार्थवाह १०४ धम्मकहाणयकोस (धर्मकथानककोष) ५५ धम्मपद ९५ (टि.) धम्मपद अट्ठकथा ८६ (टि.) १६१ (टि.) धम्मिल्ल ५६ धम्मिल्लहिंडी ११९ धरण ४५ (टि.) ४६, १२१, धर्मचन्द्र २८ धर्मदत्त ४१ (टि.), धर्मदास १०७-गणि १७ धर्मपरीक्षा ९८ (टि.) धर्मबुद्धि ६२ (टि.) धर्मसेनगणि महत्तर २८, ११०, ११९, ११९ (टि.), धर्मोपदेशमाला ११० धर्मोपदेशमाला प्रकरण १०७ धर्मोपदेशमाला विवरण १०७, ११३ धुंधुमार १४, धूमसिंह १७, १३८, १३९, १७५, धूर्तविट ६३ (टि.) धूर्ताख्यान २६, ११०, ११९, ११९ (टि.) धृतराष्ट्र ९८ (टि.) धृतराष्ट्रेशोकापनोद ९६ (टि.) ९८ (टि.) ध्रुवक १५४, १५५, १६२, नन्दक ८६ (टि.) नन्दनवन १४३ नन्दीफलवृक्ष (अ.) १०४ नन्दीश्वर १२० नन्दीसूत्र ७१ (टि.) नमि ९६ नमिराजर्षि ९५ नमुचि ७२ (टि), १४६, १४७, १७३, १७४ नम्मयासुन्दरीकहा १०६, ११० नरवाहनदत्त १४, ६५, ११९, १२० १२५, १२९, १३०, १३२, १४२, १४८, नरवाहनदत्तकथा २६ नरसिंहभाई पटेल २७ (टि.) नर्मदासुन्दरी ४५ (टि.) १०८ नर्मदासुन्दरीकथा ४५ नल १४, नवहंस ४ (टि.) नहुष १४, नागदत्त १०६ नागरकेश्वर १४८ नागेन्द्र १२१ नारद १४४, १४७, १५१, १७६, नालन्दा देवनागरी पालिग्रन्थमाला ११ (टि.) निग्रोध जातक ८३ (टि.) निशीथ १०५--भाष्य ११ (टि.), २१ (टि.) २६, ५९ (टि.) १०९ (टि.) निशीथविशेषचूणि २१ (टि.), निशीथसूत्र ३ (टि.), निहस १४, नेमिचंद २७ (टि.) नेमिचन्द्र १४ (टि.) नेमिचन्द्र (आम्रदेव) ३९ (टि.) नेमिचन्द्रगणि २७ नेमिचन्द्रसूरि (देवेन्द्रगणि) ५५, १६९, १७०, १७१, १७३, नेमिचन्द्रीयउत्तराध्ययनवृत्ति १४ (टि.) १६१ (टि.) Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ नेमिनाहचरिय १०८ नेपाली ७६ (टि.) ११८ न्यूजीलेण्ड १६१ (टि.) पउमचरिय १०८, १०९, ११० पंचतंत्र ३९ (टि.), ५९ (टि.), ६१ (टि.), ६२ 'टि.), ७५, ७५ (टि.), ७६, ७६ (टि.), ७७, ७७ (टि.), ७८, ७९ (टि.), ८०, (टि.), ८१, (टि.), ८४ (टि.), ८६ (टि.) ९४, ९७ (टि.) पंचशैल १६१ (टि.) पंचाख्यान ७६, ७७, ९७ (टि.) पंचाख्यानक ७६, ७७, पंचाख्यान चौपाई ७७ (टि.) पंचाख्यानवार्तिक १ (टि.), ७७ (टि.), पंचाख्यानोद्धार ७७ (टि.) पंडुसुत १४, पद्मदेव २७ पप्रचन्द्रसूरि १६ (टि.), ४१ (टि.) ५५, पद्मरथ १४६ पद्मावत १६ (टि.), पद्मावती १२३ परिखा का जल (अ) १०४ परिशिष्टपर्व ३ (टि., २० (टि.), ८४ (टि.), ९८ (टि.) १७६, परीक्षित १५१ पवहण ४५ (टि.) पहलवी ७६ (टि.) पाइयकहासंगह ५५ पाइयसद्दमहण्णवो १७७ पांज्यदेश १५८ पांड्यमथुरा १५८, १५२, पाण्डु १८ पाटलिपुत्र ५९ (टि.), ६३ (टि.), ९८, पादलिप्त २७ (टि.), १०८, ११०, १६८, सूरि२६, २७, पापबुद्धि ६२ (टि.) पार्श्व १०७ पार्श्वनाथचरित ८६ (टि.) १०८, पालि टेक्स सोसायटी १६१ (टि.) पाशुपत १५७ पिंगलकसिंह ८६ (टि.) पिटर्सन ११२ (टि.) पियंगुपट्टन ३४, पुक्कस १२२, १२४, पुक्कसक १७१ पुरुरव १४, पुष्करमधु १५४ पुष्पशेखर १२६ पुहवीचन्दाय १०८ पूजाष्टककथा १०७ पूर्णभद्रसूरि ७६, ७७, ९७, पूर्वदेश ४२ पेढिया ११९ पेसाय १० (टि.) पैशाची १० (टि.) २६, ११२ (टि.), ११७ (टि.), पोटूठपादसुत्त ११ (टि.), पोतनपुर ४ (टि.), प्रतिमुख ११९ प्रतिष्ठाननगर २५, ३९ प्रथमानुयोग ८, प्रद्युम्न ३७ प्रबन्धचिन्तामणि ५९ (टि.) ११० (टि.), प्रभव १०८ प्रभाकर नारायण कवठेकर ७९ टि. ८३ (टि.) प्रभावती ४ (टि.), १४ (टि.), प्रल्हाद १७४ प्रसन्नचन्द्र ११९, १७६, प्राकृत १०, १०८, ११२, (टि.), प्राकृतकथासंग्रह १६ (टि.), ४१ (टि.), ४५, १०६, ११०, प्राकृतव्याकरण ११७ (टि.) प्राकृतसाहित्य ११४ (टि.) Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत साहित्य का इतिहास २१ (टि.) २८ (टि.), ४७, १०६, (टि.) १०७ (टि.), ११३ (टि.) ११४, (टि.) प्राचीन भारत की कहानियाँ ३८ (टि.) प्रियंगुपट्टन १६१ (टि.) प्रियंगुसुन्दरी १८, ११९ (टि.) फलौधी ७७ (टि.) फारस ५० (टि.) फिक्सन मोटिफ ९२ (टि.) फेबल्स एण्ड फोकटेल्स ८३ (टि.) फ्रेंच ११८ (टि.) बडसफर ४५ (टि.) बइडकहा १९ (टि.), २८, ७६ (टि.) ११७, बन्धुदत्त १७० बन्धुमती १४ (टि.), २६, बब्बर (बारिकोन) ३४ बर्बरकूल ४२ बलदेव १७ (टि.), बलि १५१, १७३, १७४, बश्वेश्वरमन्दिर १०० (टि) बाइबिल १०४ (टि.) बाण १० (टि.), बिन्दुमती १४३ बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् ११७ (टि.) बी० एस० जी० डब्ल्यू ८९ (टि.) बुद्ध ९३ बुद्धघोष १६१ (टि.) बुद्धिसेन १२४, १२५, १२६, १२७, १३१ (टि.) बुधस्वामी १७ (टि.) १९, (टि.) ९९ (टि.), ११५, ११८, बुलेटिन आफ द स्कूल आफ ओरि यंटल स्टडिज ११७ (टि.) बृहदकथा २६, २८, ७१ (टि.) ७७, १.३ (टि.), ११० १२०, १६२, १७२, १७३ १७५ बृहद्कथाकोष ५५ (टि.), १७२, १७३, १७५, बृहत्कथामंजरी ५८ (टि.) ७६ (टि.), ७७, ११७, ११८ (टि.), बृहद्कथाश्लोकसंग्रह १७ (टि.), १९ (टि.) ३३ (टि), ३४ (टि), ४९ (टि) ९९ (टि), ११७, ११८, ११९, १२०, १२१, १२३, १२५, १२६, (टि), १२० (टि) १२८, १२८ (टि) १२९, १३२ (टि), १३९, १४७ (टि), १४८, १५४ १५६, १६० (टि), १६१ (टि), १६२, १६३, १४१, १७२, १७३, १७४, १७५, बृहद्कल्पभाष्य ७ (टि.) १२ (टि.) १४ (टि) १७ २६ (टि.) ५९ (टि.) ६७ (टि.), ७७, ८० (टि), ८१ (टि.,) ८४ (टि.) टि., ८५ (टि.), ९० (टि.), १०९ (टि.), १२३ (टि.), बृहद्वृत्ति १६९ बृहस्पति १७४ बेगड ४५ (टि.) बेन्फे ८९ (टि.) बेन्यातट ७३ बोकाचिओ ५० (टि.) बोधिसत्व ९३ बोहित्थ ४५ (टि.) बौद्ध ८, ९२ (टि.) ९४, ९५ (टि.) ९६. ९७, ९८ (टि.) १२०, १७६, १७७, बौद्धसूत्र ११, भगवद्गीता १६० भद्रबाहु १०५, १०८, सूरि २८ भद्रा १३२ भदिलपुर ५६ (टि.) भद्रेश्वर ५५, ११०, भरटक, ६४, ६४ (टि.) भरटद्वात्रिंशिका ६३, ६४, ६८ (टि), ८९ (टि,) Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत ७९ १०५, १२८, १३१ भरतपुत्र ३९ भरहुत ९२, १२१ (टि.) भवदेवसूरि ८६ (टि.) भवभावना १०७, ११४ (टि., ) भाइल ४१ भानू १३२ भारत ५० (टि.) ९३, ९४, १२३ (टि.), १७८. १७९, भारतीयविद्या १७ (टि.) भारतीय साहित्य का इतिहास १८० भारद्वाज १७६ भारुंड ४ (टि.), ३६, १६१ (टि.) भीमकाव्य १० (टि.), भूतिक १४९ भोगमालिनी १२८ भोगीलाल सांडेसरा २८ (टि.), ११७ (टि.) भोज ११७ (टि.) भोजदेव ५९ (टि.) भोजराज १० (टि.), २८, भोजराज, शृङ्गार प्रकाश १० (टि.), मंदरपर्वत १४६ मगध ७, ४३, १४३, मगधसेना २६ ११०, १६८, मज्झिमनिकाय ८ मडागास्कर १६१ (टि ) मत्सनामिका १४३ मथुरा ८६ (टि.) मदन ४८ मदनमंजरी १७० मदनमंजुका १२० १२८, १२९, १२९ (टि.) १३१, १३२, १३२ (टि.), मदन मंजुकालाभ १३२, मदनलेखा २२ मदनविनोद ४ (टि.), मधु, १६, १९० मध्यएशिया १६१ (टि.) मध्यपूर्व ५० टि ) मध्यप्रदेश ४३ मनुस्मृति १४७ (टि.) मनोरमाचरिय १०८ मनोहर १०१ मरु ४३ मरुदेश ४४ मरुभूति १३३, १४०, मरुभूतिक १२५ (टि.) १३०, १३२. १४०, मलयएशिया १६१ (टि.) मलयगिरि ६७ (दि.) १०५, मलयवती २६, २८, ११०, १६८, मलयसुन्दरी २८, १६८ मलाया ८६ (टि.) मलिक मुहम्मद जायसी १६ (टि.), महाउम्मग्गजातक ७२ (टि.) महागिरि १०८ महाचीन ४२ महानिदेस १६१ (टि) महानुमति २५, २६, महापदानसुत्त ११ (टि.), महापद्म १४६, १७४, महाबल २८ महाभारत ७३, ७९, (टि.), ९२, ९५ (टि), ९६, ९६ (टि.), ९७, ९७ (टि.), ९८ (टि.), १०९, १६१ (टि.), १७७, महाराष्ट्र ७, ४३, ४४, १७९, महावीर ७, १०७, १०८ (टि.) १६८ महावीरचरित १०८ महासेन १२२ १२४ महिलारोप्य नगर ७५ महीवालकहा ११० महेन्द्रविक्रम १३९ महेश्वरदत्त ४५ (टि.) महासघ ७२ (टि.) Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माईथोलोजी एण्ड लीजेण्ड ८३ (टि.) । ९२ (टि.) मांधाता १४, मांसविवर्धणी १४२ माकन्दीपुत्र १०४ मागध ३ (टि.), मागधी ११२ (टि.) माधव ५९ (टि.) माधवानिल २५, २६, माधविका २८ मानतुंगसूरि १०८ मानभट ९९ (टि.) मानसवेग १६, मानुष्योत्तर पर्वत १७४ मायादित्य ३८, ६१, ९९ (टि.), मारीचवध १० (टि.), मारियालीच, ८३ (टि.) ९२ (टि.) मालव ४३, ४४, मालवा ७, ११०, मित्रवती १३२ (टि.) १५६ मित्रवर्मा १५५, १५८, मिथिला ९५, १७४ मिश्र ११२ (टि.) .. मुख ११९ मुद्रिकालतिका १३१, १३२ मुनिचन्द्र ११४ मुनिजिनविजय २८ (टि.) मुनि त्रिविक्रम १७३ मुनिपुण्यविजयजी १५ (टि.). ११२ (टि.), ११९ (टि.) मुनि बच्छराज ७७ (टि.) मुनिसुन्दर १०७ मूलदेव ५७, ५७ (टि.) ५८, ५९, ५९ (टि.), १०९ (टि.), ११९, मूलश्री १०९ मृच्छकटिक १३२ (टि. मृतसंजीवनी १४२ मेंढक (अ.) १०४ मेघरथ ९७ मेघविजय ७७ (टि.) मेरु पर्वत १७४ मोतीचन्द्र ३४ (टि.) मोहदत्त ९९ (टि.) मौनएकादशीकथा १०७ यक्षादत्त १६९ यक्षीकामुक १५०, १५१, १५२ यज्ञदत्ता ८७ यज्ञनिन्दा ९६ (दि.) यवन (सिकन्दरिया) ३४ यवनदेश १२२ (टि.) १२३ यवन (यव) द्वीप ३४, ५०, ४५ यशधवल ४१ (टि.), यशस्तिलकचम्पू ५७ (टि.) यशोमती १६९ यशोवर्धन ४६ यहूदी ९८ (टि.) याज्ञवल्क्य १७५, १७६ यावनी, १५८ यूनानी १२३ (टि.) रजतमहोत्सव स्मारक ग्रन्थ २६ (टि.) २६ (टि.) रत्नकरंडक १२७ रत्नमुकुट १०२ रत्नद्वीप ३६, ४०, ४२, ४३, १६०, रत्नपाल ७७ (टि.) रत्नशेखर १६, रत्नावली १२३, १७१, रयणसेहरीकहा १६ (टि.), १०७ ११०, रविषेण ११० रसाउल ११४ राघवन १० (टि.) राजगृह १५८, राजशेखरसूरि (मलधारि) १६७ (टि.) १६८ (टि.) Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ राजस्थान ११० राजीमती १०८ राजोवादजातक ३८ (टि.), राम १४, १०५, १०८ रामचरित १०८ रामायण ७६, ९२, १०९, रावण १४, १०८, रावणविजय १० (टि.), राक्षसी ११२ (टि.) राहुल सांकृत्यायन ११ (टि.), रिपुदमन नरपति १०५ रिष्टपुर १७ रुद्रदत्त १६० रुद्रसूरि १०६ रुधिर १७, १८, रुमण्वत १२२ रूथ नारटन ९२ (टि.) रोम ११७ (टि.) रोहक ७१, ७२, ७२ (टि.) रोहिणी १७, १८, १०४, ११९ (टि.) लक्ष्मण ११४ लक्ष्मणगणि १०८ लक्ष्मी ४५ (टि.) लक्ष्मीमती १४६ लघु अर्हन्नीतिशास्त्र ७७ ललितांग २०, २० (टि.). ४८ (टि.), १०५ १७६, लवणसमुद्र (हिन्दमहासागर ४५) लाकोत, ११८ (टि.) १२३, १६३, १७९ लाट ७, ४३, ४४, लाफान्तेन ५० (टि.) लीलावई १० (टि.) लीलावईकहा ४, ४ (टि.) १० लीलावती २५, २६, लोभदेव ४०, ४१, ९९ (टि.) लोमपाद १७६ वज्रकोटिसंस्थितपर्वत ३६ वज्रस्वामी १०८ वत्सदेश १४८, १४९ वराह १२५ (टि.) १३२, वर्णप्रसादनी १४२ वर्धमानक ८६ (टि.) वर्धमानसूरि १०७, १०८ वलाहस्स जातक ४५ (टि.) वल्कलचीरी ११९, १७६, वसन्ततिलका १५३, १५६, वसंतरजतमहोत्सव स्मारक ग्रन्थ २८ (टि.) वसन्तसेना १३२ (टि.) १७५ वसुदत्ता ४६ वसुदेव १६, १७, १८, ४९, ५६ (टि.) ११९, १४३, १४४ वसुदेवचरित २६, २८ वसुदेवहिंडी ५ (टि.) ९. (टि'), १४ (टि.), १५ (टि.) १६ (टि.), १७ (टि.), १८ (टि.), २० (टि.), २८, २८ (टि.) ३४ (टि.) ३७ (टि.) ३८ (टि.) ४५ (टि.) ४६ (टि.) ४८ (टि.) ४९ (टि.) ५३, ५५, ५६, (टि.), ५८ (टि.), ७७, ८६, ८७ (टि.), ९७ (टि.) ९८ (टि.) १०५. १०८, ११०, १११, ११७, ११७ (टि) ११८, ११९, ११९ (टि,), १२०, १२१, १२१, (टि.), १२३, १२४, १२५ (टि.) १२९ (टिः) १३१ (टि.) १३२, १३२ (टि.), १२६, १२७ (टि.), १४३, १५२, १५६ (टि. १६० (टि.) १६१ (टि.), १६२, १६३, १६८, १६९, १७०, १७१, १७२, १७३, १७४, १७५, १७६, १७७ वसुभूति ८७ वात्सायन ७५ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९३ विष्णुकुमारमुनि १७३ विष्णुगीतिका १११, १४६, १४७, १५१ बादिदेवसूरि ५९ (टि.) वाराणसी १२३ १७० वाल्मीकि १०८ वाल्मीकि रामायण १७६, १०८ वासवदत्ता १४७ (टि.) वासुपूज्य १४३ विंटरनित्स २६७,१८० विजयचंदकेवलीचरिय १०८ विजयसेन २५ विजयानगरी २३ विजयानन्द २६ विज्जुदाढ १२१ विदर्भ ७, १७९ विदुर ९६ (टि.) विदुरहितवाक्य ९६ (टि.) विदेह ७२ (टि.) ९५ टि.) विद्याधर वासव १०५ विनयचन्द्र ५५ विनयपिटक ११ (टि.) विनयवस्तु ८१ (टि.) १०४ (टि.) विनोदकथा संग्रह ६८ (टि.) विनोदात्मककथासंग्रह ६३ (दि.) (टि.), ८६ (टि.) १६७ विपाकसूत्र ५४, १०४ विपुलाशय २५ विमलरि १०८, १०९ (टि.) विमलांक ११० विराह १५१ विवेकमंजरी प्रकरण १०७ विशल्यकरणी १३८, १४२ विशेषावश्यकभाष्य २८ विश्वावसु १५१ विश्विल १२३ १२४ विष्णु ५९ (टि.) १४६, १६१ (टि.) विष्णुकुमार. १४६, १७२, १७३ विष्णुकुमारचरित १११ विष्णुभगवान् १५१, १७३ विष्णुपदी १६०. विष्णुशर्मा ७५, ७६, वीणादत्तक १४८, १४९, १५० . वीरमती १७० चिराज (सेनापति) १०० (दि.) वृत्रासुर १५१ वेगवती नदी ८६ (टी.) वेगवती लंभक ११९ वेगवतीलाभ ११९ वेतालपंचविंशतिका ५९ (टि.) ७८ ८९ (टि.) वेत्रपथ ३५ वेनिस ५० टि.) वैताव्यपर्वत ३५ व्रणरोहणी १४२ व्यवहारभाष्य ७७, ८० (टि.), ८३ (टि,) ८६ (टि.), १०५ व्यालक १४३ शंकुपद ३५ शंख १०६ शंखपुर १.