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________________ ७ काव्य के विविध रूपों का प्रयोग इन विद्वानों ने परम्परागत जैनकथा - साहित्य को अपनी कृतियों का आधार बनाया । संघदासगणिवाचक ने गुरु परम्परागत रचनाओं के आधार पर लिखित वसुदेवहिंडी में विष्णुकुमारचरित के प्रसंग में विष्णुगीतिका की उत्पत्ति बतायी है ।' हरिभद्रसूरि ने समराइच्चकहा में प्रश्नोत्तरपद्धति एवं समस्यापूर्ति का प्रयोग किया है । १. २. 3. यह साधुओं के गुणकीर्तन करते समय गायी गयी है उवसम साहुवरिया ! न हु कोवो वणिओ जिणिदेहिं । हुति हु कोवणसोल्या, पावंति बहूणि जाइयव्वाई ॥ - हे साधुश्रेष्ठ ! शांत होओ ! जिनेन्द्र भगवान् ने भी कोप को उत्तम नहीं कहा । जो कोपशील होते हैं, वे संसारभ्रमण को प्राप्त होते हैं । पृ० एक अन्य गीत देखिए- १३१ अड नियंठा सुरठं पविट्ठा, कविट्ठस्स हेट्ठा अह सन्निविट्ठा । पडियं कवि भिण्णं च सीसं, अन्वो ! अव्वो ! वाहरंति हसंति सीसा ॥ - आठ निर्ग्रथों ने सौराष्ट्र में प्रवेश किया । कैथ के वृक्ष के नीचे वे बैठ गये । वृक्ष पर से कैथ टूटकर गिरा; उनका सिर फट गया । शिष्य आहा ! आहा ! करके हंसने लगे । प्रश्नोत्तर शैली देखिए - प्रश्न :- किं देति कामिणीओ ? के हरपणया ? कुणंति किं भुयगा ? कंच मऊ हेहि ससी धवलइ ? १ - कामिनियाँ क्या देती है ? २ - शिवको कौन प्रणाम करता है ? ३ - सर्प क्या करते हैं ? ४ - चन्द्रमा अपनी किरणों द्वारा किसे धवल करता है ? उत्तर :- नहंगणा भोयं -- (१) नख, (२) गण, (३) भोग (फण), (४) नभ के आँगन का विस्तार । (८, पृ. ७४४ ) सरस्वतीकण्ठाभरण (२, १४८ ) में प्रश्नोत्तर का निम्नलिखित लक्षण किया हैयस्तु पर्यनुयोगस्य निर्भेदः क्रियते बुधैः । विदग्धगोष्ठ्यां वाक्यैर्वा तद्धि प्रश्नोत्तरं विदुः ॥ आचारांग नियुक्ति में एक ही समस्या की पूर्ति परिव्राजक, तापस, बौद्ध और जैन साधु से कराई गई है । गूढचतुर्थगोष्ठी में चतुर्थ पद की पूर्ति की गई है- सुरयमणस्स रइहरे नियबिंबभमिरं वहू धुयकरग्गा । तक्खणवुत्तविवाहा.. Jain Education International समस्यापूरक चतुर्थ पद वरयस्स करं निवारेइ । -- रतिघर में, अभिनवपरिणीता, सुरतमन वाली वधू अपने नितम्बों को घुमाती हुई, उंगलियों को नचाती हुई वर के हाथ को रोकती है । (८, पृ० ७५२ ) हेमचन्द्र के काव्यानुशासन (५, ४, पृ० ३२२-२३) में क्रिया, कारक, संबन्ध और पाद के भेद से गूढ़ के चार प्रकार बताये हैं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002634
Book TitlePrakrit Jain Katha Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1971
Total Pages210
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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