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________________ अनुसार किस प्रकार आचरण करना चाहिए। तथा यदि बौद्धजातक कथा के लिए पसंद की गयी किसी कहानी में इस प्रकार का नैतिक आचरण नहीं है तो कहानी में तदनुसार परिवर्तन करना पड़ेगा । बौद्धों के अनुसार, अर्थशास्त्र के पठन-पाठन को पापाचरण कहा गया है । लेकिन भारत की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ इसी शास्त्र में विकसित हुई पाई जाती हैं। बौद्ध साधु ऐसी कितनी ही कथाओं को अपने कथासंग्रह में स्थान देते हैं, किन्तु अपने सिद्धान्त के अनुसार, कहानी के उन्हीं मुद्दों को-और फलस्वरूप इन कहानियों की अत्यन्त आवश्यक विशेषताओं को परिवर्तित करने के लिए वे बाध्य होते हैं, और इस तरह अपरिहार्य रूप से स्वयं कहानियाँ ही नष्ट हो जाती हैं। यह केवल एक संयोग की बात नहीं कि पंचतंत्र के अनेकानेक संस्करणों का बौद्धों का एक भी संस्करण उपलब्ध नहीं होता ।' ७. श्रमण संस्कृति की पोषक वैराग्यवर्धक जैन कथाएँ श्रमण संस्कृति में निवृत्ति की प्रधानता उत्तराध्ययन के कापिलीय अध्ययन में कहा है-“अध्रुव, अशाश्वत और दुखों से परिपूर्ण इस संसार में मैं कौनसा कर्म करूँ, “जिससे दुर्गति को प्राप्त न होऊँ ?" उत्तर-पूर्व परिचित संयोग का त्याग करके, जो कहीं किसी वस्तु में स्नेह नहीं करता, और स्नेह करने वालों के प्रति स्नेहशील नहीं होता, वह भिक्षु दोष और प्रदोषों से मुक्त होता है।" यह संसार अनेक दुखों और कष्टों से पूर्ण है। मनुष्य को कर्म का फल भोगना ही पड़ता है। कर्म के वश हुआ वह असंख्य योनियों में अनंतकाल तक भ्रमण करता रहता है । धन, धान्य और बंधु-बांधव उसकी रक्षा नहीं कर सकते । आकाश के समान विस्तार वाली तृष्णा से उसकी तृप्ति नहीं होती। ऐसी अवस्था में जबतक मनुष्य जरा से जर्जरित और आधि-व्याधि से पीड़ित नहीं हो, तब तक आत्मस्वरूप को पहचान कर उसे धर्म का आचरण करना चाहिए । मनुष्य जन्म की प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है। मनुष्य जन्म पाकर जो परलोकहित में रत नहीं रहता, १. आन द लिटरेचर आफ द श्वेतांबराज आफ गुजरात, पृ. ७-८ अधुवे असासयम्मी संसारम्मी दुक्खपउराए । किं नाम होज्ज तं कम्मयं, जेणाहं दोग्गई न गच्छेज्जा ॥ विजहित्तु पुव्वसंजोय, ण सिणेहं कहिचि कुब्वेज्जा । असिणेह सिणेहकरेहिं, दोसपओसेहिं मुच्चए भिक्खू ॥ उत्त० ८. १-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002634
Book TitlePrakrit Jain Katha Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1971
Total Pages210
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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