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के रचयिता महाकवि गुणाढय भी हाल के प्रिय कवियों में से थे। उद्योतनसूरि ने कुवलयमाला की प्रस्तावना में सर्वप्रथम पादलिप्तसूरि का परिचय देते हुए उन्हें राजा सातवाहन की गोष्ठी की शोभा कहा है । इस कवि ने चक्रवाकयुगल की घटना से सुभग तथा सुन्दर राजहंसकृत हर्ष से संयुक्त, कुलपर्वत से निसृत गंगा की भाँति तरंगवती की रचना की। कवि धनपाल ने भी तिलकमंजरी में तरंगवती की उपमा प्रसन्न एवं गंभीर मार्ग वाली पुनीत गंगा नदी से दी है।
तरंगवती का संक्षिप्त रूप तरंगलोला (खित्त तरंगवई) के नाम से प्रसिद्ध है जिसकी रचना आचार्य वीरभद्र के शिष्य नेमिचन्द्र गणि ने की है।'
कौमुदी महोत्सव के अवसर पर तरंगवती का नगर के धनदेव सेठ के पुत्र पद्मदेव से प्रेम हो गया । धनदेव के पिता ने अपने पुत्र के लिए तरंगवती की मंगनी की, लेकिन तरंगवती के पिता ने इन्कार कर दिया। इस पर तरंगवतो ने भोजपत्र पर एक प्रेमपत्र लिख अपने प्रेमी के पास भिजवाया । अपनी सखिको साथ लेकर वह उसके घर पहुँची और वहाँ से दोनों नाव में बैठ नदी पार कर गये । दोनों ने गंधर्व विधि से विवाह कर लिया ।
जान पड़ता है कि तरंगवती जैन कथाग्रंथों में सर्वप्रथम शृङ्गारप्रधान कथाग्रंथ रहा होगा। उद्योतनसूरि और धनपाल के अतिरिक्त अनुयोगद्वारसूत्र (१३०) १. पादलिप्त की तरंगवई कहा के संबन्ध में नेमिचन्द गणि ने लिखा है
पालितएण रइया वित्थरओ तह य देसिवयणेहिं । नामेण तरंगवई कहा विचित्ता य विउला य ।। कत्थइ कुलयाई मणोरमाई अण्णत्थ गुविलजुयलाई । अण्णत्थ छक्कलाई दुप्परिअल्लाई इयराणं ॥ न य सा कोई सुणेइ नो पुण पुच्छेइ नेव य कहेइ । वि उसाण नवर जोगा इयरजणो तीए किं कुणउ ॥ तो उव्वे (य) जणं गाहाओ पालितएण रइयाओ । देसिपयाई मोत्तु संखित्तयरी कया एसा । इयराण हियठाए मा होही सब्वहा वि वोच्छेओ । एवं विचिंतिऊणं खामेऊणं तयं सूरि --रजत महोत्सव स्मारक ग्रंथ, वही । ___ कुवलयमालाकार ने इस रचना का संकीर्णकथा के रूप में उल्लेख किया है। सुप्रसिद्ध जर्मन विद्वान अर्नेस्ट लायमान ने इसका जर्मन भाषान्तर प्रकाशित किया है। नरसिंह भाई पटेल द्वारा इस भाषांतर के गुजराती अनुवाद के लिए देखिए, जैन साहित्य संशोधक द्वितीय खण्ड । पूना, १९२४ ।
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