० शंब १७ (टि.), १२४, १२६, १२७, शकुन्तिका २८ शय्यंभव १०८ शरीर ११९ शश १०९ शाक्यवति ७३ शान्तिचन्द्रसूरि १०५ शान्तिनाथ चरित्र २८ शान्तिपर्व ९६ (टि.), ९७ शान्तिसूरि १०७, १०८ शान्त्याचार्य १०० (टि.) ११४ (दि.) Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ शालवाहन ११० शिव ५९ (टि.) शिवजी १२० शिवमन्दिर १३९ शिष्यहिता पाइयटीका (उत्तराध्ययनपर) शीलवती ४७, ४८ (टि.) शीलवतीकथा २० (टि.) शीलवती-कथानक १७६ शीलांकाचार्य १०८ ११० शीलोपदेशमाला १०७ शुकसप्तति ४-९, ३३, ४, ५९ (टि.), ५२ (टि.) ६३ (टि.) ७४ (टि.) ७८, ८३ (टि.) ९२ (टि.) शूद्रककथा १० (टि.), शूर्पारक ४१, १७२ शैलोदानदी १६१ (टि.) शैव ६४, ६५ श्यामा ११९ (टि.) श्रावकप्रतिक्रमणसूत्र ११२ (टि.) श्रावस्ती १८ श्रीधर १७३ श्रीपाल १५ (टि.) १०७ श्रीलंका ९२ शृङ्गारप्रकाश १० (टि.) शृङ्गारमंजरी ५९ (टि.) श्रुतसागर १७४ श्वेतपट ७४ (टि.) श्वेताम्बर ७४ (टि.) ११०, संकीर्ण १० संकीर्णकथा २७ (टि.) संघदासगणि १७, २८, १०५, ११०,१११, ११९ (टि.) १६८, १७५, १७६ संजय १८, संजीवक ८६ (टि.) सन्तिनाहचरिय १०८ संभूत १४७ (टि.) संयुत्तनिकाय ८, ८ (टि.), संरोहणी १३८, संवेगरंगशाला १०७ संस्कृत १०, ११२ (टि.), संस्कृत साहित्य में नीतिकथा का उद्गम एवं विकास ७९ (टि.) ८३ (टि.), सगर १०५ सद्धम्मपज्जोतिकाटीका १६१ (टि.) सम प्रोब्लम्स आफ इण्डियन लिट रेचर ९६ :टि.) समराइच्चकहा १० (टि.), १३ (टि.) २०, २२ (टि.) ४५, १६, ५३, ५३ (टि.) ५४, ५५, ६१, ७३, ९८, ११० (टि.), १०५, ११०, १७६, १७७, समरादित्य २०, ५३ समवायांग ११ (टि.) समुद्रदिना १५८, १६२ सरस्वतीकण्ठाभरण २८ १११ (टि.), ११७ (टि.) सर्वास्तिवाद ८१ (टि.) १०४ (टि.). सस १०९ (टि.) सहस्त्रमल्लचौरकथा १०७ सांची ९२ सागर १५८ सागरचन्द्र १७ (टि.), सागरदत्त ३९, ४०, सागरदिन्ना १५८ सातवाहन २५, २६, २७, सानु १३२ (टि.) सानुदास ३३ (टि.) १३२ (टि.) १३९, १४८, १४९, १५०, १५१, १५२, १५४, १५५, १५६, १५७, १५८, १५९, १६०, १६० (टि.) १६१, १६२, १७४ सानुदासकथा १५५ (टि.) Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९५ सानुमुनि १७४ सामञफलसुत्त ११ (टि.), सामदत्ता १३, १४, १४ (टि.) ११, (टि.), १६९, १०, सामवती १६१ (टि.) सार्थवाह ३४ (टि.) १६१ (टि.) साहित्यदर्पण १० (टि.), सिंध ४३ सिंह २१ सिंहकुमार २१ सिंहबल १७४ सिंहलदेश २५, ३४ सिंहलद्वीप ४८ सिंहलराज २६ सिंहासनद्वात्रिंशिका ८९ (टि.) सिकन्दर १६१ (टि.) सिद्धकच्छप १५७ सिद्धकुमार २५ सिद्धसेन ७४ (टि.), २६ (टि.) सिद्धार्थक १५७, १६०, सिरिवालकहा ४५, १०६, ११०, ११३ सिल्ल ४५ (टि.) सिविजातक ९७ (टि.) सीरियायी ७६ (टि.) सीहचम्मजातक ८१ (टि.) सुकुमालिका १७, सुखबोधाटीका (उत्तराध्ययन पर) १६९ सुग्रीव १४४ सुत्तन्त ८, सुत्तपिटक ८. सुदसणाचरिय ११ (टि.), सुदारक १२६ सुन्दरी ४६ सुन्दरीदेवी १६ (टि.), सुपार्श्वनाथचरित १०८ सुभदा १०८ सुमतिनाथचरित १०८ सुमित्रा १०५ सुयशा १३९ सुरसुन्दरीचरिय ११३ सुरेन्द्रदत्त ३५ सुलसा १७०, ९७५ सुलोचना २६. १११, सुवर्णद्वीप ४२, ४५ (टि.) १६१ (टि.) सुवर्णमूमि ३४, १५९ १६१ (टि.) .. सुब्रतकथा १०७ सुहस्ति १०८ सुहिरण्य १२७ सुहिरण्यका १२९ (टि.) सुहिरण्या १२०, १२६, १२८ सूत्रकृतांग १०४ १७४ (टि.) सेक्रेड बुक्स आफ द ईस्ट सीरीज १८० . सेतु २६ सेतुबंध १० (टि.), सेन्ट मेथ्यू की सुवार्ता १०४ (टि.) सेन्ट ल्यूक की सुवार्ता १०४ (टि) सोनक जातक ९६ (टि.) सोमदेव ५७(टि.) ५९ टि, ७७, ११८ (टि.) सोमदेवभट्ट ११७, १२०, सोमप्रभसूरि ३०८, १७६. सोममंत्री ७६ सोमशर्म ८७ सोमशर्मा ८६ (टि), ८७ सौराष्ट्र ३४, १२२, स्कंदिल १४३, १४४, १४५, १४७, १४८, स्टडिज इन आनर आफ मौरिस ब्लूम फील्ड-येल यूनिवर्सिटी ९२ (टि.) स्टडिज इन् द फोक्टेम्स आफ इण्डिया ८४ (टि), १०० (टि.) । स्टेण्डर्ड डिक्सनरी ऑफ फोकलोर ८३ (दि.) स्त्रीपर्व ९८ (टि.) स्थानांगसूत्र ११ (टि) स्थूलभद्र १०८ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हथिलिंग १६१ (टि.) हब्शी ८३ (टि.) हरिदत्त ४ (टि.) हरिभद्रसूरि १०, १३, २०. ७३, १०५, १०७. १०८, १०९, ११०, १११, ११२ १७७,... हरिवर्ष ११०. हरिवंश ११० हरिवंशचरिय १०८ हरिवंशपुराण १७५ हरिवंशमंत्री ८९ (टि.) हरिविजय १० (टि.), अभिननि ....... १३४, १३५, १३६, १३७, १३८ १४०, १११, १४२, १५२, हरिश्चन्द्रकथानक १.७ हरिषेण ५५ (टि.), १०३ १७२, १७३ . हर्टल ४ (टि.),६३, (टि.) ७६, ७७, ७७, (टि.) ८९; (टि), ९३, ११० (टि) (टि.) ११८ (टि.) १६७ १७७, १८०, हर्मन जैकोबी १८० हस्तिनापुर १४६, १७ हारवर्ड यूनिवर्सिटी ७७ (टि.) हारिभद्रीय आवश्यकवृत्ति १७२ हारिभद्रीयवृत्ति १० (टि.) ५३ (टि.) हिंगुशिव १०९ हितोपदेश ५९ (टि.), ६३ (टि.), ७५, ७५ (टि.), १७७, ८१ (टि.) ८६ (टि. , हिमालय ५, १४३, हिरण्या १२७ हिस्ट्री आफ इण्डियन लिटरेचर ५० (टि.), ७६ (टि.), १८० (टि.) हस्टी आफ संस्कृत लिटरेचर १३२ (टि.) हेमचन्द्राचार्य ३ (टि.) १०, २८, ७७, (टि.) ८४, ९८ (टि.) १०७, १०८, १११ (टि.) ११२ (टि.) ११३ (टि.) ११७ (टि.) १७६, १७७, १७८, १७९, (मलधारी) ६१, (टि.) १०८ हेमचन्द्रीय परिशिष्ट १०८ टि.), हेमांगद १२६ : होयसलराज वल्लाल द्वितीय १०० (टि.) Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LALBHAI DALPATBHAI BHARATIYA SANSKRITI VIDYA MANDIR L. D. SERIES S. No. Name of Publication Price Rs. 50/ 10/ 51 - 1. Sivaditya's Saptapadātibi, with a Commentary by Jinavardhana Sūri. Editor : Dr. J. S. Jetly. (Publication year 1963) 2. Catalogue of Sanskrit and Prakrit Manuscripts : Munirāja Shri Punyavijayaji's Collection, Pt. I. Compiler : Muairāja Shri Punyavijayaji. Editor : Pt. Ambalal P. Shah. (1963) 3. Vinayacandra's Kavyasikşa. Editor : Dr. H. G. Shastri (1964) 4. Haribhadrasūri's Yogašataka, with auto-commentary, along with his Brahmasidhāntasa muccaya. Editor : Muniraja Shri Punyavijayaji. (1965) 5. Catalogue of Sanskrit and Prakrit Manuscripts, Munirāja Shri Punyavijayaji's Collection, pt. II. Compiler : Muniraja Shri Punyavijayaji. Editor : Pt. A. P. Shan. (1965) 6. Ratnaprabhasūri's Ratnākaravatārikā, part 1. Editor : Pt. Dalsukh Malvania. (1965) 7. Jayadeva's Gitagovinda, with King Mānānka's Commentry. Editor : Dr. V. M. Kulkarni. (1965) 8. Kavi Lavanyasamaya's Nemirangaratnakarachanda, Editor : Dr. S. Jesalpura. (1965) 9. The Natyadarpana of Rāmacandra and Guņacandra: A Cri tical study : By Dr. K. H. Trivedi. (1966) 10. Acarya Jinabhadra's Viseşāvasyakabhāşya, with Auto-commen. tary, pt. I. Editor : Dalsukh Malvania. (1966) 11. Akalanka's Criticism of Dharmakirti's Philosophy: A study By Dr. Nagin J. Shah. (1966) 12. Jinamanikyagani's Ratnakarāvatārikādyaslokasatärthi. Editor: Pt. Bechardas J. Doshi. (1967) 13. Ācarya Malayagiri's Ŝabdanušāsana. Editor : Pt. Bechardas (1967) 14. Ācārya Jinabhadra's Višeşāvašyakabhāsya, with Auto-commen tary, Pt. II. Editor Pt. Dalsukh Malvapia. (1968) 15. Catalouge of Sanskrit and Prakrit Manusc.ipts : Muniraja Punyavijayaji's Collection. Pt. III. Compiler : Muniraja Shri Punyavijayaji. Editor : Pt. A. P. Shah. (1968) 30/151 30/ XS 30/20/ 30/ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10/ 401 21/ 20/ 16. Ratnaprabhasuri's Ratnākarāvatārika, pt. II. Editor : Pt. Dalsukh Malvania. (1968) 17. Kalpalatāviveka (by an anonymous writer). Editor : Dr. Murai Lal Nagar and Pt. Harishankar Shastry. (1968) 18. Āc. Hemacandra's Nighaṇtušesa, with a commentary of Ŝri vallabhagani Editor : Munirāja Shri Punyavijayaji. (1968) 19. The Yogabindu of Ācārya Haribhadrasūri with an English Translation, Notes and Introduction by Dr. K. K. Dixit. (1968) 20. Catalogue of Sanskrit and Prakrit Manuscripts : Shri AC. Devasüri's Collection and Ac. Kşāntisūri's Collection : part. IV. Compiler : Munirāja Shri Punyavijayaji. Editor : Pt. A. P. Shah. (1968) 21. Ācārya Jinabhadra's Višeşāvasyakabhāsya, with Auto Commen tary, pt. III. Editor : Pt. Dalsukh Malvania and Pt. Bechardas Doshi. (1968) 22. The ŝastravārtāsamuccaya of Ācārya Haribhadrasüri with Hindi Translation, Notes and Introduction by Dr. K. K. Dixit. (1969) 23. Pallipāla Dhanapala's Tilakamañjarisāra Editor : Prof. N. M. Kansara. (1969) 24. Ratnaprabhasūri's.' Ratnakarāvatārikā pt. III. Editor : Pt. Dalsukh Malvania. (1969) 25. Āc. Haribhadra's Neminähacariu : Editors : Shri M. C. Modi and Dr. H. C Bhayani. (1970) 26. A Critical Study of Mabapuraņa of Puşpadanta. (A Critical Study of the Desya and Rare words from Puşpadanta's Mahapurāņa and His other Apabhramsa works). By Dr. Smt. Ratna Shriyan. (1970) 27. Haribbadra's Yogadrstisamuccaya with English translation, Notes Introduction by Dr. K. K Dixit (1970) 28. Dictionary of Prakrit Proper Names, Part 1 by Dr. M. L. Mehta and Dr. K. R. Chandra. (1970) Pramāņavārtikabhasya Kārikārdhapādasūci. Compiled by Pt. Rupendrakumar. (1970) 30. Prakrit Jaina Kathā Sahitya by Dr. J. C. Jain. (1971) 31. Jaina Ontology. By Dr. K. K. Dixit (1971) Following are in the press : (1) Neminābacariu Part II (2) Nyāyaman jarigranthibhanga. (3) Madanarekhā Ākhyāyikā. (4) Adhyātrabindu. (5) Dictionary of Prakrit Proper Names. Part II. (6) Sanatkumāracariu. 401 30/ 327 8/10/30/ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Terms Regarding Sale (in force from 1st April 1971) 1. Book-sellers shall ordinarily receive a discount of 25% on all the publi cations of L. D. Series. 2. The Railway frieght and cost of packing shall not be charged from those placing at a time an order amounting to Rs. 1,000 or more. 3. Those whose purchase for full one year (1st April to 31 st March) amo unt to Rs. 5,000 or more shall at the end of the year get an additional discount of 5% while those whose purchases for that period amount to Rs. 10,000/- or more shall get an additional discount of 10% over and above the discount mentioned in rule 1 above. This amount will not be paid in cash but will be adjusted against the bill or bills of the next year. 4. The payment should be made within a month after the presentation of the bill. बिक्री के नियम ( १ अप्रैल १९७१ से) १. पुस्तक-बिक्रेताओं को ला. द. ग्रन्थमाला (L. D. Series) के प्रकाशनों पर साधारणतः २५ प्रतिशत कमीशन दिया जायगा । २. १,००० रु० या इससे अधिक के एककालिक आर्डर पर रेलभाड़ा तथा पैकिंग नहीं लिया जायगा । वर्ष भर (१ अप्रैल से ३१ मार्च) में ५,००० रु० या इससे अधिक की पुस्तकें खरीदने पर नियम १ में उल्लिखित कमीशन के अतिरिक्त ५ प्रतिशत अधिक और १०,०००रु. या इससे अधिक की पुस्तकें खरीदने पर १० प्रतिशत अधिक कमीशन वर्ष के अन्त में दिया जायगा। इस कमीशन की रकम नगद नहीं दी जायगी किन्तु आगामी वर्ष के बिल या बिलों में से काट दी जायगी । ४. बिल मेजने के बाद एक मास की अवधि में पेमेन्ट हो जाना चाहिए । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Hall jainelibrary.org