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________________ धावा बोल दिया । व्यापारी इधर उधर भाग गये । चोरों ने गाड़ियों में भरे हुए माल को लूट लिया और बाकी बचे हुए में आग लगा दी । अपने आप को घोर संकट में पड़े हुए देख चारुदत्त का मन निराशा से व्याकुल हो उठा । लेकिन दूसरे ही क्षण उसके मन में विचार आया-यदि मुझे जल्दी ही घर पहुँचना है तो जो पुरुषार्थ मैंने आरम्भ किया है, उसे छोड़ देना होगा। लेकिन “लक्ष्मी का वास उत्साह में है । दरिद्र व्यक्ति मृतक के समान है; स्वजन सम्बन्धियों द्वारा अपमानित होता हुआ ही वह तिरस्कृत जीवन जीता है",' अतएव घर लौटकर जाना ठीक नहीं । चारुदत्त ने साहस बटोरकर फिर प्रस्थान किया । प्रियंगुपट्टन पहुँचा, जहाँ सुरेन्द्रदत्त नाविक से उसकी मुलाकात हुई । यहाँ से वह चीन देश की ओर चला । यानपात्रों को सजाया गया, उनमें विविध प्रकार का माल भरा, सांयात्रिकों के साथ बहुत से नौकर-चाकर लिये, तथा राजा से 'पासपोर्ट' (राजशासन का पट्टक) प्राप्त किया । तत्पश्चात् अनुकूल वायु के बहने पर, शकुन देख, चारुदत्त यानपात्र में सवार हो गया । धूप जलाई गई और जहाज का लंगर छोड़ दिया गया । जहाज चीन देश की ओर चल पड़ा । सर्वत्र जल के सिवाय और कुछ नज़र नहीं आ रहा था। चोन में व्यापार करने के बाद चारुदत्त ने सुवर्णभूमि के लिए प्रस्थान किया। तत्पश्चात् कमलपुर यवन ( यव ) द्वीप (जावा), सिंहल और बब्बर (बार्बरिकोन) और यवन (सिकन्दरिया) की यात्रा करते हुए जहाज सौराष्ट्र की ओर बढ रहा था कि तट पर पहुँचने से पहिले वह जल मग्न हो गया। बड़ी कठिनता से चारुदत्त के हाथ एक पट्ट लगा और लहरों की चपेटें खाता हुआ, सात रात के बाद वह उम्बरावती पहुँचा । इतने समय तक समुद्र में रहने के कारण समुद्र के खारे जल से उसका शरीर सफेद पड़ गया था । १. उच्छाहे सिरी वसति, दरिदो अ मयसमो, सयणपरिभूमो य धीजीवियं जीवइ । वसुदेवहिंडी, पृ० ११५ २. बृहत्कथाश्लोकसंग्रह (१८,२५२) में निम्न वर्णन है तरङ्गजलदालयं मकरनकचक्रग्रह पिनाकधरकन्धरप्रभमनन्तमप्रक्षयम् । महार्णवनभस्तलं लवणसिन्धुनौछद्मना वियत्पथरथेन तेन वणिजस्ततः प्रस्थिताः ।। ३. डाक्टर मोतीचन्द्र ने ख्मेर से इसकी पहचान की है। सार्थवाह, पृ० १३१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002634
Book TitlePrakrit Jain Katha Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1971
Total Pages210
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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