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________________ १२३ (आ) बृहत्कथाश्लोकसंग्रह : उदयन की रानी पद्मावती ने विमान में सवार हो पृथ्वी के भ्रमण की इच्छा व्यक्त की । उदयन के मंत्री रुमण्वत ने शिल्पियों को बुलाकर आकाशगामी यंत्र तैयार करने का आदेश दिया। शिल्पियों ने उत्तर दिया कि वे केवल जलयंत्र, अश्मयंत्र, पांशुयंत्र और काण्डराशिकृत यंत्र-इन चार प्रकार के यंत्रों' का ही निर्माण करना जानते हैं; आकाशयंत्र यवनदेशवासी ही बना सकते हैं। महासेन का पुक्कस नामक बढ़ई सेना के साथ सौराष्ट्र गया हुआ था । वहाँ विश्विल नामक एक कुशल शिल्पी से उसकी भेंट हुई । पुक्कस ने सर्वगुणसम्पन्न अपनी रत्नावली नाम की कन्या का उसके साथ विवाह कर दिया । विश्विल ने जंगल में से लकड़ियाँ काटकर उनसे यवनयंत्रों (यावनानि यंत्राणि) का निर्माण किया । आरोग्य प्रदान करने वाले और भोजन बनाने के उपकरण तैयार करके उनसे जो धन की प्राप्ति होती, उसे अपने श्वसुर को दे देता। एक बार विश्विल काशी देश के राजा का आदेश पाकर देवकुल के निर्माण के लिए वाराणसी गया। विश्विल वहाँ से कुक्कुटयंत्र में बैठकर रात्रि के समय चुपचाप अपनी पत्नी से मिलने आता और सुबह होने के पूर्व ही लौट जाता। एक बार दूतों ने उसे देख लिया । उनके पाँव पड़कर विश्विल ने उसके आकाशयंत्र द्वारा आगमन की बात किसी से न कहने की प्रार्थना की; क्योंकि यह विज्ञान यवनदेश के लोगों के सिवाय और किसी को ज्ञात नहीं था। कुछ दिनों बाद विश्विल आकाशयंत्र में १. कथासरित्सागर ६. ३. १७. २२ में अनेक प्रकार के मायायंत्रों का उल्लेख है । काष्ठ की बनी हुई यंत्र पुत्तलिका चाबी घुमाने से आकाश में उड़ जाती थी, कोई नाचने लगती थी और कोई वार्तालाप करने लगती थी । अपने पति की सेवा के लिए सोमप्रभा ने आकाशमार्ग से उड़कर अपने घर गमन किया । बृहत्कल्पभाष्य (४.४९.५) में यवन देश में यंत्रमय प्रतिमाओं के निर्माण करने का उल्लेख है। इससे यवन देश के साथ भारत के संबंधों और सांस्कृतिक आदान-प्रदान का होना सूचित होता है। वसुदेवहिंडी (पृ. ३८-३९) में कौशाम्बी में.. यवन देश के अधिपति द्वारा भेजे हुए दूत के आगमन का उल्लेख है । कौशाम्बी के राजा ने उसका आदर-सत्कार किया । राजा के पुत्र आनन्द को रुग्ण देख कर यवनदूत ने उसके विषय में प्रश्न किया । उसने कहा कि क्या उस देश में औषधियाँ नहीं मिलती अथवा वैद्य नहीं हैं जो राजपुत्र की यह दशा है। उसने नव उत्पन्न अश्वकिशोर के रक्त में थोड़ी देर के लिए रोगी को रखने के लिए कहा । यवनों के 'खवाघटनविज्ञान' का भी यहाँ उल्लेख है । लाकोत के अनुसार, यूनानी लोग अपनी खाट को मेज के रूप में परिवर्तित कर सकते थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002634
Book TitlePrakrit Jain Katha Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1971
Total Pages210
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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