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________________ १२४ सवार हो वाराणसी से लौट आया । पुक्कस ने विश्विल को बताया कि राजा चाहता है कि जो आकाशयंत्रविज्ञान उसने अपने जामाता को सिखाया है, उसे वह उसके शिल्पियों को भी सिखा दे । लेकिन पुक्कस ने कहा कि यह विज्ञान उसके जामाता ने यवन के शिल्पियों से सीखा है। इसपर राजा ने कुपित होकर पुक्कस को मृत्युदण्ड की धमकी दी। विश्विल ने अपनी पत्नी से कहा-"राजा आकाशयंत्रविज्ञान सीखना चाहता है, लेकिन इस विज्ञान को हमें इसी प्रकार छिपाकर रखना चाहिए जैसे कृपण धन को रखता है। इसकी रक्षा के लिए मैं तुम्हें तक छोड़ने को तैयार हूँ।" तत्पश्चात् रात्रि के समय अपनी भार्या के साथ कुक्कुटाकार यान में सवार हो विश्विल अपने स्थान को चला गया। उधर राजा के शिल्पियों को यंत्र का निर्माण करने में असमर्थ देख सेनापति ने उनकी बहुत ताड़ना की। इस समय किसी आगन्तुक ने वहाँ उपस्थित हो गरुडाकार यंत्र का निर्माण किया । यंत्र की मंदार के पुष्पों से पूजा की गयी। राजा ने रानी से कहा कि यंत्र तैयार हो गया हैं, और वह इच्छानुसार आकाश की सैर कर सकती है। शिल्पी ने निवेदन किया कि वह यंत्र समस्त नगरवासियों का भार वहन करने में सक्षम है । राजा का समस्त अन्तःपुर, अपनी स्त्रियों सहित मंत्रीगण, और पुरवासी यंत्र में सवार हो पूर्व दिशा की ओर चल पड़े। सारी पृथ्वी में घूमकर राजा अवन्ती नगरी में आया । महासेन राजा द्वारा विश्विल का बहुत सम्मान किया गया।' २ पुरुषों के भेद (अ) वसुदेवहिंडी : कृष्णपुत्र शंब अपने सखा जयसेन और बुद्धिसेन नामक राजकुमारों के साथ रथ में सवार हुए जा रहे थे। तीनों में वार्तालाप हो रहा है जयसेन-(शंब को लक्ष्य करके) आर्यपुत्र ! बुद्धिसेन बिचारा सीधा-सादा है, वह बात करने में ही कुशल है । जो कष्ट सहन नहीं कर सकता, वह कुपुरुष है । . बुद्धिसेन जैसे अंधपुरुष को किसी रूप-रंग का ज्ञान नहीं हो सकता, वैसे ही तुम भी पुरुषों के ज्ञान से वंचित हो । _ जयसेन-अच्छा, तू जानता है तो बता कि पुरुष कितने प्रकार के होते हैं ? तेरी बुद्धि का पता चल जायेगा । बुद्धिसेन--अर्थ, धर्म और काम की अपेक्षा पुरुषों के उत्तम, मध्यम और अधम-ये तीन भेद किये गये हैं । जो पिता और पितामह के द्वारा उपार्जित १. ५. १९६-२९७. पृ० ६५-७५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002634
Book TitlePrakrit Jain Katha Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1971
Total Pages210
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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