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________________ ९५ वह मरणकाल के समय शोकाभिभूत होता है। जो दशा जल में पड़े हुए हाथी, कांटे से पकड़े हुए मत्स्य और जाल में फंसे हुए पशु-पक्षियों की होती है, वही दशा जरा और मृत्यु से अभिभूत इस जीव की होती है। उस समय अपने त्राता को न प्राप्त करता हुआ, कर्मभार से प्रेरित होकर वह शोक से व्याप्त होता है । आत्मदमन करने, अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण करने और संसार के माया-मोह का त्याग करने से ही शाश्वत, अव्याबाध और अनुपमेय निर्वाणसुख की प्राप्ति हो सकती है संक्षेप में यही निवृत्तिप्रधान श्रमण संस्कृति है जो वैदिक धर्म की प्रवृत्तिप्रधान ब्राह्मण संस्कृति से मेल नहीं खाती। त्याग और वैराग्यप्रधान कथाएँ __ श्रमण संस्कृति की पोषक कथाओं में केवल सामान्य स्त्री-पुरुष ही संसार का त्याग कर श्रमण दीक्षा. स्वीकार नहीं करते, बल्कि विद्वत्ता, शूरवीरता और धनऐश्वर्य से संपन्न उच्चवर्गीय विद्वान् ब्राह्मण, राजे-महाराजे, सेनापति और धनकुबेर भी निर्वाण सुख की प्राप्ति के लिए इस मार्ग का अवलंबन ग्रहण करते हैं। कोई अपने सिर के श्वेत केश को धर्मदूत का आदेश समझकर, कोई बाड़े में बंध हुए निरीह पशुओं की चीत्कार सुनकर, कोई मुद्रिकाशून्य अपनी उंगली, फलरहित आम्र वृक्ष, और मांसखंड के लिए लड़ते हुए दो गीधों को देखकर, कोई किसी उत्सव की समाप्ति पर सर्वत्र शून्यता का अनुभव कर और कोई दीपशिखा पर गिरकर जलते हुए पतिंगे को देखकर, जल के बुबुदों और ओसकण के समान क्षणभंगुर संसार का परित्याग कर संयम, तप और त्याग का अवलंबन लेते हुए आत्महित में संलग्न होते हैं । इस संबंध में नमि राजर्षि और शक्र का संवाद उल्लेखनीय है । राजपाट का त्यागकर वन की शरण लेते हुए मिथिलानरेश नमि से शक्र प्रश्न करता है महाराज ! यह अग्नि और यह वायु आपके भवन को प्रज्वलित कर रही है। अपने अन्तःपुर की ओर आप क्यों ध्यान नहीं देते ? नमि - हे इन्द्र ! हम तो सुखपूर्वक हैं, किसी वस्तु में हमारा ममत्व भाव नहीं है । अतएव मिथिला के प्रज्ज्वलित होने से मेरा कुछ भी प्रज्वलित नहीं होता।' १. विदेह के राजा जनक ने भी महाभारत (शांतिपर्व १७८) में कहा है : अनन्तं बत मे वित्तं यस्य मे नास्ति किञ्चन । मिथिलायां प्रदीप्तायां न मे दहति किश्चन ॥ बौद्धों के धम्मपद का तण्हावग्ग भी देखिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002634
Book TitlePrakrit Jain Katha Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1971
Total Pages210
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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