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________________ ३३ करने वाले कुटुम्बीलोग रहते हैं; उनसे सुवर्ण लिया जा सकता है।' लेकिन चारुदत्त ने अपनी अंगूठी बेचकर खरोदे हुए माल से व्यापार किया । उसने रूई और सूत खरीदा लेकिन एक चूहा जलते हुए दीये की बत्ती ले भागा और रूई में आग लग जाने से रूई का ढेर जलकर खाक हो गया । चारुदत्त व्यापार से फिर किसी तरह पैसा इकट्ठा किया । इस पैसे से फिर रूई और सूत खरीद कर गाड़ियों में भरा और व्यापार के लिए चल दिया ! उत्कल देश में पहुँचा । वहाँ से कपास खरीद कर ताम्रलिप्ति की ओर बढा । रास्ते में एक अटवी पड़ी । सार्थ के लोग अटवी के बाहर ठहर गये । जब सब लोग विश्राम कर रहे थे तो अचानक ही कोलाहल सुनायी दिया। चोर अपने सींग और ढोल-ढपड़े बजाते हुए चले आ रहे थे । कारवां के व्यापारियों पर उन्होंने १. बृहत्कथाइलोकसंग्रह में मामा का नाम गंगदत्त है । वह ताम्रलिप्ति का निवासी था । यह नगर धूर्तों का आवास था । देशाटन करता हुआ सानुदास जब उसके घर पहुँचा तो उसने अपन भानजे का स्वागत करते हुए प्रतिज्ञा किये हुए धन से चौगुना धन लेकर अपनी माता के पास लौट जाने को कहा । सानुदास ने उत्तर दिया- धनार्जन के लिए मैंने दृढ़ प्रतिज्ञा की है, मामा ! मुझे कष्ट मत पहुँचाओ । गुरुजनों को चाहिए कि वे बालकों को कार्य करने में प्रवृत्त करें। फिर यदि कोई बालक स्वयं ही कार्य में जुट जाये तो उसे वहां से लौटने के लिए कैसे कहा जा सकता है ? मामाजी ! जो आपने कहा कि आपका धन लेकर मैं कुटुम्बियों का जीवन निर्वाह करूँ तो चार हाथ-पांव वाले मुझ जैसे व्यक्ति के लिए यह उपदेश उचित नहीं । जो अपने मामा का धन लेकर अपनी माता सहित जीता है, उसे अपने मामा और अपनी माता के साथ क्लीब ही समझना चाहिए सारेऽर्थे दृढनिर्बन्धं मा मां व्याहत मातुल || प्रवर्त्यो गुरुभिः कार्ये यत्र बालो बलादपि । स्वयमेव प्रवृत्तस्तैर्निवत्येंत कथं ततः ।। यच्चोक्तं मामकैरर्थैः कुटुम्बं जीव्यतामिति । एतत् सहस्तपादाय मादृशे नोपदिश्यते ॥ मातुलाद् धनमादाय यो जीवति समातृकः ननु मातुलमात्रैव क्लीबसत्त्वः स जीव्यते ।। १८-२३९-४२, पृ० २४०-४१ शुकसप्तति ( ७ ) में मातुल के धन को अधम कहा है उत्तमाः स्वगुणैः ख्याता मध्यमाश्च पितुर्गुणैः । अधमा मातुलैः ख्याता श्वशुरैश्चाधमाधमाः ॥ २. बृहत्कथाश्लोक संग्रह (१८. ३८७) में कहा है कि यह एक ऐसा माल है जिसे अल्प मूल्य में खरीदकर अधिक मूल्य में बेचा जा सकता है । ५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002634
Book TitlePrakrit Jain Katha Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1971
Total Pages210
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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