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________________ हरिभद्र के शिष्य उद्द्योतनसूरि ने अपनी प्रसादपूर्ण चम्पूशैली में लिखी हुई कुवलयमाला में विदग्ध पुरुषों द्वारा बुद्धिचातुर्य से परिकल्पित विनोदोत्पादक (१) प्रहेलिका,' (२) बूढ़ा (१), (३) अंत्याक्षरी, (४) बिन्दुमती, (५) अट्ठाविडओ (अष्टपिटक), (६) प्रश्नोत्तर, गूढ़ उत्तर, (७) पट्ठ, (८) अक्षरच्युत, १. दण्डी के कान्यादर्श (३, ९५) में प्रहेलिका का निम्न लक्षण किया गया है क्रीडागोष्टीविनोदेषु तज्जैराकीर्णमन्त्रणे । परव्यामोहनं चापि सोपयोगाः प्रहेलिकाः ॥ हेमचन्द्र आचार्य ने प्रश्नोत्तर, प्रहेलिका और दुर्वच आदि को कष्टकाव्य बताकर उसमें काव्यत्व को अस्वीकार किया है। काव्यानुशासन की टीका (५, ४, पृ० ३२३) में प्रहेलिका का निम्न उदाहरण दिया है पयस्विनीनां धेनूनां ब्राह्मणः प्राप्य विशतिम् । ताभ्योऽष्टादश विक्रीय गृहीत्वैकां गृहं गतः ॥ (यहाँ धेनुनां में समास करना चाहिए-धेन्वा ऊनाम) श्रावकप्रतिक्रमणसूत्र की अर्थदीपिकावृत्ति (पृ. १२७) के मंत्रीपुत्रीकथानक में किसी वादी ने मंत्रीपुत्री के ५६ प्रश्नों का उत्तर प्राकृत भाषा के चार अक्षरों में दिया है। देखिए, ज्ञानाञ्जलि (पृ. ५७) में संकलित मुनि पुण्यविजयजी का लेख, वडोदरा, १९६९ । अंत्याक्षरी प्रहेलिका में कविता के अंत्य अक्षर को लेकर उससे नयी कविता बनायी जाती है। उद्योतनसुरि ने उक्त तीनों को गोपालों के बालकों में भी प्रसिद्ध बताया है । ३. आदि और अंतिम अक्षर छोड़कर बाकी अक्षरों के स्थान पर केवल बिन्दु दिये जाते हैं, फिर उसका अर्थ लगाया जाता है, उसे बिन्दुमती कहते हैं । बत्तीस कोठों में व्यस्त-समस्त रूपसे श्लोक का एक-एक अक्षर लिखना अट्ठाविडअ है। दो, तीन अथवा चार प्रश्नों का उत्तर एक ही पद में दिये जाने को प्रश्नोत्तर कहते हैं। प्रश्नोत्तर के अनेक भेद हैं; जैसे एक समान अर्थ वाला, भिन्न-भिन्न अर्थ वाला, मिश्र, आलापक, लिंगभिन्न, विभक्तिभिन्न, कालभिन्न, कारकभिन्न, वचनभिन्न संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, पैशाची, मागधी, राक्षसी, मिश्र; आदि-उत्तर, बाह्य-उत्तर । ६. प्रश्नोत्तर का ही भेद है । प्रश्न के अंदर ही गूढ उत्तर छिपा रहता है, इसे गूढ उत्तर कहते हैं। परबुद्धिवंचन में यह पटु है। ७. कोई प्रश्न किया जाये और उसका उत्तर दिया जाये, फिर भी उसे न समझ सकें, ऐसी प्रकट और गूढ़ रचना को पट्ठ (पृष्ठार्थ) कहते हैं । ८. जहाँ एक अक्षर के उड़ जाने से श्लेष नहीं रहे, किंतु उसमें अक्षर जोड़ने से वह ठीक हो जाय. उसे अक्षरच्युत कहते हैं । उदाहरण के लिए कुर्वदिवाकरश्लेषं दधच्चरणडम्बरम् । देव ! यौष्माकसेनायाः करेणुः प्रसरत्यसौ ॥ (कादम्बरी, पीटर्सन, बम्बई १९००) यहाँ 'करेणु' शब्द में से 'क' निकाल देने से द्वितीय अर्थ की प्रतीति होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002634
Book TitlePrakrit Jain Katha Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1971
Total Pages210
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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