SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 105
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शक्र हे राजर्षि ! अपने नगर में प्राकार, गोपुर, अट्टालिका, खाई, और शतघ्नी आदि का प्रबंध करने के पश्चात् , निराकुल होकर संसार का त्याग करें। ____ नमि-श्रद्धारूपी नगर का निर्माण कर, उसमें तप और संवर के अर्गल (मूसले) लगा, क्षमा का प्राकार बना, त्रिगुप्तिरूपी अट्टालिका, खाई और शतघ्नी का प्रबंध कर, धनुषरूपी पराक्रम चढ़ा, ईर्यासमितिरूपी प्रत्यंचा बांध, धैर्यरूपी मूठ लगा और तप के बाण से कर्मरूपी कंबुक को भेद, मैंने संग्राम में विजय प्राप्त की है, अतएव अब मैं संसार से छुटकारा पा गया हूँ।' अस्पृश्य समझी जाने वाली जाति में उत्पन्न लोग श्रमणदीक्षा स्वीकार कर मैत्री, कारुण्य आदि का उपदेश देते हैं। अनेक आख्यानों में यज्ञ-याग में होने वाली हिंसा की गर्हणा कर परमधर्म अहिंसा का प्रतिपादन किया गया है । श्रमण संस्कृति में अहिंसा, संयम, तप, त्याग, ब्रह्मचर्य, आत्मदमन, कर्मसिद्धान्त और जातिविरोध की मुख्यता प्रतिपादित की गयी है । अतः श्रमण संस्कृति संबंधी कथाएँ ब्राह्मणों के पौराणिक साहित्य पर आधारित न होकर सामान्य जीवन की लोकगाथाओं पर आधारित हैं। विण्टरनित्स ने इस प्रकार के साहित्य को श्रमणकाव्य नाम से अभिहित कर, समान रूप से महाभारत, जैन एवं बौद्ध साहित्य पर उसके प्रभाव को स्वीकारकिया है। __ महाभारत के शांतिपर्व (मोक्ष धर्म) में ऐसे कितने ही आख्यान और नीतिवचन समाविष्ट हैं जिनकी तुलना जैन और बौद्धों के अहिंसा और मैत्री के सिद्धान्तों से की जा सकती है । एक आख्यान देखिए - १. उत्तराध्ययन सूत्र ९ । तुलना कीजिए महाभारत, शांतिपर्व (१२. १७८ ) तथा सोनक जातक (५२९), पृ० ३३७-३८ के साथ । देखिए 'सम प्रोब्लम्स आफ इंडियन लिटरेचर' में 'एसेटिक लिटरेचर इन एंशियेंट इंडिया', कलकत्ता यूनिवर्सिटी प्रेस, १९२५, पृ० २१-१० । यहाँ पितापुत्र संवाद (महाभारत, सभापर्व),विदुरहितवाक्य (महाभारत ५. ३२-४०), धृतराष्ट्रशोकापनोदन (स्त्रीपर्व २-७), धर्मव्याध के उपदेश (वनपर्व २०७-१६), तुलाधारजाजलिसंवाद (शांतिपर्व २६१-६४), यज्ञनिन्दा (महाभारत १२. २७२), गोकपिलीय अध्ययन (१२, २६९-७१). व्याध और कापोत (शांतिपर्व १४३-१९) आदि प्रकरणों के संवादों और नीतिवचनों की तुलना जैन और बौद्ध उपदेशों के साथ की गयी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002634
Book TitlePrakrit Jain Katha Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1971
Total Pages210
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy